मंगलवार, 27 जुलाई 2010

जाति बड़ा कि विद्या का मंदिर

उत्तर प्रदेश के इलाके मैं इन दिनों स्कूली छात्रों का एक अनूठा आन्दोलन चल रहा है. ऊँची व पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों ने दलित रसोईये के हाथों बने मिड-डे मील खाने से इंकार कर दिया है. हालिया वाकया महोबा के लुहेड़ी गाँव स्थित एक विद्यालय का है. विद्या के इस मंदिर में छुआछूत की पराकाष्ठा देखिये कि छात्रों ने यहाँ तक कह डाला कि हमें वजीफा देना बंद कर दो, स्कूल से नाम काट दो, लेकिन हम दलित के हाथ का खाना नहीं खायेंगे. इसमें आश्चर्य करने की कोई नई बात नहीं है. छुआछूत भरी ऐसी अनेकों अत्याचार व जुल्मों-सितम की कहानियाँ इतिहास के पन्नों में दर्ज है. भारतीय संविधान के निर्माता अम्बेडकर साहब को भी बचपन से जवानी तक कितने ही जाति के जल्लादों से जूझना पड़ा था. स्कूल में सहपाठी साथ नहीं बैठने देते थे तो गाँव में कुँओं पर पानी पीने से वंचित कर दिया जाता था. वह दौर कुछ और था. तब मनु के संतानों की चलती थी, लेकिन अब तो हम २१वी सदी का वासी होने का दंभ भर रहे हैं. दुनिया के साथ कदमताल करते हुए, विकसित भारत की कल्पना करते हैं. क्या हम ऐसे ही भावी कर्णधारों से भारत के स्वर्णिम भविष्य की कल्पना करते हैं?

निःसंदेह ये बच्चे दोषी नहीं हैं. इन निर्दोष बच्चों को जाति नाम के दैत्यों के बारे में क्या पता. अपनी संतानों के कोमल मन पर तो उनके अभिभावक ही जाति का जहर डालते हैं. प्रगतिशील सोच का कहलाने वाला बिरादरी ही समाज में छूत, घृणा, तिरस्कार के वायरस का संवाहक होता है, कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. पहले ऊँची जातियां दलितों व पिछड़ी जाति के लोगों को अपने पास फटकने नहीं देता था. आज पिछड़ी जातियों को थोड़ी ऊँची कुर्सी मिली नहीं कि सवर्णों के साथ मिलकर लगा दलितों से घृणा करने. महोबा में इन्हीं दोनों तथाकथित बिरादरी के लोगों ने बच्चों के मन में दलित रसोईये के खिलाफ जाति का जहर फैलाया. इसे ढोंग नहीं तो क्या कहेंगे. दलितों-पिछड़ों से घृणा करने वाले, उनके हाथ का खाना व पानी लेने से परहेज करने वाले को क्या नहीं मालूम कि होटलों-ढाबों में खाना बनाने से लेकर प्लेट परोसने तक के काम में दलित लगे हैं. जिस चम्मच में आप मिठाई बड़े चाव से खाते हैं, उसी चम्मच को एक दलित ग्राहक भी अपने मुंह में डालता है. होटलों में दलितों और सवर्णों के लिए अलग-अलग व्यवस्था नहीं होती, फिर भी आप वहां नखरा नहीं करते. इस दोहरे चरित्र को क्या कहा जाये?

मानव को सभी प्राणियों में सभ्य व विवेकशील समझा जाता है. वही मानव दूसरे मानव को रंग, वर्ण, भाषादि के आधार पर बांटकर अत्याचार करे, समाज की एकता को भंग करे, असमानता को बढ़ावा दे, मानवाधिकारों को कुचले तो उसके सभ्य व विवेकी होने पर प्रश्नचिन्ह लगता है. मानव समुदाय के ऐसे कुकृत्य पर शर्म आती हैं. वैदिक काल से लेकर आज तक और आने वाली शताब्दियों तक वर्ण-व्यवस्था समाज को कलंकित करती रहेंगी. हालाँकि, सदियों से कुछ बड़े समाज सुधारकों और राष्ट्रीय नेतायों ने वर्ण-व्यवस्था को कुचलने का प्रयास करते रहे हैं. गाँधी, अम्बेडकर से लेकर दयानंद सरस्वती तक ने अनेकों प्रयास किये. उन्हें आशातीत सफलता तो नहीं मिली, पर सुधारों का मार्ग प्रशस्त जरूर हुआ.

