शुक्रवार, 15 मई 2015

मौसम की मार ङोलता किसान

मार्च माह में हुई असमय बारिश से फसलों को इतना नुकसान हुआ है कि पूरे देश से किसान आत्महत्या की खबरें आ रही हैं. दूसरों के लिए अनाज उत्पन्न करने वाला अन्नदाता आज खुद अन्न को तरस रहा है. मोदी सरकार के लिए इंटेलीजेंस ब्यूरों ने दिसंबर में kकिसानों की खुदकुशी के मामलों की बाढ़l नाम से एक रिपोर्ट लिखी थी. रिपोर्ट में गुजरात, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडू में किसानों की आत्महत्याओं की घटनाओं के अलावा महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब में ऐसे मामलों के बढ़ने की बात कही गयी थी. रिपोर्ट में डांवाडोल मॉनसून, बढ़ते ऋण, फसल की कम कीमत पर ख़रीद और फसलों की लगातार नाकामी को किसानों की खुदकुशी के लिए जि़म्मेदार बताया गया है.
         राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के मुताबिक, वर्ष 1995 से 2013 के बीच तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. वर्ष 2012 में 13,754 किसानों ने विभिन्न वजहों से आत्महत्या की थी और 2013 में 11,744 ने. एक अनुमान के मुताबिक, देश में हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है यानि अन्नदाता की भूमिका निभाने वाला किसान अब अपनी जान भी बचाने में असमर्थ है. वर्ष 2014 में भी आत्महत्या की दर में तेजी आई है. 2015 में मार्च के महीने में असमय बारिश के कारण फसल बर्बाद हो गयी है. किसानों को भारी हुआ है. आय का कोई साधन और परिवार का बोझ उठाने में असमर्थ किसान आत्महत्या का रास्ता अपना रहे हैं. देश के किसी न किसी कोने से हर रोज़ किसी न किसी किसान की आत्महत्या की खबर मिल रही है.
         बिहार में सीमावर्ती क्षेत्नों में आए विनाशकारी तूफान से फसलों की चैतरफा बर्बादी हुई है. पूर्णिया, मधेपुरा, सहरसा, किटहार, मधुबनी व दरभंगा में गेहूं व दाल (मुंग) की बर्बादी से रोटी व दाल पर भी आफत पड़ने का अनुमान है। अब तक डेढ़ लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन पर लगी फसल की बर्बादी का आकलन है व 100 करोड़ से अधिक की क्षति बतायी जा रही है. इस पहले मार्च माह में हुई असमय बारिश का नुकसान किसान पहले ही उठा चुके हैं. अप्रैल का महीना गेहूं की फसल की कटाई का होता है. पर बिहार में असमय बारिश और तूफान फसलों को  ज़बरदस्त नुकसान पहुंचाया है. इस बारे में बिहार के मुज़फ्फरपुर जि़ले के किसान जयकिशोर राउत कहते हैं कि kवैसे भी छोटे किसानों के लिए खेती में अब कुछ नहीं बचा है और इस साल इन्द्रदेव भगवान भी हमसे नाराज़ हैं. कटाई के समय असमय बारिश ने किसानों को बहुत नुकसान पहुंचाया है. राज्य के किसान सरकार से मुआवज़े की आस लगाए बैठे हैं. सरकार की ओर से कुछ लोगों को तो मुआवज़ा मिला है, लेकिन अभी भी बड़ी तादाद में किसान मुआवज़े से वंचित हैं. अब तक किसानों को 50 प्रतिशत फसल के नुकसान पर ही मुआवज़े का प्रावधान था. किसानों को केवल बड़ी फसल की बर्बादी पर ही मुआवज़ा मिलता था. लेकिन इस साल किसानों की खराब होती आर्थिक स्थिति को देखते हुए केंद्र की