बुधवार, 24 मई 2017

हिंदी उपन्यासों में ग्रामीण जनजीवन का चित्रण


- संतोष सारंग

उत्तर आधुनिकता का लबादा ओढ़े आज का आम आदमी नगरीय तौर-तरीके अपनाने को आकुल है। ग्राम्य जीवन में भी शहरीपन समा चुका है। ठेठ देहाती जीवन मूल्यों पर चोट करती अपसंस्कृति का दर्शन खेत-खलिहानों व पगडंडियों तक में हो जाता है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण के कारण ग्रामीण जनजीवन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। टूटते-बिगड़ते रिश्तों की डोर, सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर स्व तक सीमित हो जाना, सहजीवन की वृत्तियों को भुला देना, यह क्या है? प्रगतिशील समाज का द्योतक या समाज का विघटन। समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन प्रगतिवादियों के लिए शुभ हो सकता है, लेकिन एक मजबूत सामाजिक परंपरा के लिए कमजोर करनेवाली प्रक्रिया है। आज का गांव नये रूप में आकार ले रहा है। आधुनिकता की खुली हवा में जवान होती आज की पीढ़ी के खुले विचारों के कारण गांव की आबो-हवा भी बदल रही है। नये विचारों के कारण नयी जीवन पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। इसे आप विघटन कह लें अथवा सहज सामाजिक बदलाव। कथा साहित्य इस परिवर्तन को महसूस कर रहा है और इसे अपनी तरह से व्याख्यायित भी करने में पीछे नहीं है। ग्रामीण यथार्थ को साहित्य की अन्य विधाओं ने भी वर्ण्य विषय बनाया है, लेकिन उपन्यास ने ग्रामीण संवेदनाओं को, गांव की माटी में रहकर दुख-दर्द व संत्रास भोगनेवाले दलितों की दयनीय स्थिति को, किसानों की त्रासदी को पूरी ईमानदारी से हूबहू परोसकर महाकाव्यात्मक रूप धारण कर लिया है। प्रेमचन्दोत्तर युगीन कथा साहित्य ने खुद को ऐयारी-तिलिस्म, जासूसी व मनोरंजक छवि से खुद को बाहर निकालकर बदलते गांव की छटपटाहट को महसूस कर उसकी कथा-व्यथा को जीवंत तरीके से चित्रित किया है।     
हिन्दी उपन्यासों में ग्राम्य जीवन का वृहत् चित्रण सर्वप्रथम प्रेमचंद के उपन्यासों में दिखाई देता है। प्रेमचंद ने उपन्यासों में वैसे तो समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण किया है, लेकिन सबसे अधिक श्रमशील रहनेवाले किसानों पर लिखा है; जिसकी आबादी करीब 85 फीसदी है। प्रेमचंद के साहित्य संसार में प्रविष्ट करने का मतलब है भारतवर्ष के गांवों को सच्चे रूप में देखना। उपन्यास सम्राट का साहित्य ग्राम्य चेतना से ओतप्रोत है। प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ महाकाव्य का स्वर गूंजित करते हुए इसलिए कालजयी कृति बन सका, क्योंकि उन्होंने भारत की आत्मा में प्रेवश कर अपनी कलम चलायी।

गोदान (1936) के प्रकाशन से दस साल पहले शिवपूजन सहाय ‘देहाती दुनिया’ लिख चुके थे। यह उपन्यास भोजपुर अंचल के ग्राम्य जनजीवन के अनेक प्रसंगों का संकलन है, जो तत्कालीन गांव को यथार्थ रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। गांव की बोली-बानी, भोजपुरी संस्कृति, आंचलिक मुहावरों-कहावतों व लोकगीतों के कारण इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी गयी। 1934 में जयशंकर प्रसाद ने ‘तितली‘ में ग्राम्य जीवन के चित्र व जटिल समस्याओं का अंकन किया। इस उपन्यास के केंद्र में धामपुर गांव है, जिसकी कथा को आगे बढ़ाता है मुख्य पात्र तितली (बंजो), मधुबन (मधुआ), बाबा रामनाथ, राजकुमारी, इंद्रदेव, शैला आदि। ‘‘किसानों-मजदूरों पर होनेवाले अत्याचारों, तहसीलदारों-महंतों के हथकंडों, कलकत्ता महानगरी के जुआडी-जेबकतरों के कारनामों तथा निम्न वर्ग की दयनीय स्थिति, वेश्याओं की धनलोलुपता, विधवा राजो की अतृप्त कामभावना आदि का तितली में यथार्थ अंकन किया गया है।’’1   
         
