सुनामी की लहरें लाखों परिवारों को निगल जाती हैं। बुंदेलखंड में हजारों परिवार सिर्फ़ इसलिए पलायन कर गए/रहे हैं, क्योंकि वहां के कुएं सुख गए हैं, हैण्ड पम्प में पानी नहीं आ रहा है। बेतहाशा गर्मी बढ़ रही है। कुछ इन्हीं सवालों पर एक गहरी नज़र :-
आज पूरी दुनिया में करीब एक अरब लोगों को पानी नहीं मिलता है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, ब्राजील जैसे लगभग तमाम विकासशील देशों में तक़रीबन २२ लाख लोग गंदे पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण मौत की शरण में चले जाते हैं। धरती के सम्पूर्ण जल में साफ पानी का प्रतिशत ०.३ से भी कम है। आने वाले अगले २० वर्षों में खेती, उद्योग सहित अन्य क्रियाकलापों के लिए ५७ फीसदी अतिरिक्त जल की आवश्यकता होगी। पर्यावरणविदों की भविष्यवाणी है कि २०२५ तक एक-तिहाई देशों में रहने वाली विश्व की दो-तिहाई आबादी पानी के गंभीर संकट से जूझती नजर आएँगी। कोई दो राय नहीं कि तब दुनिया पानी के लिए युद्ध रत होंगे।
भारत के अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरों ने भी जल संकट को लेकर भारतीयों को आगाह करना शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ के बुंदेलखंड जल संकट के गंभीर दौर से गुजर रहा है। जल के लिए लोग पलायन करने पर मजबूर हुए। पूर्वोत्तर का द्वार कहलाने वाले आसाम के गुवाहाटी में भी जल की समस्याएं घेर रही हैं। इस साल मेघों के प्रदेश मेघालय में भी औसत से कम बारिश हुई। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही असर है। बिहार में भी जल संकट बढ़ रहा है। पिछले दिनों मुजफ्फरपुर प्रमंडल के भूगर्भ जल सर्वेक्षण विभाग ने मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण के कुछेक प्रखंडों में भूगर्भ जल की उपलब्धता पर सर्वे कराया। सर्वे से जो तथ्य सामने आए वह राज्य में बढ़ते जल संकट की ओर इशारा करता है। इन प्रखंडों में जितना पानी जमा होता है उससे ७० % अधिक पानी निकल रहा है। यानि पानी के रिचार्ज और ड्राफ्ट का अन्तर ७० % का है। समय से पूर्व नहीं चेता गया तो आने वाले दिनों में उत्तर बिहार के लोग भी पानी के लिए तरसेंगे । खेत, चापाकल, कुएं सूख जायेंगे।
डोली-कहार की परम्परा ख़त्म हो गयी। बैलों के समूह से गेंहू दौनी का चलन बंद हो गया। धेकुल से खेतों में पानी पटाना छोड़ दिया किसानों ने। जानवरों के मरने पर गिद्धों का मंडराना दिखाई नहीं देता। शीशम के पेड़ लुप्त हो रहे हैं। मिटटी के बर्तन का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया, जो प्रकृति के लिए नुकसानदेह हो रहा है। यूँ कहे की आदमी अपनी पुरानी चीजों को छोड़कर तथाकथित विकास की रफ्तार के साथ अंधी दौड़ लगा रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रकृति और जीवन ही नहीं रहेगा तो विकास का क्या मतलब ? जिस प्रकृति ने हमें शुद्ध पेयजल, हवा और हरियालियुक्त धरती दी है, उसे आदमी ने भौतिक सुख-सुविधायों की प्राप्ति के लिए अनेक कल-कारखाने लगाकर उसे प्रदूषित कर किया है। वनों को काटकर सुंदर शहर बसाया जा रहा है, मॉल स्थापित की जा रही है। मुंबई को पेरिस बनाने वाले भारत के नीति-निर्धारकों को पता होना चाहिय की आने वाले समय में मुंबई पानी में डूबने जा रहा है। इसका संकेत भी मिलना शुरू हो गया है।
कृषि और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक है। हरित क्रांति लाने के चक्कर में किसानों ने अन्धाधुन्ध तरीके से रासायनिक खादों, कीटनाशकों का प्रयोग करना शुरू किया। इसका कुपरिणाम पर्यावरण को झेलना पड़ रहा है। इसके प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हुई, जीव-जन्तुयें मरने लगे, लोगों और जानवरों के सेहत पर असर पड़ रहा है। पंजाब के कई गाँव में रासायनिक खाद आदि के प्रयोग से वहां का पानी जहरीला हो गया है। कृषि उत्पादन घटा है। अतः एकबार फिर हमें जैविक खेती की ओर मुड़ना होगा। जरूरत है हम सबकों एकजूट होकर पर्यावरण को बचाने के मुहीम में जुटाने की। हरेक आदमी पेड़ रोपना एवं जल का संरक्षण करना अपना धर्म समझे।
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