मोदी सरकार ने एक तिहाई फसल के बर्बाद होने पर मुआवज़े का एलान करते हुए किसानों को दी जाने वाली मुआवज़े की राशि में दोगुनी से भी अधिक की वृद्धि कर दी है. राज्य में 50 प्रतिशत क्षति के आधार पर 836 करोड़ रुपये मुआवज़ा देने का निर्णय किया था, लेकिन केंद्र के नये निर्देश के बाद मुआवज़े की राशि में दोगुनी वृद्धि हो गयी है. इससे पहले बिहार सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग ने केंद्र सरकार को 25 प्रतिशत फसलों की क्षति पर ही मुआवज़ा देने और मुआवज़े की राशि चार गुनी करने का प्रस्वात भेजा था. कंेद्र सरकार की ओर 37 जि़लों के 19.92 लाख किसानों को 1764 करोड़ रुपये देने की घोषणा की गयी है.
             इस बारे में राकेश कुमार का कहना है कि- kमैंने 3 एकड़ ज़मीन में गेहूं की खेती की थी. फसल पर मैंने जितना खर्च किया था उसकी आधी भी उपज नहीं हुई. मैंने फसल मुआवज़े के लिए आवेदन दे दिया है. मुआवज़े से हमें थोड़ी बहुत राहत ज़रूर मिलेगी, लेकिन इससे हमारे परिवार के खर्चे भी नहीं निकल पाएंगे. इस साल अपने परिवार का भरण-पोषण करने को लेकर बहुत चिंता है. यह स्थिति सिर्फमेरी नहीं हैं. •यादातर छोटे किसानों की कमोवेश यही स्थिति है.l वहीं किसान रामनाथ गुप्ता का कहना है कि- kकृषि अधिकारी एसी में बैठकर किसानों के लिए नीति बनाते हैं. किसानों का दर्द क्या होता है इसे जानने के लिए वह एक बार खेत में आकर देखें? फसल की क्षति का थोड़ा बहुत मुआवज़ा मिलने से किसानों की दिनों-ब-दिन बिगड़ती हालत ठीक नहीं होनेवाली है. इसके लिए कोई स्थायी हल खोजना होगा. किसानों के हितों को ध्यान में रखकर नीतियां बनानी होंगी. आज देश में किसान सबसे •यादा परेशान हैं. किसानों की स्थिति के बारे में किसान नंदकिशोर कहते हैं कि-पहले किसान राजा था, लेकिन आज कर्ज में डूबकर भीखमंगा हो गया है. किसान कर्ज लेकर फसल उगाता है. अगर फसल अच्छी हुई भी तो •यादा से •यादा फसल बेचकर वह सिर्फकर्ज ही चूकता कर सकता है. छोटे किसानों के लिए खेती घाटे का सौदा बनती जा रही है. किसान होना आज गरीब होने का प्रतीक बन गया है. खाद, बीज, सिंचाई सब महंगा हो गया है. किसान जब तक नहीं फल-फूल सकता, जब तक उसके फसल का दाम उसकी लगात के अनुसार तय नहीं किया जाएगा.
           हमारा देश भारत कृषि प्रधान देश है. पर यहां किसानों की स्थिति सबसे •यादा खराब है. कृषि क्षेत्न डूब रहा है. किसान खेती छोड़ रहे हैं और जीवन भी. गेहूं के अलावा चना, सरसों और अरहर की फसलों को बड़ा नुकसान हुआ है. ये फसलें कटने को तैयार खड़ी थी कि बारिश व आंधी-तूफान ने सारी फसलें स्वाहा कर दिया. पिछले साल बारिश नहीं हुई थी, इसलिए खरीफ की फसल चौपट हुई थी. अब रही-सही कसर मार्च की बारिश ने पूरी कर दी. जानकार कहते हैं कि सरकार को संकट की इस घड़ी में किसानों के आंसुओं को पोंछना होगा. यह देश की बदनसीबी है कि रबी के सबसे बड़े उत्पादक क्षेत्न मौसम की मार चौपट हो गया. इसका खामियाजा सिर्फकिसान को ही नहीं भुगतना पड़ेगा, वरन शहरी मध्यवर्ग भी खाद्यान्नों की बढ़ी कीमतों के लिए और भुगतान को तैयार रहे

