शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

मौत के सौदागरों की न्यायिक जीत

इतिहास माफ़ नहीं करेगा भारत की सत्ता को, अदालतों को, जांच एजेंसियों को और स्थानीय प्रशासन को. भोपाल की निचली अदालत के फैसले से भारतीय कानून व शासन व्यवस्था की पोल खुल गई. देश की जनता को न्यायपालिका पर से भरोसा उठ गया. भोपाल गैस कांड के बाद २६ सालों तक देश की जनता को गुमराह कर भारत की राजसत्ता ने यह साबित कर दिया कि जनता की जान की कीमत कौड़ी के भाव भी नहीं है. न्याय के लिए अंतहीन आन्दोलनों को धार देते-देते गैस पीड़ितों की आँखें पथरा गयी. इस बीच २० हजार से अधिक मृतकों की आत्माएं भटकती रहीं न्याय के लिए. क्या देश के रहनुमाओं के पास जवाब देने के लिए दो शब्द है ताकि इनकी आत्माओं को शांति मिल सके. राजनीति के बियावान में राजसी सुख भोग रहे इन राजनेताओं के पास शायद कोई जवाब नहीं हैं. किन्तु पीढ़ियाँ-दर-पीढ़ियाँ इनसे सवाल पूछती ही रहेंगी.
दुनिया की सबसे बड़ी व भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना भारत में ही क्यों घटती है? और हादसे के केवल चार-पांच दिन के भीतर ही इसके मुख्य आरोपी सकुशल अमेरिका कैसे पंहुच जाता है? अफसोसनाक बात है कि वारेन एंडरसन को एअरपोर्ट तक छोड़ने भोपाल के डीएम-एसपी तक गए. इस प्रकरण में अब तो खुलासा हो चूका है कि वारेन को भगाने में अर्जुन सिंह से लेकर दिवंगत राजीव गाँधी तक शामिल थे. अगर यूनियन कार्बाईड के आठ अधिकारी कातिल है तो उससे बड़ा कातिल तो हमारे हाकिम-हुक्मरान हैं, जिन्होंने अमेरिकी कंपनी से लाखों डॉलर लेकर लाखों भारतीय जिंदगियों  को नरक में धकेल दिया मरने के लिए. फैसला आने के बाद कानून मंत्री वीरप्पा मोईली ने कहा कि न्याय दफ़न हो गया, जबकि उसी कांग्रेस की तब की सरकार पर सीबीआई के संयुक्त निदेशक बी एस लाल का आरोप है कि हम पर दवाब बनाया गया था.
कितनी बड़ी विडम्बना है कि इस लोकतांत्रिक देश की न्यायिक व्यवस्था को इतने भीषणतम त्रासदी पर फैसला सुनाने में २६ साल लग जाता है. वह भी इतना कमजोर फैसला कि शर्म से सर झुक जाता है.

कोई टिप्पणी नहीं: