शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

यूपी से एमपी पहुँचा सीऍफ़एल



धरती की तपन से अब सरकार के भी पसीने छुटने लगे हैं। जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी गंभीर दिख रही हैं। हम धन्यवाद देते हैं बहनजी (मायावती) को, जिनके शासन ने यूपी में सभी सरकारी दफ्तरों में विद्युत ऊर्जा बचत के लिए पहल शुरू कर दी है। पिछले दिनों मीडिया में खबरें आई थीं कि यूपी सरकार ने सभी कार्यालयों में लटके बल्बों को हटाकर सीऍफ़एल लगाने का आदेश जारी किया है तो पर्यावरण प्रेमियों को प्रसन्नता जरूर हुई होगी। यूपी के बाद अब मध्य प्रदेश इस कड़ी में शामिल हो गया है। वहां की सरकार ने इसी महीने (अक्टूबर) उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अपने सभी कार्यालयों में सीऍफ़एल के प्रयोग की पहल शुरू कर दी है। निःसंदेह, दोनों सरकारें धन्यवाद की पात्र हैं। अन्य राज्यों को भी कुछ ऐसा ही कदम उठाना चाहिय पर्यावरण संरक्षण की लिए। सीऍफ़एल (कोम्पैक्ट फ्लूरेसेंट लाइट) के प्रयोग के मुख्यतः दो फायदे हैं। पहला, इससे विद्युत ऊर्जा की काफी बचत होती है तो दूसरे ओजोन छतरी को नुकसान पहुंचाने वाले अवयव कार्बन का उत्सर्जन भी कम जाता है। यह जानते हुए भी लोगों की पहुँच सीऍफ़एल तक नहीं हुई है, क्योंकि इसकी कीमत अत्यधिक है। ६० वाट का साधारण बल्ब ५-६ रुपये में बाज़ार में उपलब्ध हैं। इसलिए आम उपभोक्तायों का घर इसी बल्ब से रौशन होता है। सीऍफ़एल की कीमत कम हो इसके लिय सरकार व् बल्ब बनाने वाली कंपनियों के बीच कुछ ठोस एवं ईको-फ्रेंडली नीति पर काम होना चाहिय। इसको लेकर जागरूकता की भी कमी है।
आईये, हम सब मिलकर बल्बों, ट्यूबलाईट व् अधिक ऊर्जा खपत कराने वाले बल्बों को टा-टा कहें और सीऍफ़एल के प्रयोग की ओर कदम बढाएं। एक विन्रम निवेदन है की ख़ुद ईको-फ्रेंडली (पर्यावरण मित्र) बने और दूसरे को भी इसके लिए प्रेरित करें। बेवजह दिन में जलते स्ट्रीट लाईट को बिना शरमाय जरूर स्विच ऑफ़ करें। एसा अपने घर में भी करें। ऊर्जा बचत के साथ पैसा का भी बचत होगा और कार्बन उत्सर्जन भी कमेगा।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

मूढ़ मानुष गाँधी को क्या जाने

गाँधी पूर्ण आध्यात्मिक व ईश्वरीय व्यक्ति थे, जिन्हें समझना एक व्यक्ति के लिए उतना ही कठिन है जितना परमेश्वर के तत्वज्ञान को जान पाना। जो मूढ़ मानूष आजतक ख़ुद को, अपने अंतर्मन को, अपनी अंतरात्मा को, जीवन व प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से अपरिचित रह अधकचरे ज्ञान के अहम् में मस्त है, भला उसे ईश्वर सत्ता के मर्म की समझ कहाँ होगी? सुकरात, ईसा मसीह की तरह गांधी को भी यह भौतिक जगत नहीं पचा सका, क्योंकि ये महामानव जाति, धर्म, वर्ण, भाषा, ऊंच-नीच, वाद, क्षेत्र में बंटे इस जगत को भी हमेशा प्रकृति के मूल तत्व की कसौटी पर कसकर देखा। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि में भेद न कर गांधी ने आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर खुद को विराजमान किया। और यही जीवन का सार तत्व भी है, लेकिन रंग, वर्ण, धर्म में बांटकर समाज में जहर फैलाने वाले लोगों को गांधी नहीं सुहाए। प्राण त्यागने के समय भी गांधी की जुबान से 'हे राम' निकला। इससे समझा जा सकता है कि गांधी का जीवन परम ज्ञान व ब्रह्म शब्द से कितना पिरोया हुआ था। 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम...' प्रार्थना व गीता का संसर्ग उनके अन्दर दिव्य शक्ति पैदा किया था। आज के युवा कही-सुनाई बातों को लेकर गांधी को बुरा-भला कहते हैं। बुरा-भला वही कहते हैं जो मूढ़ हैं, जो अधकचरे ज्ञान से भरे हैं, जो जीवन जीने की कला आज तक नहीं सीख पाए। हिंदुत्व, इस्लामियत, ईसाइयत, यहूदियत आदि धर्मों का झंडा ढोने वाला कभी दिव्य पुरूष हो ही नहीं सकता, क्योंकि हरेक धर्म का सार है-सत्य का धारण करना। और सत्य सिर्फ़ वही है जो प्रकृति से उत्पन्न है। कोई भी धर्म हिंसा, घृणा या इंसानों को बांटने का संदेश नहीं देता है। चालाक इंसान यानि धर्मावलम्बी अपनी मठाधियत बरकरार रखने की लिए धर्म को अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर समाज को बांटने का काम किया है। युवाओं, पहले गांधी के जीवन व कर्म का अध्ययन करो। ख़ुद तो अपने तक सिमटे रहे। जनकल्याण के लिए एक तिनका भी खर्च नहीं किया आजतक और चल दिए आलोचक बनने। अरे, गांधी तो दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत को आजाद करवाने एवं अस्पृश्यता के खिलाफ लंबी लडाई का शंखनाद किया। अपना पूरा जीवन देश के लिए झोंक दिया। भारतवासियों ! अपने गांधी को तुम गाली देते रहो, दुनिया तो पूज रही है न। क्योंकि तुम अधकचरे हो और दुनिया बुद्धिमान। दुनिया हीरे को पहचानती है। तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ गांधी जयंती को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित किया। गांधी का सिद्धांत 'सत्य व अहिंसा' ही अन्तिम सत्य है, तुम्हारा सिद्धांत चाहे हिंदुत्व का हो या इस्लामियत का मिट जाने वाला है। हिंदुत्व के झंडाबरदारों, मुझे यह तो बताओ की फिर अछूत-पिछडे-दलित-हरिजन क्या हिंदू नहीं है? यदि है तो कहाँ लगाते हो उसे गले। न तुम्हारे संगठन में, न तुम्हारी पार्टी में और न तुम्हारे किसी समारोहों में दीखते हैं ये लोग। यह ढोंग असली हिंदू समझ गया है। सच्चे मुसलमान, हिंदू या सिख, ईसाई के लिए तो सारा संसार उसका अपना है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' ही उसका नारा है। गाँधी भी तो इसी बुनियाद पर खड़े थे।

सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

कंसा के लोगों से सीख तो लो आतिशबाजों


हम इतने पिछडे क्यों है ? क्योंकि हम शिक्षित हैं। हमसे अच्छा तो अनपढ़ है, जो जानकारी व ज्ञान के अभाव के बावजूद हमसे ज्यादा समझदार हैं, इको फ्रेंडली हैं। हम बुद्धिजीवी जो ठहरे। भला कुल्हड़ में चाय क्यों पियें, कपडे के झोले में सब्जी क्यों धोएं, सायकिल क्यों चलायें ? प्लास्टिक के कप में चाय पीना, पालीथीन में सब्जी ढोना, बाईक-कार चलाना, एसी कमरे में रहना बड़े लोगों का स्टेटस सिम्बल जो है। ये तथाकथित पढाकू लोग अपना लाइफ स्टाइल चेंज नहीं करेंगे, क्योंकि फटाफट जिंदगी जीने में विश्वास करते हैं, भाड़ में जाए पर्यावरण, प्रकृति और प्राणी जगत।
भई, पैसे वाले ये हैं तो आतिशबाजी करेंगे गरीब के बच्चे ! लखनऊ की युगरत्न जैसी नन्हीं लड़की संयुक्त राष्ट्र में जाकर पर्यावरण को बचाने की अपील करती है, इसके बावजूद शर्म नहीं आती इन स्वार्थी व एशो-आराम की जिंदगी जीने वालों को। पूरी दुनिया में पर्यावरण को हो रहे नुकसान व उसे बचाने की मुहीम के बीच भी इस बार की दिवाली में बच्चे तो बच्चे बड़े भी करोड़ों के बम-पटाखें उडाये।
इस बार की दिवाली मैंने गुवाहाटी में मनाई। एक पत्रकार मित्र ने कहा कि अखबार का पेज छोड़ने के बाद खूब पटाखे उडायेंगे। मैंने उनसे कहा, भाई साहब पर्यावरण पहले से जख्मी है फिर उसे क्यों जख्मी करने पर तुले हैं ? तो उन्होंने हंसते हुए कहा, क्या सारंग जी आप भी कहाँ चले जाते हैं? मैंने इस बार तेवर में कहा, जब हम पड़े-लिखे लोग ही जानबूझ कर गलती करेंगे तो बाकि लोग क्या अनुसरण करेंगे ? उस वक्त तो उन पर असर हुआ पर रात में दस बम उडाये ही। हालाँकि इसी बीच देशभर से कुछ अच्छी खबरें भी आई है। गुजरात के मेहसाना जिले के एक गाँव कंसा के लोगों ने इस बार आतिशबाजी न कर पर्यावरण रक्षा का संदेश दे गए। एक ग्रामीण रमेश भाई का कहना है की यह समय पर्यावरण संरक्षण का है और इसके प्रति जागरूकता लाने का। उन्होंने दावा किया की उनके गाँव में दुकानों पर पटाखे नहीं बिकते हैं और दिवाली के दिन आतिशबाजी की बजाय खेल और सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है।
लिहाजा, पर्यावरण की रक्षा केवल सरकार के बूते की बात नहीं है। इस विषय पर सरकार की नीति भी अव्यवहारिक है। वह गुटखा की बिक्री पर प्रतिबन्ध तो लगाती है पर गुटखा बनाने वालों पर नहीं। सिगरेट पीने वालों पर जुर्माना लगाती है पर निर्माताओं को खुली छूट दे रखी है। पटाखे उडाने वालों पर अंकुश लगाना चाहती है, लेकिन शिवाकाशी (पटाखा फैक्ट्री) में कोई हस्तक्षेप नहीं। बिसलेरी बोतलों व प्लास्टिक कचरों का धरती पर अम्बार लगता जा रहा है लेकिन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की नजर इन पर नहीं पड़ती है। खैर, ख़ुद जनता जाग जाय तो सरकारी पहल की कोई जरूरत नहीं।
आईये, हम भी संकल्प लें कि आनेवाले पर्व को इको-फ्रेंडली तरीके से मनाएंगे और पड़ोसियों से भी अनुनय-विनय करेंगे ऐसा ही कुछ कराने के लिए। बच्चों, तुम भी आगे आओ पर्यावरण को बचाने के लिए और एक हिस्सा बन जाओ इस मुहीम का।


बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

धरती संकट में : जल के लिए तरसेंगे लोग

सुनामी की लहरें लाखों परिवारों को निगल जाती हैं। बुंदेलखंड में हजारों परिवार सिर्फ़ इसलिए पलायन कर गए/रहे हैं, क्योंकि वहां के कुएं सुख गए हैं, हैण्ड पम्प में पानी नहीं आ रहा है। बेतहाशा गर्मी बढ़ रही है। कुछ इन्हीं सवालों पर एक गहरी नज़र :-
आज पूरी दुनिया में करीब एक अरब लोगों को पानी नहीं मिलता है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, ब्राजील जैसे लगभग तमाम विकासशील देशों में तक़रीबन २२ लाख लोग गंदे पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण मौत की शरण में चले जाते हैं। धरती के सम्पूर्ण जल में साफ पानी का प्रतिशत ०.३ से भी कम है। आने वाले अगले २० वर्षों में खेती, उद्योग सहित अन्य क्रियाकलापों के लिए ५७ फीसदी अतिरिक्त जल की आवश्यकता होगी। पर्यावरणविदों की भविष्यवाणी है कि २०२५ तक एक-तिहाई देशों में रहने वाली विश्व की दो-तिहाई आबादी पानी के गंभीर संकट से जूझती नजर आएँगी। कोई दो राय नहीं कि तब दुनिया पानी के लिए युद्ध रत होंगे।
भारत के अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरों ने भी जल संकट को लेकर भारतीयों को आगाह करना शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ के बुंदेलखंड जल संकट के गंभीर दौर से गुजर रहा है। जल के लिए लोग पलायन करने पर मजबूर हुए। पूर्वोत्तर का द्वार कहलाने वाले आसाम के गुवाहाटी में भी जल की समस्याएं घेर रही हैं। इस साल मेघों के प्रदेश मेघालय में भी औसत से कम बारिश हुई। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही असर है। बिहार में भी जल संकट बढ़ रहा है। पिछले दिनों मुजफ्फरपुर प्रमंडल के भूगर्भ जल सर्वेक्षण विभाग ने मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण के कुछेक प्रखंडों में भूगर्भ जल की उपलब्धता पर सर्वे कराया। सर्वे से जो तथ्य सामने आए वह राज्य में बढ़ते जल संकट की ओर इशारा करता है। इन प्रखंडों में जितना पानी जमा होता है उससे ७० % अधिक पानी निकल रहा है। यानि पानी के रिचार्ज और ड्राफ्ट का अन्तर ७० % का है। समय से पूर्व नहीं चेता गया तो आने वाले दिनों में उत्तर बिहार के लोग भी पानी के लिए तरसेंगे । खेत, चापाकल, कुएं सूख जायेंगे।
डोली-कहार की परम्परा ख़त्म हो गयी। बैलों के समूह से गेंहू दौनी का चलन बंद हो गया। धेकुल से खेतों में पानी पटाना छोड़ दिया किसानों ने। जानवरों के मरने पर गिद्धों का मंडराना दिखाई नहीं देता। शीशम के पेड़ लुप्त हो रहे हैं। मिटटी के बर्तन का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया, जो प्रकृति के लिए नुकसानदेह हो रहा है। यूँ कहे की आदमी अपनी पुरानी चीजों को छोड़कर तथाकथित विकास की रफ्तार के साथ अंधी दौड़ लगा रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रकृति और जीवन ही नहीं रहेगा तो विकास का क्या मतलब ? जिस प्रकृति ने हमें शुद्ध पेयजल, हवा और हरियालियुक्त धरती दी है, उसे आदमी ने भौतिक सुख-सुविधायों की प्राप्ति के लिए अनेक कल-कारखाने लगाकर उसे प्रदूषित कर किया है। वनों को काटकर सुंदर शहर बसाया जा रहा है, मॉल स्थापित की जा रही है। मुंबई को पेरिस बनाने वाले भारत के नीति-निर्धारकों को पता होना चाहिय की आने वाले समय में मुंबई पानी में डूबने जा रहा है। इसका संकेत भी मिलना शुरू हो गया है।
कृषि और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक है। हरित क्रांति लाने के चक्कर में किसानों ने अन्धाधुन्ध तरीके से रासायनिक खादों, कीटनाशकों का प्रयोग करना शुरू किया। इसका कुपरिणाम पर्यावरण को झेलना पड़ रहा है। इसके प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हुई, जीव-जन्तुयें मरने लगे, लोगों और जानवरों के सेहत पर असर पड़ रहा है। पंजाब के कई गाँव में रासायनिक खाद आदि के प्रयोग से वहां का पानी जहरीला हो गया है। कृषि उत्पादन घटा है। अतः एकबार फिर हमें जैविक खेती की ओर मुड़ना होगा। जरूरत है हम सबकों एकजूट होकर पर्यावरण को बचाने के मुहीम में जुटाने की। हरेक आदमी पेड़ रोपना एवं जल का संरक्षण करना अपना धर्म समझे।

