बुधवार, 4 नवंबर 2009

...तो फिर क्यों न बन जायें माओवादी

अंग्रेज के ज़माने में कलकत्ता से लुटियन की दिल्ली में स्थानांतरित हुए देश के सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठान का सफर सौ साल पूरा करने के करीब है। इस बीच यमुना में ढेर सारा पानी भी बह चुका है और आज स्थिति यह है कि दिल्ली में जमा होते कचरे को ढोते-ढोते यमुना ख़ुद गन्दी हो चुकी है। यमुना तो गन्दी हुई ही लुटियन द्वारा निर्मित सर्वोच्च संस्था संसद भवन के गलियारे से निकली राजनीति की लगभग तमाम धाराएं भी गन्दी हो चुकी है। दिल्ली का दिल दलगत राजनीति के विकृत वाणों से छलनी हो चुका है। अब तो लूट, स्वार्थपरक राजनीति, वंशवाद का बेल, सत्ता व कुर्सी का घिनौना खेल लोकतंत्र के निचले पायदान तक पहुँच चुका है। स्थानीय स्वशासन यानि पंचायती राज व्यवस्था भी उच्च सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, राजनीतिक सिद्धांतों के ढहते प्रतिमानों का साक्षात्कार करता हुआ दलाली, आर्थिक अनियमितताओं एवं लूट-खसोट की संस्कृति को समृद्ध करने में लग गया है। शासन-प्रशासन की राजसी और तानाशाही कार्यशैली से आहत जनता उग्र हो रही है। हुक्मरानों-हाकिमों की कुम्भकर्णी निद्रा तोड़ने के लिए की जानेवाले लोकतांत्रिक आन्दोलनों, यथा-धरना-प्रदर्शनों, उपवास, मौन-जुलूस आदि का असर भी कुंद पङता जा रहा है। अपनी मांगों को लेकर धरना दे रहे आम नागरिकों के ज्ञापनों पर अमल करने की फुर्सत अब जिलाधिकारियों को नहीं रही। पंचायत, प्रखंड, थाने, जिला मुख्यालय होता हुआ एक निरीह आदमी मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक चला जाता है। अपनी शिकायतें केन्द्रीय मंत्रालयों, आयोगों को लिखता हुआ वह थक जाता है, पर न्याय नहीं मिलता है। थका-हारा वह असहाय आदमी भटकता है, तलाशता है किसी मसीहा को। अंततः सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता "भिक्षुक" का किरदार निभाने को मजबूर हो जाता है तो कहीं से एक किरण दिखाई पड़ती है, जिसे हम नक्सलवाद का लाल सिपाही कहते हैं। मरता क्या नहीं करता। फिर वह बन्दूक उठाता है और बन जाता है खुनी क्रांति का एक भटका हुआ सिपाही।

1 टिप्पणी:

amritanj indiwar ने कहा…

sarangjee, naksalwaad par apane bahut barhiya likh likha hai. main sahmat hun. sarkaar kee naakaami ki wajah se hee naksalwad panap raha hai. garibon ke kilaaph sarkaari daman jabtak jari rahega, tabtak naksalwad rahega.
Amritaanj Indiwar