शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

श्रमजीवियों का अपना साथी राहुल सांकृत्यायन

                                                                                                                                           – संतोष सारंग

भारतीय समाज व्यवस्था में गरीबों, किसान–मजदूरों, मजलूमों का जीवन संघर्ष उसकी नियति रही है। इनकी मुफलिसी राजनीतिक व्यवस्था व सामंती समाज के समक्ष उपहास बनती रही है। अफसोस कि आजाद भारत में भी बुर्जुआ वर्ग त्रासद–भरी जिंदगी से खुद को बाहर निकालने के लिए आंदोलनरत है। अपने पारिवारिक सुख को त्याग कर जिस राष्ट्र के नवनिर्माण में मेहनतकश मजदूरों ने अपने रक्त व पसीने बहाए हैं, उन्हें सत्ताधीशों ने सिर्फ सपने ही तो दिखाएं हैं। संभ्रांत वर्ग का पेट भरनेवाले निर्धन किसान आज भी अधनंगे व भूखे रहने को विवश हैं। झूठी दिलासा देकर व वायदों का पिटारा दिखाकर लोकतांत्रिक राज व्यवस्था ने इन्हें खूब ठगा। पूंजीवाद के राक्षसों ने तो इनकी मुक्ति के द्वार को और ही संकीर्ण कर दिया है। यह तो साहित्य ही है, जो निर्धन वर्ग की दबी आवाज को मुखर बनाने की महती भूमिका निभाता रहा है। सत्ता–प्रतिष्ठानों पर चोट करता रहा है।     

हिंदी साहित्य जगत के जिन मनीषियों ने किसान–मजदूरों की पीड़ा को अपनी रचना का विषय बनाया है, उनमें राहुल सांकृत्यायन का नाम अग्रगण्य है। गरीब किसान–मजूदर यों ही नहीं साहित्य के इस कर्मयोद्धा को राहुल बाबा के नाम से पुकारते थे। उनकी सहानुभूति व स्नेह पाकर हाशिये पर खड़े इस समाज को सबलता का एहसास होता था कि कोई तो है जो हमारी दुर्गति व दर्द को अपना समझता है। सच्चे अर्थों में वे जनता के हितैषी थे, उनके अपने आदमी थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक पिछड़े गांव में जन्मे राहुल के मन में बचपन से ही रुढि़यों–आडंबरों में जकड़े समाज के प्रति बगावत की आग दहक रही थी। यही कारण था कि दबे–कुचले लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए वे घर–बार छोड़कर भाग गये। किशोरवय में ही वे एक मंदिर के महंत बने। कुछ दिनों बाद वे आर्यसमाजी बनकर समाज में व्याप्त पाखंडों, रूढि़यों एवं सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अलख जगाने में लग गये। इस दौरान राहुल को मानसिक गुलामी में छटपटा रहे समाज को करीब से देखने–समझने का मौका मिला। यह सब देखकर उनका विद्रोही व लेखक मन बार–बार बेचैन हो उठता। वे विचलित होते और दिन–रात इन गंभीर सवालों से टकराते रहते। उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज में इन सवालों का हल संभव नहीं है। अंतत: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। राहुल सवालों के बियावान में भटकते हुए जवाब खोजते रहे, लेकिन उनको बौद्ध धर्म में भी इसका समाधान नहीं मिल सका। शोषण व भेदभाव मुक्त समाज बनाने की राह पर चलते हुए वे मार्क्सवादी विचारधारा के करीब पहुंच गये। उन्होंने गेरुआ चोला उतार फेंका और चल पड़े मजदूरों–किसानों के जीवन–संघर्ष का खेवइया बनने। 

राहुलजी जानते थे कि गरीब किसानों, मजदूरों को जगाना है, तो उनकी ही भाषा–बोली में बात करनी होगी।  इसलिए राहुलजी ने आम बोलचाल की भाषा में ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’, ‘तुम्हारी क्षय’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘मेहरारुन के दुरदसा’, ‘नइकी दुनिया’, ‘साम्यवाद ही क्यों’ जैसी पुस्तकें लिख कर लोगों को जागृत करने का काम शुरू किया। सोये हुए समाज को जगाना और कंपनी सरकार व जमींदारों–सामंतों के खिलाफ आमलोगों को एकजुट करना शुरू कर दिया। जनता के हक–हुकूक के लिए संघर्ष करते हुए वे कई बार जेल गये। कारागार में भी वे चुप कहां रहनेवाले थे। उनकी कलम बोलती रही। विद्रोह करती रही और वे जेल में भी निरंतर लिखते रहे। राहुलजी ने साहित्य संसार का विस्तार करते हुए, किसान आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए यह साबित कर दिया कि राजनीति साहित्य के लिए बाधक नहीं होती, बल्कि लेखक की कलम को और धार देती है।   