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

हम जन्नत यहीं बनायेंगे

- प्रोफ़ेसर निराला वीरेन्द्र
अपनी मिहनत और मशक्कत से, आसमां को झुकायेंगे
सब्र रख ये अहले चमन, हम जन्नत यहीं बनायेंगे ।

सेहरा में सैर अपनी है, जलन तो जरूर होगी
पांव में छाले होंगे, मगर मुस्कुराएंगे ।

माना कि एक धुंध में दबे पड़े हैं हम,
लेकिन इंकलाबी फूंक से, हम इसे उडाएंगे।

ये जुनूने इश्क है, इसका नशा उतरेगा क्या
हद से गुजरने का फन, हम तुम्हें सिखायेंगे।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

कब तक बिकेंगे आप

संतोष सारंग
कौन कहता है कि पत्रकार बिकते नहीं हैं। पत्रकार भी बिकते हैं एकदम मोल के भाव। कौन कहता है कि कलम गिरवी नहीं रखी जाती है चंद सिक्कों की खातिर। कलम सच उगलती थी, पर बाजारवाद ने कलम को झूठ उगलना सिखला दिया। जिस पत्रकार की कलम सच उगलती है, उसकी हाथ कट ली जाती है। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का जमाना चला गया। प्रोफेशनल पत्रकारिता का युग चल रहा है। जो पत्रकार ब्लैक मनी पर पल रहे पदाधिकारियों एवं भ्रष्ट नेताओं की चमचागिरी करते हैं, वे उतने बड़े पत्रकार होते हैं। मंगरू मांझी भूख से बिलबिलाकर मरे तो चंद लाइन की ख़बर अन्दर के पेज पर छपती है। कोई भ्रष्ट व अपराधी किस्म का नेता बयान जारी कर दे तो मुख पृष्ठ की ख़बर बन जाती है। मंगरू की मौत बिक नहीं सकती न, इसलिय। नेताजी तो विज्ञापन देते हैं, पत्रकारों को ठेकेदारी में हिस्सा जो मिलता।
मुजफ्फरपुर शहर में ऐसे भी संपादक हैं जो कुछेक छुटभैये नेताओं की गाड़ी पर घुमते हैं। बड़े होटल का बिल चुकाते हैं नेताजी। बदले में उनकी फोटो छपती रहती है। बस उनकी भी जय-जय और इनकी भी जय-जय। पहले संपादक का मतलब होता था गंभीर, विद्वान आदमी। आज होता है अच्छा सेटर, अच्छा मैनेजर। सच लिखना, जन सरोकार रखना, समझौता न करना उनका धर्म नहीं रहा। शहर से देहात तक अनगिनत ऐसे पत्रकार हैं जो रोज अपनी कलम को बेचते हैं। बेचारी कलम स्याही की आंसू रोती रहती है। कोई चाय पानी में बिकता है तो कोई मोटी रकम में बिकता है। अगर किसी की बेटी की दहेज़ के लिए हत्या हो जाय तो बेटी के बाप को भी पैसे देकर ख़बर छपवानी पड़ती है। जिन पत्रकारों को मोटी पगार नहीं मिलती है तो उनकी व्यथा समझी जा सकती है। क्योंकि बड़े घराने के अखबारों का प्रबंधन उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करता है। गाँव के पत्रकारों का तो अखबार प्रबंधन शोषण करता ही है। मगर उनकी क्या कहेंगे, जो मोटी पगार व अन्य सुविधाएँ पाने के बावजूद काली कमाई कराने में लगे रहते हैं। कुछेक दो-चार एनजीओ का निबंधन कराकर अपने प्रभाव से ग्रांट प्राप्त करते हैं। इस तरह उनकी दुकानदारी चलती रहती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के गिरते स्तर से समाज का कितना भला होगा ? ये यक्ष प्रश्न आमलोगों एवं इमानदार लोगों को बार-बार परेशां करता है। समाज उन चंद इमानदार लोगों एवं पत्रकारों के कारण जीवित है जो अकेले लड़ते रहते हैं खुद से और भ्रष्ट समाज से। ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सलाम!