प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु दूसरे बड़े उपन्यासकार हैं, जिन्होंने गांव को केंद्र में रखकर साहित्य साधना की। ग्राम्य चेतना से पूरित आंचलिक उपन्यास का उद्भव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास जगत की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। आजादी के सात साल बाद 1954 में ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के साथ ही ‘आंचलिकता’ ने अपना स्वतंत्र अर्थ ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पैठ बना ली। ग्रामीण जीवन पर स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भी बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन ग्राम्य चेतना को आंचलिक शब्द में पिरोने का काम रेणु ही कर सके। ‘‘इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अंचल को और उसकी कथा-व्यथा को संपूर्णता में उकेरने वाला यह हिन्दी का पहला उपन्यास है और ‘गोदान’ की परंपरा में हिन्दी का अगला। रेणु के उपन्यासों की शुरुआत वहां से होती है, जहां से प्रेमचंद के उपन्यासों का अंत होता है अर्थात् जब टूटती सामंती व्यवस्था का स्थान नया पूंजीवाद लेने लगता है। गोदान का मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन और वह उसी प्रकार समष्टिमूलक उपन्यास है जिस प्रकार टॉल्सटाय का ‘वार एंड पीस’, शोलोकोव का ‘क्वाइट फ्लोज द डोन’ तथा अमरीकी उपन्यासकारों सिन्क्लेयर लीविस और जॉन स्टाइनवेक की रचनाएं। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी अपनी इस कृति में व्यष्टि को नहीं समष्टि को प्रधानता दी है; यहां व्यक्ति गौण, प्रासंगिक ही है। इसकी कहानी व्यक्ति की नहीं, पूरे गांव की कहानी है। वह अंचल की जिन्दगी सामने रखता है।’’2 

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद व आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के बाद ग्राम्य संवेदनाओं को गहराई से पकड़नेवाले कथाकारों में अररिया जिले के नरपतगंज गांव में किसान  परिवार में 1 जनवरी 1945 को जन्मे रामधारी सिंह दिवाकर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे ग्राम्य चेतना के कुशल चितेरे कहे जा सकते हैं। रेणु के बाद गांव-अंचल पर उपन्यास लेखन कर्म के दूसरे बड़े सिद्धहस्त शिल्पी माने जाते हैं। उनके लेखन व चिंतन में गांव की माटी की खुशबू पोर-पोर में समाहित है। दिवाकरजी पर रेणु का प्रभाव साफ-साफ दृष्टिगोचर होता दिखता है, तो इसका पुख्ता कारण भी है। कोसी अंचल के जिस इलाके में रेणुजी का लेखन व जीवन पल्लवित-पुष्पित हुआ, उसी इलाके में दिवाकरजी का भी बचपन बीता, जवानी के दिन बीते और लिखना शुरू किया। रेणु का सानिध्य मिला, तो उनके लेखक मन पर गांव की माटी में साहित्य साधना के बीज अंकुरने लगे, जो आगे चलकर उनके लेखन का आधार बीज बनकर साहित्य जगत में छा गया।       

