शनिवार, 12 जून 2010

संतोष सारंग ने दिलाई अप्पन समाचार को अंतर्रराष्ट्रीय पहचान

मुजफ्फरपुर मुख्यालय से लगभग ५५ किलोमीटर दूर सुदूर दियारा क्षेत्र मैं एक गाँव है चान्द्केवारी. सुविधाओं से वंचित इस अति पिछड़ा गाँव में अशिक्षा और गरीबी तो हैं ही, नक्सल प्रभावित भी है. इस क्षेत्र से ग्रामीण लड़कियों को घर की देहरी से निकाल कर सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ना आसान नहीं था. पर  इलाके में कई साल से सामाजिक गतिविधिओं में संलग्न रहे सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार संतोष सारंग ने स्थानीय कुछ साथिओं की मदद से लड़किओं को सिर्फ घर से निकाला ही नहीं, बल्कि उनके नाजुक हाथों में कैमरे भी थमाया. जब ये लड़कियां कैमरे और ट्राईपोड के साथ घर से निकल कर साईकिल पर सवार होकर समाचार इकठ्ठा करने निकलीं तो उन्हें ग्रामीणों की फब्तियो का सामना भी करना पड़ा. गाँव के लोग उनके परिजनों को बेटिओं को घर से बाहर नहीं जाने की सलाह तक दे डाले. तमाम विपरीत परिस्थितियो का सामना करते हुए जब पहला अंक लगभग ५० मिनट का बनकर तैयार हुआ  तो उनका उत्साह देखने लायक था. जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्द्केवारी पंचायत) के हात में जब पहली बार अप्पन समाचार का पहला अंक दिखाया गया तो ग्रामीणों के लिए यह एक नई चीजें थीं. फिर तो लोगों का सपोर्ट भी मिला और विरोध का सामना भी करना पड़ा.देखते-ही-देखते चान्द्केवारी देश-दुनिया की मीडिया के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया.  गाँव की लड़कियों की कहानी विदेशों तक पंहुची. अप्पन समाचार 'ऑल-वूमेन चैनल' के रूप में चर्चित हुआ. वैकल्पिक मीडिया के इस माध्यम को सामुदायिक चैनल बनाकर गाँव-गाँव में धूम मचाते हुए आज छः प्रखंडों के दर्जनों गाँव की समस्याओं को लड़कियाँ कवर करतीं हैं.
अप्पन समाचार के प्रणेता संतोष सारंग, जो खुद संघर्षमय जीवन के कठिन दौर को जीते हुए आज यहाँ तक पंहुचे है, इस अनोखे काम के लिए उन्हें १६ अक्टूबर २००८ को दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित के हाथों "सिटीजन जर्नलिस्ट अवार्ड" प्राप्त हो चूका है. यह सम्मान सीएनएन-आईबीएन चैनल की ओर से दिया गया था. वैशाली जिले के जन्दाहा प्रखंड में जन्मे संतोष सारंग चार वर्ष की अवस्था में ही अनाथ हो गए. सैनिक पिता के निधन के बाद खेती-बाड़ी करके एवं मां को मिले मामूली पेंशन से तीन भाई-बहनों के साथ अपनी पढ़ाई पूरी की. आरएन कॉलेज, हाजीपुर से स्नातक भौतिकी में प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद वे स्वतंत्र लेखन के सिलसिले में दिल्ली, मुम्बई से लिकर पटना तक ख़ाक छानते रहे. फिर २००० में समाजसेवा के क्षेत्र में आकर भी स्वतंत्र पत्रकारिता का सफ़र जारी रखा. वे मिशन आई इंटरनॅशनल सर्विस नामक संगठन बनाकर मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने लगे. संतोष पहली बार सुर्खिओं में आये, जब चान्द्केवारी की बलात्कार की शिकार एक गूंगी लड़की को न्याय दिलाने के लिए तत्कालीन एसपी अजिताभ कुमार का घेराव कर ऍफ़आईआर  दर्ज करने को मजबूर कर दिये. समाज ने उस बेबस लड़की को फतवा जारी कर हुक्का-पानी तक बंद कर दिया गया था. वह पीडिता बलात्कारी के बच्चे की मां बनी. पुलिस से लेकर समाज के ठेकेदारों से संतोष की टीम को इस बेबस लड़की को न्याय दिलाने लिए लड़ना पड़ा.  उसके बाद उस बच्चे को गोद लेकर उसका नाम रखा "आजाद".  इस बच्चे के नाम पर मरवन में सवा ग्यारह कट्ठा जमीन जनसहयोग से खरीदकर एक अनाथालय की नींव रखी. प्रख्यात गांधीवादी डॉ एस एन सुब्बाराव के हाथों "आजाद निर्मल आश्रम" की नींव डाली गई. संतोष को समाजसेवा की कीमत भी चुकानी पड़ी. घर में लोगों के तानें सुनें तो समाज और संगठन के कुछ स्वार्थी साथिओं ने इनपर तरह-तरह के बेबुनियाद आरोप लगाकर तोड़ने की कोशिश भी किया.  इन्हें धमकियाँ मिली.  यूनिसेफ के एक प्रोजेक्ट "पोषण पुनर्वास  केंद्र" के साथ काम क्या किया कि लोगों ने इनपर पैसे गबन का आरोप गढ़ दिया. एक बार इनपर बदमाशों ने हमला भी किया. गाँव में एक जमीन का विवाद सुलझाने गए तो इनपर तेजाब फेंका गया, लेकिन संतोष अपने मिशन से भटके नहीं. निजी जिंदगी में संघर्ष करते हुए समाजसेवा में जुटे रहे. संतोष कई लावारिश और सड़क पर पड़े असहाय लोगों को उठाकर अस्पताल पंहुचाकर उसकी जान बचाई. पूसा स्थित हरपुर गाँव के एक बिछड़े बेटे को उसके परिजनों से मिलवाया.यह युवक मुज़फ्फापुर की सड़क पर भूखा-प्यासा  लावारिश हालत में पड़ा हुआ था. संतोष ने २००४ में एक त्रैमासिक पत्रिका "मानवाधिकार हम सबका" निकाला. समाजसेवा में उत्कृष्ट काम के लिए "अनुव्रत सम्मान" व् जिला आपदा प्रबंधन विभाग की ओर से "प्रशस्ति पत्र" भी मिल चूका है. २००४ में मुजफ्फरपुर और २००८ में कोसी के बाढ़ में संतोष अपनी टीम के साथ अनुकरणीय काम किये. इसी दौर में उन्होंने एक अनोखी परिकल्पना "अप्पन समाचार" को जमीन पर उतारा. अप्पन समाचार के अलावे संतोष आजकल किसानों के बीच काम कर रहे है. अपने साथिओं अमृतांज इन्दीवर, पंकज सिंह और फूलदेव पटेल के साथ मिलकर जैविक खेती को बढ़ावा देने में लगे है ये.