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

पूर्वोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता

पूर्वोत्तर के सातों प्रान्त-असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। इन प्रान्तों के कार्यालयों में या तो अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता है। हिन्दी यहाँ सिर्फ़ संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में है। गुवाहाटी में पहली बार तक़रीबन बीस साल पूर्व हिन्दी पत्रकारिता की धमाकेदार शुरुआत हुई, जब दैनिक "पूर्वांचल प्रहरी" का प्रकाशन शुरू हुआ। इस अखबार के प्रकाशन के मात्र १४ दिनों बाद निकला "दैनिक सेंटिनल" । आज असम की राजधानी क्षेत्र गुवाहाटी से मुख्यतः चार हिन्दी दैनिक का प्रकाशन हो रहा है-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय और दैनिक प्रातः ख़बर। हालाँकि, सबसे पहले "उत्तर काल" नामक अखबार निकलना था, लेकिन बाजी मारी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी ने। "उत्तर काल" कईं वर्षों तक निकली, पर बाद में दम तोड़ दी। पूर्वोत्तर के शेष छह प्रान्तों में एक भी हिन्दी अखबारों का प्रकाशन नहीं होता है। राष्ट्रिय अखबारों से यहाँ के हिन्दी भाषी पाठक वंचित हैं।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