सुपरिचित कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर ग्रामीण जनजीवन के सशक्त कथाकार हैं। उनके सभी उपन्यास ‘क्या घर क्या परदेश’, ‘काली सूबह का सूरज’, ‘पंचमी तत्पुरुष’, ‘आग पानी आकाश’, ‘टूटते दायरे’, ‘अकाल संध्या’ एवं ‘दाखिल खारिज’ ग्रामीण जनजीवन के दस्तावेज हैं। दिवाकर अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति ‘क्या घर क्या परदेश’ में गांव की आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों को उभारने में सफल दिखते हैं। ‘‘आज की बदली हुई परिस्थिति में गांव की स्थिति यह है कि अपने ही खेत में अपने ही हाथ से खेती करनेवाला व्यक्ति हेयदृष्टि से देखा जाता है। दूसरी ओर ऐन-केन-प्रकारेण पैसा बटोरने वाले भ्रष्ट चरित्र समाज के लिए आदर्श बन गये हैं।’’3  ‘अकाल संध्या’ उपन्यास की कथा पूर्णिया जिले के दो गांवों मरकसवा व बड़का गांव को केंद्र में रखकर बुनी गयी है। यह उपन्यास जमींदारों, सवर्णों व बबुआन टोलों के पराभव एवं दलित चेतना के निरंतर हो रहे उभार की कहानी कहता है। ‘‘शूद्रों के उदय की यह कैसी काली आंधी चली है? इस काली आंधी ने परंपरा से चली आ रही सवर्ण सत्ता के चमकते सूरज को शाम होने से पहले ही ढंक लिया। बाबू रणविजय सिंह की जमीन खरीद रहा है गांव का खवास झोली मंडर। नौकर-चाकर अब मिलते नहीं हैं। सब भाग रहे हैं-दिल्ली, पंजाब। बाबू-बबुआनों की जमीन खरीद रहे हैं गांव के राड़-सोलकन।’’4 

प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यासकारों ने गांव को आधार बनाकर दर्जनों बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं, उनमें बाबा नागार्जुन का खास स्थान है। इनके सभी उपन्यासों की कथाभूमि मिथिला के गांव हैं। रतिनाथ की चाची, बलचनमा, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरुण के बेटे में नागार्जुन ने ग्रामीण जीवन की सामाजिक विषमता, किसानों की यातनापूर्ण स्थिति, गरीबी, वर्ग व्यवस्था को उजागर किया है। बलचनमा निम्नवर्गीय किसान का पुत्र है, जो बड़ा होकर किसान जीवन की पीड़ा, त्रासदियों व अभावों को झेलता हुआ जमींदारों के अमानवीय अत्याचार को झेलता रहता है। इसी तरह नई पौध में सौरठ मेले से जुड़ी सड़ी-गली प्रथा, स्वार्थवृत्ति और पुरानी पीढ़ी की शोषक वासना का नंगा चित्र उद्घाटित करता है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे नई पौध के लोग पुरातनपंथी सोच को नकारने को आंदोलित हो उठते हैं। 

जीवनभर रोजी-रोटी के लिए खेतों में पसीने बहाते किसानों, अभावग्रस्त ग्रामीणों की तबाही और बढ़ जाती है जब बाढ़ कहर बनकर टूटती है। बाढ़ की विभीषिका झेलनेवालों की त्रासद कथा को भी उपन्यास में स्वर मिली है। जगदीशचंद्र माथुर का ‘धरती धन न अपना’, रामदरश मिश्र का ‘टूटता हुआ जल’ विवेकी राय का ‘सोना माटी’, रामदरश मिश्र का ‘पानी के प्राचीर’ आदि उपन्यासों में हर साल बाढ़ का कहर झेलते गांवों के लोगों की अंतहीन पीड़ा की दास्तां है। इन उपन्यासों में लेखक ने श्वेत पक्ष को भी उद्घाटित किया है। बाढ़ आती है तो सिर्फ धन-जन ही बहाकर नहीं ले जाती है। वह आपसी वैमनस्य को भी बहा ले जाती है। ‘‘सोना माटी उपन्यास में हर तरफ फैले हुए बाढ़ के पानी के बावजूद रामपुर, मेहपुर, चटाई टोला, बीरपुर जैसे सबके सब गांव एक-दूसरे के निकट आते हैं और सामाजिकता का पूरा निर्वहन करते हैं। बाढ़ का पानी मानों इन गांवों को, गांवों के मैले मन को जोड़ने का सूत्र हो।‘‘5 