जातिवाद ने इस देश से मानवी सदाचार का भी संहार किया है, जो अत्यंत खेदजनक है.  वर्ण और जाति की भावना ने हिन्दुओं की दृष्टि को इतना संकुचित कर दिया हैं कि कोई मनुष्य कितना भी सदगुणी और सदाचारी क्यों न हो, यदि वह किसी ख़ास वर्ण या जाति विशेष का व्यक्ति नहीं है तो वह पूजा नहीं जायेगा. महान संत रविदास शूद्र थे, लेकिन उनकी विद्वता का सानी नहीं नहीं था. इसके बावजूद वे समाज में सर्वमान्य नहीं हो सके. आज भी उनकी जयंती या पुण्यतिथि बड़े पैमाने पर केवल रविदास बिरादरी के लोग ही मनाते हैं. वोट की राजनीति करनेवालों को छोड़कर कोई सवर्ण बुद्धिजीवी संत रविदास या अम्बेडकर की जयंती क्यों नहीं मनाता. पटेल की जयंती पटेल मनायेगा, रविदास की जयंती रविदास मनायेगा, सहजानंद की जयंती भूमिहार-ब्राह्मण मनायेगा तो वृहत्तर समाज की रचना कैसे होगी. समाज में एकता व सौहार्द का माहौल कैसे बनेगा. वर्ण-व्यवस्था ने महान संतों, महापुरुषों को भी जातिगत आधार पर बाँट कर रख दिया है. यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है अपने देश का.

जाति और वर्ण का दंश पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक को नहीं छोड़ा. बीमारू प्रदेश बिहार-उत्तर प्रदेश की बात करें अथवा शत-प्रतिशत साक्षरता व विकास दी उत्तरोत्तर कहानी गढ़ने वाले दक्षिण के राज्यों की, कोई अछूता नहीं है इस बीमारी से. जब केरल या तमिलनाडु के मंदिर में कोई दलित प्रवेश कर जाता है तो बवाल मच जाता है. पूरे मंदिर परिसर को धोकर शुद्ध किया जाता है. पेशवाओं के शासनकाल में महाराष्ट्र में इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नहीं थी, जिसपर कोई सवर्ण हिन्दू चल रहा हो. उनके लिए आदेश था कि ये अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधे ताकि हिन्दू भूल से इन्हें छू न सके. पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि ये कमर में झाड़ बांधकर चले ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाड से मिट जाएँ और कोई हिन्दू उनके पदचिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाएँ. अछूत अपने गले में हांडी बांधकर चले और थूकना हो तो उसी में थूके. भूमि पर पड़े अछूत के थूक पर किसी हिन्दू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाता था. अछूत भी मनुष्य है और पेशवा ब्राहमण भी मनुष्य था. एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ यह व्यवहार!

जाति प्रथा ने भारत का जो सबसे बड़ा अहित किया है, वह हिन्दू समाज में सामाजिक और राजनीतिक संस्कार विकसित न होने देना. हिन्दू अपने व्यक्तिगत जीवन के बारे में सोचता है, अपने परिवार के बारे में सोचता है, अपनी जाति की मर्यादाओं का ध्यान रखता है. किन्तु वह पूरे समाज के स्तर पर बहुत कम सोचता है. समाज का प्रबुद्ध वर्ग ब्राह्मणवाद और मनुवाद की निंदा करता है. सामाजिक न्याय और आरक्षण का विरोधी और पक्षधर दोनों अपने-अपने विचारों की वकालत मजबूती के साथ करता है, लेकिन जातिविहीन समाज की बात कितने लोग करते हैं. जाति भेद मिटाए बिना आजादी का जश्न हम कैसे मनाएंगे?