मेरा संपर्क नम्बर

मेरा मोबाइल नम्बर है- ०९४०१५३४२५७
०९४७१४७३१०९

सोमवार, 17 अगस्त 2009

कमाल के हैं पूर्वोत्तर के संगीतप्रेमी : भट्ट

मोहन वीणा के सृजक एवं ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित पंडित विश्वमोहन भट्ट आज की तारीख में संगीत के आकाश में देदीप्यमान तारे की तरह हैं। विश्वविख्यात भट्ट साहब ने शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ हॉलीवुड की मूवीज में भी अपना संगीत दिया है। नुसरत फतह अली खान के साथ हालीवुड की फ़िल्म 'डेडमैन वाकिंग' के अलावा ' टू डेज इन वैली' में भी संगीत दिया है। एक अमरीकन प्रोड्यूसर की अभी हाल में रिलीज मूवी 'इम्पटी स्ट्रीट' को भी भट्ट साहब ने अपनी मधुर संगीत से सजाया है। आजकल पंडित विश्व मोहन भट्ट अपनी पेशकश के सिलसिले में गुवाहाटी में हैं। यहाँ प्रस्तुत है श्री भट्ट की संतोष सारंग के साथ हुई विस्तृत बातचीत का मुख्य अंश :-
पंडित विश्व मोहन भट्ट और मोहन वीणा में मोहन शब्द कॉमन है। मोहन का क्या तात्पर्य है?
- मुझे लगा कि यदि मेरी कल्पना, मेरा इजाद मेरे नाम से जाना जाय तो अच्छा होगा। इसलिए जब मैंने बीस तार वाले इस साज की खोज की तो इसका नाम अपने नाम मोहन के साथ जोड़कर मोहन वीणा रखा। सन १९६७ में मैंने इस साज को शुरू किया। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मुझे एहसास हुआ कि कोई साज ऐसा हो जिसमें इमोशन, रोमांच, मधुरता, निरंतरता यानी सभी चीजों का समावेश हो। इस साज की विशेषता है कि इसकी ध्वनि की निरंतरता देर तक जारी रहती है। सितार, सरोद आदि वाद्य यंत्र एक स्ट्रोक के बाद बंद हो जाती है, जबकि मोहन वीणा से एक स्ट्रोक में ही गायकी निकलती है।
वीणा और मोहन वीणा में अन्तर क्या है?
- वीणा कई प्रकार की होती है। लेकिन आकार लगभग सबका समान होता है। मैंने मोहन वीणा के साथ वीणा इसलिए जोड़ा क्योंकि इसका आकार भी बहुत कुछ वीणा और विचित्र वीणा से मिलता है। दक्षिण के वाद्य यंत्र गो तू वाद्यम के आकार से भी यह साज मिलता-जुलता है।
'ऐ मीटिंग बाई दी रिवर' के लिए आपको ग्रैमी अवार्ड मिला। इस एलबम की क्या खासियत है?
- इसमें फ्यूजन म्यूजिक है, जो लाजबाव बना है।
सेल्युलाइड की दुनिया में, जहाँ पश्चिमी संगीत हावी होता जा रहा है। इस परिस्थिति में आप शास्त्रीय संगीत को कहाँ पाते हैं?
- मैं वेस्टर्न म्यूजिक को क्लासिकल म्यूजिक का प्रतिस्पर्धी नहीं मानता हूँ। वो अपनी जगह ठीक है और यह अपनी जगह ठीक है। हाँ, यह जरूर है की युवायों का झुकाव ही क्यों हम जैसे लोगों का भी रुझान उस तरफ़ बढ़ा है। लोगों को अच्छी चीजें अच्छी नहीं लगती है। बुरी चीजें अच्छी लगती है। वैसे, मैं नहीं मानता की पश्चिमी संगीत ख़राब है। उनका म्यूजिक भी अच्छा है। लेकिन यहाँ के लोग सीन को न्यूड बना कर पेश करते हैं, जिस वजह से लगता है की वेस्टर्न म्यूजिक ख़राब है। वहां के लोग ईमानदार हैं, सिस्टमेटिक हैं। हम वहां के म्यूजिक व मूवी को ग़लत तरीके से पेश करते हैं।
आप किस घराने से ताल्लुक रखते हैं?
- मैं मध्य प्रदेश के मैहर घराने से हूँ। विश्वविख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर का शागिर्द हूँ। मेरे बड़े भाई शशि मोहन भट्ट उनके पहले शागिर्द हैं। पंडित रविशंकर उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब के शागिर्द रहे हैं। वैसे, मैं अपने परिवार की सातवीं पीढी हूँ, जिसने संगीत कला की साधना में रत है। मेरा परिवार संयुक्त परिवार है। यह संगीत की ताकत से ही सम्भव हुआ है। मुझे गीत-संगीत विरासत में मिली है। तीन सौ साल की लम्बी संगीत परम्परा है, मेरे परिवार की। मैंने सितार से शुरू किया फिर अपनी कल्पना को मोहन वीणा के रूप में लाया। गुरु एक वृहत रूप होता है। गुरु बिना ज्ञान सम्भव नहीं है।
किसी राग का नाम बताएं, जिसे आपने कम्पोज किया है।
- हाँ, मैंने मधुवंती राग और शिवरंजनी राग को मिलाकर राग विश्वरंजनी बनाया है। देश की ५० वीं स्वतंत्रा दिवस पर मैंने राग गंगा का कम्पोजीशन किया। मैंने राग के क्रियेशन में विश्वास नहीं करता। जो कहता है की मैंने राग की खोज की है, वह खोज नहीं नक़ल है। जो नक़ल करने में विश्वास करते हैं, वे बहुत आगे तक नहीं जाते। मैं ख़ुद नहीं जानता की आज क्या पेश करना है। जिस क्षण मैं वाद्य यंत्र पकड़ता हूँ तो नई-नई चीजें स्वयं उँगलियों पर आ जाती हैं। कोई भी चीज पूर्व नियोजित नहीं होता, पहले से तैयारी नहीं रहती है। कई बड़े उस्तादों के शागिर्दों ने उन्हीं की नक़ल की और वे पीछे रह गये।
आप अपने देश और विदेश के संगीत प्रेमियों में क्या फर्क पाते हैं?
- मैंने अब तक ३५ देशों के लगभग सात सौ शहरों में कंसर्ट किए हैं। अरिम कलेपटन ने अभी अमरीका बुलाया था। कार्यक्रम में लगभग एक लाख संगीत श्रोतायों की भीड़ थी, जिसमें अधिकाँश अमेरिकी थे। इंडियन क्लासिकल सोसायटी के बैनर तले आयोजित कार्यक्रम में ६० प्रतिशत भारतीय और ४० प्रतिशत गोरे लोग सुनने आए थे। मैंने महसूस किया की विदेशों के श्रोतायों में क्लासिकल म्यूजिक के प्रति काफ़ी समझ है। अपने देश में पुणे के श्रोता काफ़ी समझ रखते हैं शास्त्रीय संगीत की।
पूर्वोत्तर के संगीतप्रेमियों के बारे में क्या राय है?
- भाई, यहाँ के श्रोता तो कमाल के हैं। यहाँ पहले भी कई कार्यक्रम पेश कर चुका हूँ। लोग काफ़ी संख्या में मुझे सुनने आते हैं।
युवा संगीत प्रेमियों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
- युवाओं को हम यही कहेंगे की वे अपनी संस्कृति, अपनी विरासत और अपने संगीत को बचाए रखें.

रविवार, 19 जुलाई 2009

यात्रा जारी रहेगी, चाहे मुसीबतें लाख आए

मुझे आध्यात्मिक साधना के साथ काम करने में असीम आनंद की अनुभूति होती है . मेरा मानना है कि आदमी एक माध्यम है ईश्वर के काम को पूरा करने का . मैं यही मानकर कोइ काम करता हूँ . अपने सारे काम इश्वर को समर्पित कर देता हूँ . एसा करके मैं पहले से और अधिक उर्जा और आत्मविश्वास से लबरेज हो जाता हूँ . "अप्पन समाचार" जैसा प्रयोग भी कुछ इसी तरह के चिंतन व ऊर्जा की ताकत से संभव हो पाया . यह प्रयोग भी ईश को समर्पित !