उनका मानना था कि साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी है, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी। इसी सोच ने उन्हें किसान–मजदूरों का हितैषी बना दिया और वे पददलित–उत्पीडि़त जनता के पक्ष में हमेशा खड़े रहे। 1936 में किसान संघर्ष में भाग लेकर भूख हड़ताल पर बैठे। 1938 में किसान आंदोलन के दौरान फिर जेल जाना पड़ा। वहां मिले समय का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ‘जीने के लिए’ नामक अपना पहला उपन्यास लिखा, जिसमें वर्तमान सदी की राजनीतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि को आधार बनाते हुए एक संघर्षमय जीवन को अपनी रचना का वर्ण्य विषय बनाया। ‘‘किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेजों से आजादी और जमीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अंत नहीं होनेवाला है। उन्होंने साफ कहा कि मेहनतकशों की असली आजादी साम्यवाद में ही आयेगी। उन्होंने लिखा कि खेतिहर मजदूरों को ख्याल रखना चाहिए कि उनकी आर्थिक मुक्ति साम्यवाद से ही हो सकती है और जो क्रान्ति आज शुरू हुई है, वह साम्यवाद पर ही जाकर रहेगी।’’1

‘विश्राम’ क्या होता है, इसे राहुल सांकृत्यायन नहीं जानते थे। चलते जाना, चलते जाना एक पथिक की तरह। मेहनत करते रहना, करते रहना, एक श्रमिक की तरह। यही मंत्र थे, उनके जीवन के। ‘‘उनके सहकर्मी जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के एक–एक क्षण का अधिक–से–अधिक उपयोग किया। ‘राम काज कीन्हें बिना मोहिं कहां विश्राम’– उनके मुख से अनेकों लोगों ने सुना होगा और अनेक बार। जाने वह कौन–सा ‘राजकाज’ है जिसने उन्हें कभी विश्राम लेने नहीं दिया। क्या श्रम के इस मूल्यबोध ने ही उन्हें अंत में करोड़ों श्रमजीवियों के साथ ला खड़ा किया या इस श्रम की प्रेरणा उन्हें अपने साथी श्रमजीवियों से ही मिली थी। एक किसान की तरह उन्होंने कभी वर्षा–घाम की परवाह नहीं की, एक मजदूर की तरह उन्होंने कभी हाथ ढीला नहीं किया। एक प्रहरी की तरह उन्होंने कभी पलक न झपने दी। अकेले ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे अनेक जीवन जी गये। उन्हें पुनर्जन्म में विश्वास करने की क्या जरूरत थी?’’2 राहुल सांकृत्यायन अपने-आप में एक चलता-फिरता इन इन्साइक्लोपीडिया थे. उन्हें यात्रा साहित्य के जनक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. 26 भाषाओं के जानकार और प्रकांड विद्वान राहुल सांकृत्यायन को ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के अलावा, धर्म, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान समेत कई विधाओं में महारत हासिल था. एक तरफ अध्ययन-लेखन के सागर से मोती चुनने में लगे थे, तो दूसरी ओर यायावरी जीवन जीते हुए आम जन के दुख-दर्द का साक्षात्कार कर उसके समाधान में लगे रहते. दोनों काम के बीच इतना बेहतरीन समन्वय का उनका गुण पाठकों को बेहद प्रभावित करता है.   

राहुल सांकृत्यायन के मन में जो विद्रोह का भाव था, वह उन पाखंडी व स्वार्थी समाज एवं शासन से था, जो जनता का दुख–दर्द दूर करने के बजाय, उसका इस्तेमाल करने में लगा रहता था। हालांकि, वे मानते थे कि मनुष्य में जो स्वार्थान्धता आती है, उसे भी मैं उसकी स्वाभाविक प्रकृति नहीं मानता हूं। राहुलजी समाज के जलते प्रश्नों से जूझते हुए खुद को समाज के अंतिम आदमी के प्रति समर्पित कर देते हैं। और आमजन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं तो जब अपनी जीवन–यात्र को याद करता हूं, तो हजारों स्नेहपूर्ण चेहरे आंखों के आमने–सामने लगते हैं। मैं मन ही मन उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं। उनके उपकार से उऋण होना असंभव है।’’3

संदर्भ सूची :
1.http://www.mazdoorbigul.net/archives/4953
2. नया ज्ञानोदय, विशेषांक अगस्त 2015, पृ.–120
3. नया ज्ञानोदय, सितंबर 2017, पृ.–99