  • खुशबू कुमारी

श्रम के भार से दब रहा बचपन

  • अमृतांज इंदीवर

 बचपन से जिन बच्चों के हाथ गुड्डे-गुड़ियों व मिट्टी के खिलौने से खेलते हैं, आज उन्हीं हाथों को समाज ने जिंदगी भर मजदूरी व भटकने के लिए छोड़ दिया है. जिस उम्र में बच्चों को मां-बाप का प्यार, समाज से संस्कार, स्कूल से अक्षर ज्ञान मिलना चाहिए, वहीं इसके बदले उसे अपने और परिवार के पेट की खातिर ज़ोखिम भरा काम करना पड़ रहा है. ऐसे बच्चों को ढाबों, होटलों, रेस्टोरेंटों व रेलवे स्टेशन पर काम करते देखा जा सकता है. कमरतोड़ श्रम के बाद दो जून की रोटी कहीं नसीब हो पाती है. हमारे देश में ऐसे ढेर सारे बच्चे हैं, जो फटेहाल जिंदगी जी रहे हैं, जो सड़क किनारे, बस व रेलवे स्टेशन पर कूड़े-कचरों में अपना जीवन तलाश रहे हैं. इन बच्चों को समाज नाजायज़ करार देता है. सड़क पर जीवन बिताने वाले बच्चों की संख्या हमारे देश में लाखों में है. यह प्रश्न उन तमाम देशों के शासन-प्रशासन व नीति-नियंताओं के लिए चुनौती है, जो कहते हैं कि बालश्रमिक अब न के बराबर हैं.
      यूनिसेफ की मानें तो भारत में सड़कों पर जीवन बसर करने वाले बच्चों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक है, जो भुखमरी के साथ-साथ उपेक्षा, उत्पीड़न और शोषण  के भी शिकार हैं. इतना ही नहीं, इनसे अनैतिक कार्य भी कराये जाते हैं. भीख मांगने, चोरी और शराब बेचने के अलावा जेब काटने जैसे-अनैतिक कार्य इन बच्चों से कराये जाते हैं, जिसकी वजह से इनकी जिंदगी नारकीय बनती जा रही है. पूरे भारत में असामाजिक तत्वों एवं एजेंटों के ज़रिये पैसा कमाने के लिए इन मासूमों का सौदा बेरोकटोक किया जा रहा है. परिणामत: बच्चे भी कच्ची उम्र में शराब, सिगरेट, खैनी, बीड़ी आदि का सेवन करने लगते हैं. दूसरी ओर, बाल मजदूरी निषेधाज्ञा और विनियमन कानून को बने ढाई दशक हो गये, पर बाल मजदूरी के ग्राफ में कमी आने के बजाय 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. सरकार के कुछ प्रभावी प्रोजेक्ट भी बने और चले भी पर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में आकंठ डूबे सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने बच्चों का निवाला ही छीन लिया है, जिसमें प्रमुख रूप से ‘बालश्रिमक विशेष विद्यालय’ और एनजीआरपी योजना’ शामिल हैं, जिसके तहत बालश्रमिकों को मुख्यधारा में लाकर तीन वर्षो का ब्रिज कोर्स पांच रुपए की दर से मध्याह्न भोजन, सौ रु पए छात्नवृति, नियमित स्वास्थ्य जांच एवं वोकेशनल (रोजगारपरक) ट्रेनिंग उपलब्ध कराया जाना था. इसके अलावा सरकार ने अभियान चलाया कि ढाबों, होटलों, मनोरंजन केंद्रों सहित छोट-छोटे धंधों में लगे बच्चों को नौकरी पर रखने वालों को जेल की हवा खानी पड़ेगी. कुछ दिनों तक धड़-पकड़ का अभियान ज़ोरों पर रहा, कुछ समय के बाद अभियान भी बंद हो गया.
       बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के हुस्सेपुर, चांदकेवारी पंचायत के दलित-महादलित व पिछड़े टोलों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथ महानगरों की चकाचौंध में जोखिम भरा काम कर रहे हैं। सरयुग, अर्जुन, टुन्नी, दारोगा (काल्पनिक नाम) आदि बच्चे सूरत (गुजरात), दिल्ली, कोलकता, असम आदि जगहों पर आधी मजदूरी में काम करने को मजबूर हैं. सरयुग प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई छोड़कर घर की माली हालत सुधारने के लिए सूरत कपड़ा फैक्ट्री में नौकरी कर रहा है. दो साल बाद जब घर आया, तो आसपास के अपने स्कूल साथियों के साथ जींस-पैंट और टी-शर्ट में हीरो से कम नहीं दिख रहा था. पूर्व के साथी ने जींस-पैंट पर लिखे अंग्रेज़ी का शब्द पढ़ा, तो सरयुग अवाक् रह गया. अरे, ‘तुम्हें दो साल में अंग्रेजी भी पढ़ने आ गयी. मैं तो एबीसीडी के अलावा कुछ नहीं जाना.’ मित्नों ने कहा, ‘तुम पैसे कमा रहे हो और मैं पढ़ाई कर रहा हूं.’ तुम हीरो दिखते हो और हम सब बच्चे ही दिखते हैं.’ सरयुग घर का इकलौता कमाने वाला है. उसकी कमाई से ही घर-परिवार की गाड़ी चलती है. पढ़ाई से नाता टूटते ही सरयुग समाज, संस्कार, नैतिकता, मां की ममता आदि चीजों से वंचित हो गया. आज वह 13 साल का है और महीने में पांच हज़ार रु पये तक कमाता है. इसके अलावा सरयुग सूरत में गलत लोगों की संगति में आकर शराब, सिगरेट और वयस्क फिल्में देखने का भी आदी हो चुका है.  उससे बात करने पर लगता है कि पूर्णत: वयस्कता प्राप्त कर ली है. हाथ में कीमती मोबाइल पर फूहड़ गीत बजाते हुए गांव-कस्बों से निकलता है, तो तथाकथित समाज के लोग गालियां देते थकते नहीं। पर, भला इसमें सरयुग का क्या दोष? जब उसकी माली हालत खराब हुई तो कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया. किसी ने परिवारवालों को नहीं समझाया कि अभी यह बच्चा है, इसे परदेस कमाने के लिए मत भेजो. इन सवालों में घिरे समाज व सरकार ने आज भी सैकड़ों सरयुग जैसे मासूमों की जिंदगी के सुखद लम्हों को कुम्भलाने के लिए छोड़ दिया है. हमारे समाज में पढ़े लिखे लोगों और समाजसेवियों की कमी नहीं हैं, लेकिन वह भी इनके भविष्य को संवारने की बजाय इनके साथ भेदभाव करने से नहीं हिचकिचाते. सरयुग जैसे अनपढ़ ही देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में बाधक बनते हंै. 
       गौरतलब है कि बाल मजदूरों की लंबी सूची है, जो कुपोषित होने के साथ-साथ भुखमरी के कगार पर है. आज भी हमारे देश में खासतौर से गरीब महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं, तो उनके गर्भ में पल रहे बच्चे स्वस्थ कैसे होंगे ? प्राय: गर्भधारण से लेकर प्रसव के दौरान मरनेवाली महिलाओं की संख्या कम नहीं है. पोषण का सवाल इन बातों से सीधे जुड़े हैं कि बच्चा जन्म ले पायेगा या नहीं और जन्म ले भी लेता है, तो उसे सही पोषण व सम्मानित जीवन जीने का अधिकार मिलेगा या नहीं. यह कहना मुश्किल है. आंकड़े बताते हैं कि 85 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत बच्चे 6 वर्ष से कम उम्र में ही मर जाते हैं
            सबसे आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि खाद्य सुरक्षा व बाल विकास परियोजना के तहत चल रहे ‘आंगनबाड़ी केंद्रों’ पर बच्चों को दिया जाने वाला पोषाहार और अन्य सामग्री सिर्फ नाम मात्न के लिए ही मिलती हैं. बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए आनेवाली सामग्री या तो बेच दी जाती हैं या फिर कागज़ी खानापूर्ति कर दी जाती है.  ऐसे में झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी मिलेगी, कहना मुश्किल है. मौजूदा हालात में ऐसे परिवार अपने बच्चों को पेट की खातिर मजदूरी करने के लिए नहीं भेजंेगे तो क्या करेंगे?
           ज्यादातर बाल मजदूर गरीबी के कारण हजारों की संख्या में अन्य राज्यों में पलायन कर रहे हैं. कमोबेश सभी राज्यों से गरीब, भूमिहीन, आदिवासी, दलित एवं पिछड़ी जातियांे से हजारों की तदाद में बच्चे पलायन कर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि जगहों पर आधी मजदूरी में काम करने को मजबूर हैं. सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्र म 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने की बात करता है. पलायन कर रहे बच्चे या तो अशिक्षित हैं या फिर बीच में ही पढ़ाई छोड़कर अपने पेट की आग बुझाने को विवश हैं. वस्तुत: गरीब के भूखे बच्चों को हाथ से काम छीनकर जबर्दस्ती किताब पकड़वाने से अच्छा होता कि शिक्षा को श्रम से जोड़कर एक नयी परिभाषा गढ़ी जाये. रोटी बिना किताब किस काम की. किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है-
                                  