अभी हाल ही में ब्रिटेन की संस्था "वन वर्ल्ड मीडिया" ने स्पेशल अवार्ड कैटेगरी में दुनियाभर से जिन चार कामों को शॉर्टलिस्ट विनर घोषित किया है, उनमें भारत से २००३ के बाद "अप्पन समाचार" ही है. नेपाल, कांगो, केन्या इस सूची में शामिल हैं. नेक्सट स्टोरी 'अप्पन समाचार' पर ५२ मिनट की वृतचित्र बना रही है. सिविल सर्विसेज क्रोनिकल ने अप्पन समाचार को जीके  के रूप में शामिल किया है.

अप्पन समाचार आज जिले के छः प्रखंडों-साहेबगंज, पारू, सरैया, मरवन, मुशहरी, काँटी के दर्जनों गाँव को कवर करता है. लगभग २५ लड़कियाँ अप्पन समाचार के लिए बतौर रिपोर्टर, कैमरापर्सन, एंकर, एडिटर काम करती हैं. १४ साल से लेकर ३५ साल तक की ग्रामीण महिलायें जुडी हैं. सम्पादक रिंकू कुमारी के अलावे खुशबू कुमारी, अनिता कुमारी, प्रिया, नीरज, मुन्नी, विजय लक्ष्मी, प्रियं कुमारी, पिंकी आदि लड़कियाँ जब हाथ में कैमरा लेकर समाचार शूट करती हैं तो नहीं लगता है कि वे सभी नौसिखुआ हैं.

अप्पन समाचार का अंक लगभग ४५ मिनट का होता है. यह प्रोजेक्टर या डीवीडी के जरिये गाँव के हाट-बाजारों में शाम के समय दिखाया जाता है. समाचार बुलेटिन में किसानों के मुद्दे, गरीबी, सामाजिक कुरीतियाँ, कल्याणकारी योजनायों में भ्रष्टाचार, सरकारी योजनायों की जानकारी देनेवाली खबरें, पर्यावरण, कानूनी व् मानवाधिकार की जानकारी, महिला मुद्दे होते हैं.

गत लोकसभा चुनाव में अप्पन समाचार की टीम ने "वोट की चोट"  कार्यक्रम प्रसारित कर मतदाताओं को जागरूक करने का काम किया था. टीम की लड़कियाँ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एवं पूर्व राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम साहब के कार्यक्रम को भी कवर कर चुकी हैं. यह अवसर गाँव की लड़कियों के लिए रोमांचित करने वाला रहा. यह अप्पन समाचार का प्रभाव ही था कि सालों से केसीसी  ऋण के लिए भटकने वाले आसपास के किसानों को आसानी से बिना रिश्वत लिए बैंकों ने ऋण उपलब्ध करा दिया. नीम के पेड़ को लेकर गाँव में व्याप्त भ्रांतियां दूर होने लगी हैं.

मिशन आई समय-समय पर "ग्रामीण मीडिया वर्कशॉप" का आयोजन कर ग्रामीण लड़कियों को प्रशिक्षित करने का काम कर रहा है. अबतक लगभग ५० लड़कियों को प्रशिक्षण दिया जा चूका है. अप्पन समाचार ने टीम की तीन लड़कियों को रांची भेजकर वृतचित्र बनाने का प्रशिक्षण दिलवाया है. अभी एक गरीब व् दलित लड़की को अप्पन समाचार में बतौर कैमरापर्सन जोड़ा गया है. अप्पन समाचार ने पढाई छोड़ चुकी इस गरीब लड़की को पास के एक स्कूल में आठवीं में नामांकन कराया है.

बहरहाल, अफ़सोस इस बात का है कि बिहार के जिस प्रयोग को देश-दुनिया हाथों-हाथ लिया उसकी सुधि बिहार की सरकार ने नहीं ली, महिला सशक्तिकरण का अगुआ नीतीश कुमार बने बैठे हैं. संसाधनों का अभाव झेलते हुए अबतक यह चैनल अपना सफ़र जारी रखे हुए है, तो यह टीम का जज्बा और लड़कियों का समर्पण ही है. बिना पारिश्रमिक लिए समाज को बदलने का सपना पाले इन लड़कियों की यात्रा कंहाँ तक जारी रहती है, यह भविष्य के गर्भ में है.

संतोष सारंग कहते हैं कि मित्रों, शुभचिंतकों, साथिओं की मदद से अप्पन समाचार जिन्दा है. अब तक कंही से कोई आर्थिक मदद नहीं मिली. छोटे-छोटे विज्ञापन इक्कठा करने का प्रयास चल रहा है. अब लड़कियाँ चैनल को चलने के लिए चंदा जुटाने को सोच रहीं हैं.



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