झूठी शान के लिए जिस तरह घरवाले अपनी ही संतानों के जान के दुश्मन बन रहे हैं. उन्हें प्रेम विवाह करने से रोकने के लिए सरेआम मौत के घाट उतार रहे हैं, उसी तरह समाज भी वर्ण-व्यवस्था की झूठी शान को बनाए रखना चाहता है. शायद ऐसे तथाकथित समाज के मठाधीशों को मालूम नहीं कि दुनिया तेजी से बदल रही है. ग्लोबल विलेज के रूप में सिमट रही दुनिया अब इंटरनेट व कंप्यूटर से संचालित हो रही है. जहाँ खुलापन ज्यादा है, व्यक्तिगत आजादी का डंका बज रहा है. कोर्पोरेट घरानों एवं निजी कंपनियों में काम करने वाले युवा-युवती बिना जाति देखें प्रेम विवाह करेंगे. बताईये, तब उनके बच्चे किस जाति के होंगे. यह सब होगा नहीं बल्कि हो रहा है. युवाओं को अच्छाईयों से भटकाकर, उसकी भावनाओं को कुचलकर, उनकी सोच को संकुचित कर, उन्हें विद्रोह करने को मजबूर कर रहा है समाज और परिवार. अरे, इंसानों अब तो छोड़ों संकीर्ण विचारों को. काम के आधार पर स्थापित वर्ण-व्यवस्था के तार तो टूट रहे हैं. पूंजीवादी व्यवस्था में वर्ण-व्यवस्था को तार-तार करने का दम है. इसका असर सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने में अहम् भूमिका निभा रहा है. जातिगत पेशा अब कहाँ रहा अपने मूल स्वरुप में. सैलून अब हजाम के अलावे सवर्ण भी चला रहे हैं. चमड़े की बनी वस्तुओं की दूकान चर्मकार के अलावे ऊँची जाति के लोग भी चला रहे हैं. यह सब तेजी से भागती दुनिया का कमाल है. दलितों से घृणा करने का पाठ पढ़ाने वाले मां-बाप और समाज को संभल जाना चाहिए. जाति की दुकानदारी ज्यादा दिनों तक चलने वाली नहीं है. २१ वीं सदी बहुत सारे मिथकों, परम्पराओं, वर्जनाओं को तोड़कर एक नई दुनिया की नींव रखनेवाली है. इसे नहीं भूलना चाहिए. आने वाली पीढ़ी का विद्रोह परवान ही चढ़ेगा, क्योंकि उसे छूना है चाँद. उसे नापना है धरती की लंबाई. उसे उतरना है सागर की गहराईयों में जो.

रविवार, 25 जुलाई 2010

जनसरोकार की खबरें अब बीते दिनों की बात

 ननकी चाचा ने अपनी मेहनत से बदली गाँव की तस्वीर, बुधिया की बेटी के हाथ में खुरपी के बदले अब कलम. अपने सखियों के संग ममता कर रही बचत, जैसी खबरें तथाकथित बड़े अखबार के पाठकों के लिए बीते दिनों की बातें होती जा रही हैं. अब इसके बदले छपती हैं बिकनी पहनकर सड़क पर दौड़ लगाने वाली बालाओं की तस्वीरें व खबरें. कंधे पर हाथ डालकर एक-दूसरे को किस करती जोड़े की तस्वीरें. बड़े अखबार के दफ्तर में जब खबरें आती हैं तो अधिकारी पूछते हैं कि पहले उसका प्रोफाइल बताओ. चेहरा सुन्दर है कि नहीं. खबर विज्ञापनदाताओं के खिलाफ तो नहीं है. इन सवालों के जवाब से संतुष्ट होने के बाद ही मिलती है जगह. अगर गाँव के दुखिया या बेबस आदमी की खबर है तो वह शायद ही प्रमुखता से जगह लें. खबरों की संवेदन्शीलता तथा महत्व के प्रति बदलते नजरिये के इस दौर में अब लघु पत्र-पत्रिकाओं की जवाबदेही बढ़ी है. सही मायने में कहें तो पत्रकारिता धर्म का निर्वाह पूर्व की तरह आज भी छोटे-छोटे अखबार व पत्रिका ही निबाह रहे हैं. बिना किसी अधिकारी तथा समाज में पैसे के बल पर धौंस दिखाने वाले पूंजीपतियों के प्रभाव में आयी जनता की आवाज को व्यवस्था तक पंहुचाने का काम कर रहे हैं. इस धर्म के निर्वाह में काफी कठिनाईयों का सामना भी करना पड़ता है. अखबार निकालने में विज्ञापन की कमी और सरकार की ओर से अपेक्षित सहयोग न मिलना मुख्य कारण है. लेकिन कलम देश की बड़ी ताकत है भाव जगाने वाली, दिल ही नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली. कलम के सिपाही अगर सो गए तो वतन के रखवाले वतन बेच देंगे. का भाव लिए छोटे अखबार के मालिक लगातार बड़े अखबार के सामने निर्द्वंद खड़े हैं. सांध्य दैनिक, साप्ताहिक तथा पाक्षिक निकाल रहे हैं. कुछ पाठकों की शिकायत रहती है कि बड़े अखबार विज्ञापनों से भरे-पड़े रहते हैं. कईं विज्ञापन इतने अश्लील रहते हैं कि परिवार के साथ अखबार पढ़ पाना मुश्किल होता है. शर्म आती है.  खबरों को चटपटी बनाने के  लिए इस तरह कालम चलाये जाते हैं कि बच्चों के सामने पढ़ना मुश्किल होता है. सरकार को छोटे पत्र-पत्रिकाओं को सहयोग करना चाहिए. बड़े अखबारों में प्रखंड स्तर के पत्रकारों का कितना शोषण किया जाता है कार्यालय की ओर से जरा उनसे पूछिये. दैनिक मजदूरी भी नहीं मिल पाता है. महंगाई के इस दौर में प्रखंड रिपोर्टर को अखबार प्रबंधक ही बेईमान बनाने को मजबूर करता है. एसी स्थिति में वह बेचारा आम आदमी की आवाज खाक बनेगा. - एक रिपोर्टर का दर्द