कुछ साल पहले तकरीबन साठ साल की बुधिया भूख व दवा के अभाव में मुजफ्फरपुर सदर अस्पताल के जीर्ण-शीर्ण बेड पर तड़पती हुई दम तोड़ दी . मल-मूत्र में सना उसके कंकाल शव को पता नहीं अस्पताल प्रशासन ने कहाँ ठिकाने लगाया होगा . पता चला उसका परिजन कई वर्षों से उस बूढी का सुधि लेना छोड़ दिया था . यह वाकया मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बनी . सरैया प्रखंड का डोमन मांझी भी भूख व कुपोषण से लड़ता हुआ दम तोड़ दिया . इस घटना से कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की पोल तो खुलती ही है, जनता के साथ होने का दंभ भरने वाली मीडिया की नियत भी साफ हो जाती है . हर रोज सैंकडों बुधिया व डोमन काल के गाल में समा जाते हैं, लेकिन अखबारों के लिए इनके जीवन का कोइ मोल नहीं . मीडिया ने यह साबित कर दिया है कि सनसनीखेज खबरें, सेक्स, हारर, अपराध, गन्दी राजनीति को तरजीह देते हुए हम बाज़ार की ही बाजीगरी करेंगे . हमें पत्रकारीय धर्म और मिशन से नाता नहीं है . हम तो विज्ञापनी बाज़ार की चकाचौंध में अपना व्यवसाय चला रहे हैं . और आप जानते हैं कि व्यवसाय का गणित सिर्फ लाभ-हानि पर चलता है, मिशन के मनोविज्ञान पर नहीं . कुछेक अखबार भले अपवाद हो सकते हैं.

निःसंदेह, एसे घटाटोप में ही किसी विकल्प की खोज होती है . "अप्पन" समाचार" की परिकल्पना भी इन्हीं विकल्पों की तलाश के क्रम में बिहार के मुजफ्फरपुर की माटी में साकार हुआ . पिछले पांच-सात सालों में जिन चीजों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वह है मीडिया में आई गिरावट . मैं परेशां होता रहा कि जब लोकतंत्र का प्रहरी ही पथभ्रष्ट व बिकाऊ हो जाय तो लोकतंत्र का क्या होगा ? मुझे लगने लगा कि अब वैकल्पिक मीडिया को बढावा देने का समय आ गया है . बस क्या था ? मैंने गाँव के मुद्दे, खेत-खलिहान से जुड़ा सवाल, सामाजिक कुरीतियाँ, कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीब-गुरबों का दर्द, गाँव की माटी में दफ़न होती लोकसंस्कृति, पर्यावरण, ग्रामीण प्रतिभाओं की सफल कहानियां, मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण, लोक-शिक्षण आदि मुद्दों पर प्रमुखता से अप्पन समाचार के जरिय फोकस करने का निर्णय लिया . और इस तरह शुरू हुआ एक छोटा परन्तु प्रभावकारी वैकल्पिक मीडिया आन्दोलन, जिसकी चर्चा बिहार के एक सुदूर गाँव चान्दकेवारी के खेत के मेड़ से होता हुआ सात समुन्दर पार पंहुच गया . सरैया की पूजा. जो इस ग्रामीण समाचार चैंनल के लिए रिपोर्टिंग का काम करती थी के मोबाइल पार एक दिन जर्मनी से "वायस ऑफ़ जर्मनी" का फोन आया तो वह रोमांचित होकर बातें की . उसका पूरा परिवार खुश था. अप्पन समाचार की खुशबू, अनीता, रूबी, रुमा के परिवारवाले भी बेहद खुश थे अपनी बेटियों व पतोहू की कहानियों को अखबारों के पन्नों व टीवी स्क्रीन पार देखकर . गाँव की लड़कियों ने जब पहली बार अपने अनगदे हाथों से जब कैमरे संभालना शुरू किया तो आस-पड़ोस के लोगों ने फब्तियां कसने लगे . कहने लगे-घर की इज्जत को चौखट से बाहर निकाला है, नाक कटेगी तो पता चलेगा . फिर भी इन चारों के परिजनों ने अनसुनी कर बेटियों को प्रोत्साहित किया . बिना विधिवत प्रशिक्षण के इन लड़कियों ने जिस आत्मविश्वास के साथ खबर जुटाना शुरू किया कि आप भी वाह कहे बिना नहीं रह सकते . कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ को कवर करने गयी रिंकू कुमारी, अनीता व खुशबू के जज्बे को देखकर एनडीटीवी के पत्रकार अजय कुमार ने भी सराहा . मेगाकैम्प में आये मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के कार्यक्रम को कवर करने के क्रम में रिंकू के पैर का नाखून उखड गया, खून निकलता रहा, लेकिन रिकॉर्डिंग रुकी नहीं . हाल में तुर्की में पधारे पूर्व राष्ट्रपति व मिसाईल मैन डॉ ए पी जे अबदुल कलाम के कार्यक्रम को भी अप्पन समाचार की फायरब्रांड गर्ल्स नीरू चौधरी, रिंकू, सुब्बी ने बड़ी बारीकी से कवर किया . लोकसभा चुनाव के दौरान इस ग्रामीण चैनल ने "वोट की चोट" कार्यक्रम के जरिय वोटर जागरूकता का भी कार्यक्रम चलाया . पूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह भी गाँव की इन महिला पत्रकारों से रूबरू होकर खुश थे . ज्ञात हो कि अप्पन समाचार का प्रसारण डॉ. सिंह के लोकसभा क्षेत्र के चार प्रखंडों में ही होता है . चुनाव के दौरान कुछ राजनीतिबाजों ने अप्पन समाचार को खरीदने की भी कोशिश किया . सात-आठ लाख तक के आफर मिले, लेकिन मैंने साफ ठुकराते हुए कहा कि यह चैनल वैकल्पिक मीडिया है, बिकाऊ मीडिया का विकल्प .