शिव प्रसाद सिंह ने ‘अलग-अलग वैतरणी’ में गर्मी-सर्दी की परवाह किये बिना सालों भर मेहनत करनेवाले भारतीय कृषकों में व्याप्त निराशाजनक स्थितियों को रूपायित किया गया है। ‘बबूल’ उपन्यास में बाढ़नपुर गांव में व्याप्त बेकारी की समस्या को चित्रित किया गया है। काम की तलाश में अधिकतर मजदूर दूसरे प्रांतों में पलायन कर जाते हैं। ‘अपनी अपनी कंदील’ में हिमांशु श्रीवास्तव ने माली परिवार की सामाजिक व आर्थिक दशा का अनुशीलन किया है। गांव के गरीबों को सूदखोर उसकी जमीन-जायदाद तक हड़प लेते हैं और उसे जीवनभर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश कर देते हैं, यही पीड़ा इस उपन्यास में उभरकर आता है।                                                      
रामदरश मिश्र का ‘सूखता हुआ तालाब’ की चेनइया अपने विजिड़ित जीवन को लेकर देव प्रकाश से कहती हैं। ‘‘बाबा, गांव सचमुच रहने लायक नहीं है, मैं गांव से भाग रही हूं। गांव ने मुझे बेस्सा बनाकर छोड़ दिया, अब जान लेने पर उतारू है।’’6 यहां सूखते हुए तालाब के जरिये कथाकार ग्रामीण जीवन से मानवीय संवेदनाओं के लोप होने की बात उकेरता है। तालाब के सूखने का मतलब है गांव में जीनेवाले लोगों की संवेदनाओं का सूखना। ग्रामीण जीवन में तालाब का एक अपना महत्व है। यह जीवन व परंपरा से जुड़ी है। तालाब को पवित्र मानकर गांव के लोग इसके तट पर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। आधुनिकता ने तालाब की समृद्ध परंपरा के स्रोत को ही सूखा दिया है। 

वृंदावनलाल वर्मा का ‘लगन’, अमृतलाल नागर का ‘महाकाल’, उग्रजी का ‘जीजीजी’, गोविंदबल्लभ पंत का ‘जूनिया’, भैरव प्रसाद गुप्त का ‘गंगा मैया’, राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’, शिवकरण सिंह का ‘अस गांव पस गांव’, मधुकांत का ‘गांव की ओर’, एकांत श्रीवास्तव का ‘पानी भीतर फूल’, मार्कण्डेय का ‘अग्निबीज’ आदि उपन्यासों में भी ग्रामीण संवेदनाएं खुलकर उभरी हैं। सियारामशरण गुप्त, उदयशंकर भट्ट समेत कई अन्य कथाकारों ने भी उपन्यासों के माध्यम से गांव का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। 

वैसे तो, प्रेमचंद से लेकर विवेकी राय तक ने टूटते-बिखड़ते भारतीय गांव के सत्य से पाठकों को साक्षात्कार कराया है, लेकिन बदलते हुए गांव को बारीकी से पकड़ने में रामधारी सिंह दिवाकर ही सफल हो पाये हैं। समय की मार ने जमींदारों को अपनी जमीन बेचने पर मजबूर किया, तो उधर सदियों से सताये गये दलित वर्ग के लोग उनकी प्लॉट खरीद रहा है। पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद सड़ी-गली राजनीति का अड्डा बने गांवों में दम तोड़ते मूल्यों की भयानक चीख व्याप्त हो गयी है। मानवीय संबंधों के बीच से रागात्मकता खत्म हो रही है। पिछले कुछ दशकों में दलितों-पिछड़ों के बीच एक सम्पन्न वर्ग पैदा हुआ है। इस वर्ग की अपनी विशेषताएं-विद्रुपताएं हैं। गांवों की इन जटिलताओं व विडंबनाओं को दिवाकर जैसे उपन्यास लेखक ही पकड़ पाये हैं।          
           
संदर्भ :  
1. गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ 151
2. डॉ शान्तिस्वरूप गुप्त, हिन्दी उपन्यास : महाकाव्य के स्वर, पृष्ठ 83
3. ग्रामीण जीवन का समाजशास्त्र, संपादक : जीतेंद्र वर्मा, पृ. 126
4. रामधारी सिंह दिवाकर, अकाल संध्या, पृ 71, 72
5. देवगुड़ि हुसेनवली, प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यासों में ग्राम जीवन, पृ. 68
6. डॉ रामदरश मिश्र, सूखता हुआ तालाब, पृ. 102










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