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

ग्रामीण मीडिया कार्यशाला संपन्न

उत्क्रमित मध्य विद्यालय, डुमरी परमानंदपुर (पारू), मुजफ्फरपुर में "मिशन आई इंटरनॅशनल सर्विस" के तत्वाधान में आयोजित तीन दिवसीय 'ग्रामीण मीडिया कार्यशाला'   का १५ जुलाई २०१० को समापन हुआ. अप्पन समाचार से जुडी स्थानीय महिला जन-पत्रकारों एवं प्रशिक्षु महिलाओं ने कार्यशाला में भाग लिया. प्रशिक्षार्थियों की संख्या ३० थीं. तीन दिन के प्रशिक्षण के दौरान लड़कियों ने खबरों के स्रोत, ग्रामीण क्षेत्रों में समाचार इकट्ठा करने में आनेवाली परेशानिओं से जूझने के तरीकों, कल्याणकारी योजनाओं से सम्बंधित जानकारियाँ, कैमरे के तकनिकी जानकारिया व् चलाने के हूनर, स्क्रिप्ट लेखन, पीटीसी  करना, एंकरिंग आदि की बारिकिओं के बारे में जानकारी हासिल की. जिले के साहेबगंज एवं पारू प्रखंड के चान्द्केवारी, हुस्सेपुर परनी छपरा, सोहंसा, हुस्सेपुर दोबंधा, डुमरी परमानंदपुर गाँव की आठवीं कक्षा से लेकर स्नातक तक की लड़कियों ने भाग लिया.
प्रशिक्षक थे-
(1) संतोष सारंग (संस्थापक, अप्पन समाचार),  (2) राजेश कुमार (वीडिओ एडिटर ),  (3) शिवशंकर विद्यार्थी (पत्रकार, दैनिक जागरण),  (4) जहीर अली (पत्रकार, दैनिक हिंदुस्तान),  (5) मनोज वत्स (सामाजिक कार्यकर्ता)
प्रशिक्षनार्थियों के नाम-
प्रीति कुमारी, सविता कुमारी, रिंकू कुमारी, जुलेखा खातून, नीतू कुमारी,  आरती कुमारी,  रुबीना खातून, ममता कुमारी, रागिनी कुमारी, पूनम कुमारी, अनीता कुमारी, रिंकू कुमारी, सुरभि कुमारी, कंचन कुमारी, नीतू कुमारी, अशविनी कुमारी, कुमारी काजल, विभा कुमारी, मुन्नी कुमारी, डौली कुमारी, विजेता कुमारी, खुशबू कुमारी, राबिता कुमारी, धर्मशिला कुमारी, प्रणिता कुमारी, सरिता कुमारी, जिज्ञासा कुमारी, अंचला कुमारी, माधुरी कुमारी, अनीता कुमारी, चांदनी कुमारी, ललीता कुमारी.

अंतिम दिन समापन सत्र  के मौके पर बतौर मुख्य अतिथी साहेबगंज के प्रखंड विकाश पदाधिकारी श्री मंडन मिश्र ने अपने संबोधन में कहा कि गांधी जी की कल्पना थी कि देश का विकास चाहते हो तो गाँव का विकास करो, देश को ज्ञानी बनाना चाहते हो तो गाँव को ज्ञानी बनाओ. अप्पन समाचार का प्रयास गांधी के सपनों को पूरा करने का एक नायब प्रणाली बनेगा. हमारी सांस्कृतिक विरासत काफी मजबूत है. इसे बचाने का बीड़ा आपको अप्पन समाचार के जरिये उठाना होगा. लड़कियों को सर्टिफिकेट वितरित करते हुए कहा कि गाँव की लड़कियों का प्रयास सराहनीय है.