सोलह अक्टूबर २००८ की सुहानी शाम मेरे जीवन की सबसे सुखद शाम थी . सीएनएन-आईबीएन की ओर से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उस शाम एक भव्य समारोह में अप्पन समाचार के जैसे अनोखे प्रयोग के लिए मुझे "सिटिज़न जर्नलिस्ट अवार्ड" से सम्मानित किया . प्रख्यात टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई, आशुतोष, आजतक की नलिनी सिंह, कुलदीप नैयर, गायक हरिहरन, फिल्म अभिनेता राहुल बोस, पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी के बीच खुद को पाकर गौरवान्वित था . हवाई यात्रा की मुरादें पूरी हुईं.

मुंबई से आकर स्वतंत्र डॉक्युमेंट्री फिल्म मेकर अब्राहम शिरले और अमित मधेशिया अप्पन समाचार पर शोध किया . अचानक राष्ट्रिय-अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया "अप्पन समाचार" सिविल सर्विसेस क्रानिकल जैसी पत्रिका ने अप्पन समाचार को जी के के सवाल के रूप में शामिल किया . यह सब पूरी टीम को उर्जा देता रहा, लेकिन यह लड़ख्राती शुरुआत आज भी संसाधनों के अभाव में लड़खराते हुए ही आगे बढ़ रही है . प्रशंसा तो मिली पर आर्थिक सहयोग कहीं से नहीं मिली . बिहार सरकार ने भी इस प्रयोग की सुधि नहीं ली . सहयोग के नाम पर एकमात्र पत्रकार मित्र भारतीय बसंत कुमार ने एक साल के लिए प्रोजेक्टर देकर मदद की . मुजफ्फरपुर स्थित सूर्या फिल्मस के राजेश कुमार का सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है . इन्होने तकनीकी सहयोग निरंतर दिया है . कोसी चुनौती के संयोजक लोकेन्द्र भारतीय का योगदान भी ताकत देता रहा है . अमृतांज इन्दीवर, फूलदेव पटेल, पंकज सिंह, पत्रकार विवेकचंद्र, प्रोफेसर निराला वीरेंदर, अनिल रत्ना. डॉ हेम्नारायण विश्वकर्मा, नसीमा का भी सहयोग समय-समय पर मिलाता रहा है . संसाधन के नाम पर आज भी हमारे पास दो माईक. एक त्रिपोद और एक-दो फर्नीचर ही अपने पास है. कैमरे व प्रोजेक्टर या तो भाड़े पर लेते हैं या मित्रो का सहयोग .

संघर्ष तो हैं ही, खतरें भी कम नहीं हैं इस काम में . लेकिन लड़कियां कमर कसी हैं . सरैया के प्रखंड विकास पदाधिकारी और चान्दकेवारी के मुखिया के गुर्गे से धमकियाँ मिल चुकी हैं टीम को . इस चैनल के खबर का असर ही हैं कि ग्रामीण बैंक, धरफरी ने किसानों को बिना घूस लिए केसीसी ऋण का लाभ देना शुरू किया . नीम के पेड़ को लेकर गाँव में व्याप्त भ्रांतियां दूर होने लगी है .

जानकारी हो कि अप्पन समाचार ६ दिसम्बर २००७ को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्दकेवारी) में शुरू हुआ था . यह आल वूमेन चैनल के रूप में चर्चित हुआ . एक गाँव से शुरू हुआ यह "आल वूमेन न्यूज़ नेटवर्क" आज जिले के पांच प्रखंडों के तक़रीबन दो दर्जन से अधिक गाँव को कवर करता है . अप्पन समाचार बुलेटिन ४५ मिनट का होता है और प्रोजेक्टर या डीवीडी दे जरिये गाँव के हाट-बाजारों में दिखाया जाता है . रामलीला गाछी, धरफरी, देवरिया, सरैया, पकडी पकोही, मिठनपुरा, भगवानपुर सहित दर्जनों जगहों के लोग अपनी समस्यायों को टीवी स्क्रीन पर देखते हैं. अप्पन समाचार के लिए लगभग पंद्रह लड़कियां एंकरिंग, रिपोर्टिंग, कैमरा चलाने का काम, एडिटिंग आदि का काम देखती हैं. चैनल की दो लड़कियां रांची जाकर डाक्युमेंटरी फिल्म मेकिंग का छः दिन का ट्रेनिंग ले चुकी हैं. मीडिया वर्कशॉप दे द्वारा भी इन महिला पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है .

यह लड़खारती शुरुआत एक दिन सफल यात्रा होगी और ग्रामीण मीडिया का एक माडल भी, इसी उम्मीद दे साठ यह संघर्ष जारी रहेगा . चाहे मुश्किलें लाख आये .

संतोष सारंग