                                 ‘जब चली ठंडी हवा, बच्चा ठंड से ठिठुर गया।
                                  मां ने अपने लाल की तख्ती (स्लेट) जला दी रात को।’

बुधवार, 13 मई 2015

जमीन के लिए भूमिहीनों की जंग

  • संतोष सारंग

राजेंद्र सहनी मुजफ्फरपुर जिले के कोठिया गांव के रहनेवाले हैं। उन्हें भूमि हदबंदी के तहत 1974 में जमीन का पर्चा मिला। वे मालगुजारी भी दे रहे हैं, लेकिन जमीन का मालिकाना हक आजतक नहीं मिला। जेपी के संघर्ष की भूमि रही मुशहरी के इस गांव के लगभग 208 लोग ऐसे हैं, जिन्हें पर्चा मिला, लेकिन जमीन नहीं मिली। 40 साल में न जाने कितनी अर्जी विभिन्न दफ्तरों में दे चुके होंगे। अंचल से लेकर आयुक्त कार्यालय तक सैकड़ों बार दौड़ लगा चुके ये लोग उबकर कई महीने से आंदोलनरत हैं। 16 जनवरी को बेतिया के तुनिया विशुनपुर गांव के 40 दलित भूमिहीन परिवारों की झोंपडि़यों पर प्रशासन का बुलडोजर चला। कड़ाके की ठंड में ये लोग खुले आसमान के नीचे आ गये। इन परचाधारियों ने करीब आठ साल पहले गांव की एक जमीन पर कब्जा जमाकर झोंपड़ी खड़ी कर ली थी। हालांकि, प्रशासन ने यह कदम हाइकोर्ट के आदेश पर उठाया, लेकिन सवाल उन हजारों भूमिहीन परिवारों के अधिकार से जुड़ा है, जिन्हें बसाने से पहले ही उजाड़ दिया जाता है। यह समस्या सिर्फ एक टोले की नहीं है, बल्कि पूरे राज्य में नासूर बन रही है। जमींदार जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आसमान छूती जमीन की कीमत ने संघर्ष की जमीन तैयार करने में भी खास भूमिका निभायी है।
यह जटिल समस्या आजादी के बाद से आज छह दशक बाद भी बरकरार है। इस अवधि में कई कानून बने, कई कमेटियां बनीं। बटाईदार कानून, सिलिंग एक्ट, चकबंदी जैसे कानून भी भूमिहीनों को बसने के लिए जमीन नहीं दिला पायी। जून 2006 में बिहार में भूमि सुधार आयोग बना। आयोग ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी, लेकिन शत-प्रतिशत अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। बंदोपाध्याय कमेटी की अनुशंसाओं पर भी विवाद छिड़ गया। ‘जमीन किसकी, जोते उसकी’ के नारे एक बार फिर दम तोड़ता नजर आया। बिहार भूदान यज्ञ कमेटी का भी गठन किया गया, लेकिन जमीन वितरण का काम पूरा नहीं हो सका। प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में स्वामी सहजानंद सरस्वती के दबाव में जमींदारी उन्मूलन कानून बना था। तब बंदोबस्ती के बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़े का मामला प्रकाश में आया था। इस बीच बिहार भूमि विवाद के साये में सैकड़ों हिंसक झड़पों को देख चुका है। इसकी माटी लाल होती रही।
नीतीश सरकार ने भूमि समस्या के समाधान का प्रयास किया भी, लेकिन फिर बैकफुट पर आ गयी। एक खास वर्ग सरकार से नाराज हो गया। सरकार को वोट बैंक की चिंता सताने लगी। बिहार वास भूमि नीति के अंतर्गत शहरी क्षेत्र में अनुसूचित जाति, जनजाति के भूमिहीन परिवारों के लिए तीन-तीन डिसमिल जमीन खरीद कर देना है, मगर इसमें भी पेच फंसता रहा है। बीते वर्ष पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट को केंद्र बनाकर 23 समाजसेवियों व एनजीओ संचालकों की एक कोर कमेटी बनायी गयी, ताकि भूमिहीनों को मिली जमीन का विवाद खत्म कराया जा सके। यह कमेटी बेदखली, दाखिल खारिज, भूमिहीनों को वास के लिए तीन डिसमिल जमीन देने एवं जमीन विवाद से जुड़े मुकदमों की सुनवाई की प्रक्रिया पूरी कराने के उद्देश्य से बनायी गयी। प्रश्न है कि सरकार की इच्छाशक्ति के बगैर एक यह कमेटी 57,831 एकड़ अवितरित व 8,48,48 एकड़ अयोग्य गैरमजरूआ आम जमीन तथा 1,62,737 एकड़ जमीन व 10,10,677 एकड़ अयोग्य गैरमजरूआ मालिक भूमि का वितरण कैसे होगा? भूदान की जमीन पर एक लाख के करीब बेदखली का मामला लंबित है। राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री नरेंद्र नारायण यादव का कहना है कि भूमि पर कब्जा दिलाने के लिए सरकार गंभीर है। इस मामले में अब दबंग भू-माफिया पर्चाधारियों के खिलाफ साजिश के तहत 107 व 144 के तहत कार्रवाई नहीं करा सकते हैं।
इधर, मांझी सरकार भी दो कदम आगे बढ़ने की कोशिश में लगी है। आॅपरेशन दखल-दहानी चलाकर गैर मजरूआ (आम व खास), भूदान, वासगीत पर्चा एवं क्रय नीति के तहत आवंटित जमीन ने पर्चाधारियों को उनकी जमीन पर कब्जा दिलाने का डेडलाइन 31 मार्च तय किया है। पर सवाल है कि यह कैसे संभव होगा? राज्य में सरकारी अमीनों की कमी है। 800 अमीनों की बहाली की प्रक्रिया फर्जीवाड़े के खुलासे के बाद फाइलों में अटकी पड़ी है। सीओ व अंचलकर्मी भी इस मसले पर उदासीन नजर आते हैं।
अभी हाल में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी महिला भूदान किसान सम्मेलन में कहा कि पर्चाधारियों को 6 लाख 48 हजार 593 एकड़ जमीन मिली, लेकिन अभी तक राजस्व विभाग ने 3 लाख 45 हजार एकड़ जमीन की ही संपुष्टि की है। एक अनुमान के अनुसार, राज्य में अब भी करीब सवा लाख ऐसे जमींदार हैं, जिनके पास औसतन 45 एकड़ या उससे अधिक जमीन है। करीब 75 भूपतियों के पास 500 से 2000 एकड़ जमीन है। जबकि राज्य में भू-हदबंदी की सीमा 15 से 45 एकड़ तक ही है।
बिहार देश का पहला राज्य है, जहां भूमि सुधार कानून बना। इस कानून को लागू करने को ले सरकारें डरती रही हैं। यह उस राज्य की विडंबना है, जहां के हजारों लोग मजदूरी के लिए हर वर्ष दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, कोलकाता आदि प्रदेशों के लिए पलायन करते हैं। सड़क किनारे तंबू गाड़ कर, अवैध तरीके से सरकारी जमीन पर झोपड़ी खड़ी कर जिल्लत की जिंदगी जीने वालों की पीड़ा कोई सुनने वाला नहीं है। जिला प्रशासन भी बसाने से पहले ही ऐसे लोगों को खदेड़ देता है। बुलडोजर चलवा देता है। भूमिहीनों के वास व आवास का हक छीननेवालों का तर्क होता है कि ये लोग अवैध कब्जाधारी है।  