देवरिया के प्रभारी थानाध्यक्ष मुन्नीलाल प्रसाद ने  अप्पन समाचार को परिवर्तनकारी प्रयास बताया. इस अवसर पर मिशन आई के प्रवक्ता सह कार्यक्रम संयोजक अमृतांज इन्दीवर, ट्रस्टी फूलदेव पटेल, पंकज सिंह मौजूद थे. कार्यक्रम का संचालन अप्पन समाचार की एंकर खुशबू एवं धन्यवाद ज्ञापन रिपोर्टर अनीता ने किया.

बुधवार, 7 जुलाई 2010

Appan Samachar-Solution Based Media

MEIS Trust produces “Appan Samachar” bulletin fortnightly. The content of this all-women community news network is decided by a "Team of Women Reporters" & "Community Editorial Board" based on viewer feedback and key campaign issues. Different segments might include:
• Community News - the issues of farmers & poor communities, such as government schemes, local health & hygine issues,  and upcoming events that are not covered by the mainstream news
• Public Opinions – the public opinions on different local and burning issues. 
• Success Stories - the students & local people who work on innovative ideas and inventions in agriculture sector and such as families that have found economic success through educating their girls
• Short Documentaries – the stories on various local problems, community based issues like-social evils, health & hygine, mal-nutrition, envirnment, HIV/AIDS, RTI and stories where families speak out against alcoholism.
• Legal Awareness - i.e., what to do if police personnel don't lodge FIR. 
• Local Culture and Music – could be introductions to the festivals of another community/religion
• Interviews – interview of local farmers, agriculture scientist, experts, local represantatives, polece personnel, local leaders, officials etc.
• Editorial – where the news network and the reporters take their stand-for-change on the issue and give follow up action points
• Local humour/jokes/skits – because we need to make people laugh!
• Election Campaign – election campaign to educate & aware voters.
• Human Rights & Environment Programme – special programme on human rights & environment.

शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

मौत के सौदागरों की न्यायिक जीत

इतिहास माफ़ नहीं करेगा भारत की सत्ता को, अदालतों को, जांच एजेंसियों को और स्थानीय प्रशासन को. भोपाल की निचली अदालत के फैसले से भारतीय कानून व शासन व्यवस्था की पोल खुल गई. देश की जनता को न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया. भोपाल गैस कांड के बाद २६ सालों तक देश की जनता को गुमराह कर भारत की राजसत्ता ने यह साबित कर दिया कि जनता की जान की कीमत कौड़ी के भाव भी नहीं है. न्याय के लिए अंतहीन आन्दोलनों को धार देते-देते गैस पीड़ितों की आँखें पथरा गयी. इस बीच २० हजार से अधिक मृतकों की आत्माएं भटकती रहीं न्याय के लिए. क्या देश के रहनुमाओं के पास जवाब देने के लिए दो शब्द है ताकि इनकी आत्माओं को शांति मिल सके. राजनीति के बियावान में राजसी सुख भोग रहे इन राजनेताओं के पास शायद कोई जवाब नहीं हैं. किन्तु पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ इनसे सवाल पूछती ही रहेंगी.
दुनिया की सबसे बड़ी व भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना भारत में ही क्यों घटती है? और हादसे के केवल चार-पांच दिन के भीतर ही इसके मुख्य आरोपी सकुशल अमेरिका कैसे पंहुच जाता है? अफसोसनाक बात है कि वारेन एंडरसन को एअरपोर्ट तक छोड़ने भोपाल के डीएम-एसपी तक गए. इस प्रकरण में अब तो खुलासा हो चूका है कि वारेन को भगाने में अर्जुन सिंह से लेकर दिवंगत राजीव गाँधी तक शामिल थे. अगर यूनियन कार्बाईड के आठ अधिकारी कातिल है तो उससे बड़ा कातिल तो हमारे हाकिम-हुक्मरान हैं, जिन्होंने अमेरिकी कंपनी से लाखों डॉलर लेकर लाखों भारतीय जिंदगियों  को नरक में धकेल दिया मरने के लिए. फैसला आने के बाद कानून मंत्री वीरप्पा मोईली ने कहा कि न्याय दफ़न हो गया, जबकि उसी कांग्रेस की तब की सरकार पर सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी एस लाल का आरोप है कि हम पर दवाब बनाया गया था.
कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था को इतने भीषणतम त्रासदी पर फैसला सुनाने में २६ साल लग जाता है. वह भी इतना कमजोर फैसला कि शर्म से सर झुक जाता है.