बातचीत :

1. जमीन के मसले पर काम करनेवाले चंपारण के पंकज बताते हैं कि भूमि दखल-दहानी अभियान क्रांतिकारी अभियान है, लेकिन एकतरफा चल रहा है। एक महीने में राजस्व विभाग ने 13 लाख परर्चाधारियों की सूची जारी की है, जिसमें सिर्फ पश्चिम चंपारण के 1.20 लाख परर्चाधारी हैं। पश्चिम चंपारण में डेढ़ लाख एकड़ जमीन सरप्लस है। 301 सिलिंग के मामले हाइकोर्ट में लंबित हैं। सरकार के पास औजार नहीं है, और चल दिये लड़ाई लड़ने। भूमि की पैमाइश करनेवाले नहीं हैं। पुलिस बल की भी कमी है। सरकार की पार्टी के कार्यकर्ता कैंप में नहीं आते हैं। ऐसे में यह अभियान कैसे सफल होगा।
2. सामाजिक कार्यकर्ता प्रियदर्शी कहते हैं कि चंपारण को छोड़कर अन्य 37 जिलों में लैंड लाॅर्ड सिमट रहे हैं। जमींदारी प्रथा गुलामी प्रथा थी, जो धीरे-धीरे खत्म हो रही है। जमींदार वर्ग कमजोर हुआ है। भूमि के मसले पर सरकार को भूपतियों से नहीं, वैसे एमएलए व एमपी से खतरा रहता है, जो लैंड लाॅर्ड हैं। चंपारण को छोड़कर जो भूमि का संकेंदण था, वह कायम नहीं है। टूट गया। कानून भी कारण है और स्टेट भी। लातेहार, गढ़वा, पलामू, रोहतास उदाहरण हैं, जहां भूपतियों के हाथ से जमीन खिसकी है। राजनीतिक स्तर पर भी क्रांतिकारी तरीके से जमीन का वितरण नहीं हुआ। सरकारें बटाईदारी पर तो हाथ डालती है, सिलिंग पर नहीं।

अलजजीरा के कार्यक्रम से जुड़े लोगों के कमेंट्स


salaam to all the ladies of your newspaper watch you guys on aljazeera very happy to see you girls doing so well i know you are some where in bihar i would like the edotor to keep in touch with me also are you on line you can keep me posted on news in english. all the best to you.
Ebrahim Matvad
E-Mail Address: letstalkpublications@gmail.com
Mobile No: 0792223336
Home: +27 41 4573711
 
date : 09.05.15
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नमस्कार,
आज अल जज़ीरा के 'VIEWFINDER ASIA' कार्यक्रम के अंतर्गत मैंने आपके बारे
में जाना| सबसे पहले तो अाश्चर्य इस बात का हुआ कि हमारे घर के इतने करीब
होते हुए भी किसी विदेशी चैनल से यह जानकारी मिली| पर यह हो सकता है
हमारे यहा़ँ के किसी चैनल ने दिखाया हो और मैं न देख पाया हूँ| जो भी
हो,मैं आप लोगों से काफी प्रभावित हुआ,अौर तुरंत ही आप लोगों से बात करने
की इच्छा उतपन्न हुई|
मैं वैसे तो दिल्ली में रहता हूँ पर बिहार से संबंध होते हुए,वहाँ की
परिस्थितियों के बारे में भी जानकारी रखता हूँ| सामाजिक बुराईयों से
लड़ने में हर कदम महत्वपूर्ण होता है और इसी कारण से आपका कार्य सराहनीय
है|'Mainstream media' ने तो जैसे हमारे गाँवों को भुला सा दिया है...याद
नहीं पिछली बार इन लोगों ने गाँवों से कब रिपोर्ट किया था|ऐसे में हम शहर
वाले अपने गाँव की जानकारी के लिए वहाँ से कभी कभार आए रिश्तेदारों को ही
रिपोर्टर समझ सारी जानकारी मांगने लगते हैं! मसलन अभी हाल में नेपाल में
आए भूकंप से बिहार में भी काफ़ी मौतें हुई,वहाँ भी इमारतों को नुकसान हुआ
होगा..पर वहाँ से रिपोर्टिग कितनी हुई?न के बराबर|


वापस आते हैं.......उस कार्यक्रम में आप लोगों के संघर्ष को दिखाया गया
जिसने मेरे मन में आप लोगों के प्रति काफ़ी सम्मान पैदा किया| आप लोग
काफ़ी अच्छा काम कर रहे हैं...और मुझे काफी प्रसन्नता हुई आप लोगों के
बारे में जानकर|
अगर कभी मुज़फ्फरपुर आना हुआ तो आप लोगों से मिलने का प्रयास अवश्य करूंगा|

धन्यवाद....

विवेक झा <vivekjha173@gmail.com>

 date : 09.05.15

शनिवार, 9 मई 2015

Story on Appan Samachar in Urdu Daily Udaan

स्क्वाल व आर्मी वर्म से तबाह हो गये किसान

  • संतोष सारंग
 बिहार के किसान इस साल दोहरी मार झेल रहे हैं। पहले गेहूं व मक्के की फसलों पर आर्मी वर्म के हमले से किसानों की कमर टूटी। अप्रैल के तीसरे सप्ताह में आई चक्रवाती तूफान ने किसानों की बची-खुची उम्मीदों को भी तरह धो दिया। हजारों किसान बर्बाद हो चुके हैं। माथा पीटने के अलावा उनके पास कोई चारा नहीं है। जिन किसानों ने महाजन से सूद लेकर रबी की खेती की थी, उनकी हालत तो और ही दयनीय हो गयी है।
मार्च महीने में एक नये तरह की कीट आर्मी वर्म ने मुजफ्फरपर, सीतामढ़ी, समस्तीपुर समेत कई जिलों में सैकड़ों एकड़ में लगी मक्के व गेहूं की फसल को चट कर गया। कहीं गेहूं में बाली नहीं आया तो कहीं मक्के में मोचा नहीं निकला। मुजफ्फरपुर में इस कीट से व्यापक क्षति हुई है। बंदरा प्रखंड के सकरी चांदपुरा गांव के किसान उदय सिंह अपने खेतों में लहलहाती मक्के की फसल को रातों-रात बर्बाद होते देख सहन नहीं कर पाये और सदमे में आकर आत्महत्या का प्रयास किया। उदय सिंह ने महाजन व बैंक से कर्ज लेकर गेहूं व मक्के की खेती की थी। वे कहते हैं कि अब जीवित रहकर क्या करेंगे? महाजन का कर्ज कैसे सधायेंगे? कुछ ऐसी ही दास्तां राज्य के सैकड़ों किसानों की है। मुजफ्फरपुर जिले के करीब 10 प्रखंड आर्मी वर्म से प्रभावित हुए, जिसमें बंदरा सर्वाधिक प्रभावित प्रखंड रहा। एक अनुमान के मुताबिक, सिर्फ मुजफ्फरपुर जिले में 11760 हेक्टेयर मक्के की फसल व 74078 हेक्टेयर में खड़ी गेहूं की फसल बर्बाद हो गयी। दलहन व लीची की फसल भी कई जगह चैपट हो गयी। अकेले पूर्वी चंपारण में करीब 40 प्रतिशत लीची बेकार हो गयी। मुजफ्फरपर स्थित राष्ट्रीय लीची अनुसंधान केंद्र के प्रधान वैज्ञानिक डाॅ राजेश कुमार बताते हैं कि उŸार बिहार के जिलों में लीची की फसल पर जलवायु परिवर्तन का असर साफ दिख रहा है। विशेषज्ञ बेमौसम बारिश को फसलों की बर्बादी की वजह मान रहे हैं। पटना स्थिति एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक व प्लांट पैथोलाॅजी विभाग के विभागाध्यक्ष अरविंद कुमार का कहना है कि गेहूं की बालियों व दाने को सुखने व काला पड़ने के पीछे बालियों के पकने से पहले बारिश का होना प्रमुख कारण है। बालियों व दाने के सैंपल की जांच करने के बाद जारी रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन व बेमौसम बारिश को कारण बताया गया है।      
इस साल फरवरी, मार्च व अप्रैल महीने में बिहार के विभिन्न जिलों में कई बार बारिश, आंधी-तूफान व ओलावृष्टि का कहर बरपा। असमय बारिश व ओलावृष्टि से केवल मार्च में 37 जिलों में 35,9,762 हेक्टेयर में लगी रबी की फसल बर्बाद हो गयी। किसानों के जख्म भरे भी नहीं थे कि 21 अप्रैल की रात राज्य के 12 जिलों में अचानक आये आंधी-तूफान व ओलावृष्टि ने किसानों का तबाह कर दिया। 80 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से आये चक्रवात तूफान ‘स्क्वाल’ ने पूर्णिया में 30 मिनट तक तबाही मचायी। पूर्णिया, कटिहार, मधेपुरा, सुपौल, सहरसा, भागलपुर, किशनगंज, मुंगेर, मधुबनी, दरभंगा, सीतामढ़ी में आये चक्रवाती तूफान ने जान-माल को भारी क्षति पहुंचाई। सबसे अधिक पूर्णिया में डेढ़ लाख लोग प्रभावित हुए। प्रभावित जिलों में 50 से अधिक लोग मारे गये एवं 350 से अधिक लोग घायल हए। सैकड़ों घर ध्वस्त हो गये। मानो गरीबों व किसानों के सबकुछ तहस-नहस हो गया। कोठी छोड़ दीजिये, मुट्ठी भर अनाज भी किसान खेतों से बटोर कर नहीं ला पायेंगे।
प्रदेश के कृषि विभाग ने फसल क्षति का जो आकलन किया है, उसके मुताबिक प्रभावित जिलों में 31 लाख 89 हजार 144 हेक्टेयर में खड़ी फसल में 13 लाख 93 हजार 762 हेक्टेयर में 33 प्रतिशत से अधिक की क्षति हुई है। करीब 19.92 लाख किसान पीडि़त हुए हैं। लिहाजा, राज्य सरकार ने तूफान प्रभावित जिलों में जिनके घर ध्वस्त हुए हैं, उनको अनुदान के रूप में 5800 रुपये व एक क्विंटल अनाज देने क घोषणा की है। उधर, संसद में बिहार की तबाह की गूंज सुनायी दी। एक स्वर से बिहार के सांसदों ने इसे राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग की। यह सब फौरी तौर पर राहत देनेवाली बात है, लेकिन बर्बाद हुए किसानों को संकट से उबारने के लिए एक ठोस नीति की जरूरत होगी। क्योंकि पहले से ही यहां के किसानों की किस्मत धान का सरकारी कीमत नहीं मिलने एवं पैक्सों, एसएफसी गोदामों व मिलरों के पेच में फंसकर खराब हो गयी है। कृषि रोडमैप का भी लाभ कुछ बडे किसान ही उठा पा रहे हैं।
आज किसान संकट में हैं। बिहार के किसानों की हालत महाराष्ट्र के किसानों जैसी न हो जाये। वे आत्महत्या को मजबूर न हों, इसके पहले ही कदम उठाने होंगे। सरकार से बड़ी जिम्मवारी नागरिकों की है। प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा हम लगातार भुगत रहे हैं। ग्लोबल वाॅर्मिंग व क्लाइमेट चेंट का सबसे ज्यादा असर फसलों पर देखा जा रहा है। किसानी बचानी है तो मुआवजे के तिनके का सहारा नहीं चलेगा। किसान को भी पर्यावरणप्रेमी बनना होगा।

स्टारडम मिला, जीने का साधन नहीं

  • संतोष सारंग
साधारण परिवार में पैदा हुए मोतिहारी के हनुमानगढ़ी मुहल्ले के सुशील कुमार ने सामान्य ज्ञान के बल पर 2011 में केबीसी सीजन पांच के विजेता बनकर यह साबित कर दिया कि प्रतिभा किसी चीज की मोहताज नहीं होती। अभाव व मुफलिसी में भी इतिहास रचा जा सकता है। बेतिया के चनपटिया प्रखंड में मनरेगा में कंप्यूटर आॅपरेटर की अनुबंध पर 2007 में नौकरी ज्वाइन करने के साथ ही वे ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जीतने के लिए जेनरल नाॅलेज की तैयारी में जुट गये। गणित व अंगरेजी में कमजोर रहने के कारण एसएससी, बैंक, रेलवे में नौकरी नहीं मिल रही थी। सेंट्रल पुलिस फोर्स के असिस्टेंट कमांडर की परीक्षा में भी बैठा। इंटरव्यू तक गये, लेकिन निराशा हाथ लगी। कई प्रतियोगी परीक्षाओं का पीटी पास किया, लेकिन आगे असफल रहे। यही सोचकर केबीसी की तैयारी में जुट गये। और अंततः केबीसी का पांच करोड़ जीत ही लिया। इस बेहतरीन कामयाबी के बाद चंपारण के इस छोरे की झोली में ढेर सारी खुशियां समा गयीं। टैक्स वगैरह काटकर साढ़े तीन करोड़ मिले। सुशील इन पैसों से सबसे पहले घर बनाया। भाइयों को आर्थिक सहयोग देकर बिजनेस शुरू कराया। चार भाई मिलकर डेयरी फाॅर्म, ज्वेलरी की दुकान एवं इलेक्ट्रानिक पाट्र्स की दुकान चला रहे हैं। समय मिलने पर सुशील खुद भाई के कारोबार में मदद करते हैं। सुशील कहते हैं कि बीच में लोगों ने अफवाह फैला दिया था कि केबीसी से मिले सारे पैसे खत्म हो गये। लेकिन ऐसा नहीं है। मैंने जमीन व कारोबार में पैसे इन्वेस्ट किये हैं। इन्हीं पैसों से इस साल जनवरी में मोतिहारी के नक्सल प्रभावित पकड़ीदयाल के सिरहा पंचायत के 40 गरीब बच्चों को पढ़ाने के लिए गोद लिया है। स्कूल फीस, किताबों आदि पर खर्च कर रहे हैं। मित्र मुन्ना, स्थानीय लोग व मुखिया भी मदद कर रहे हैं। शीघ्र एक पुस्तकालय खोलने जा रहा हूं।      
स्टारडम मिलने के बाद भी सुशील को लगता है कि जीवन में कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर सका। वे कहते हैं कि सेलेब्रिटी बनने के बाद बधाइयां तो मिलती रहीं, लेकिन जीवन में आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिला। आज भी लोग मिलने आते हैं और बधाइयां देते हैं। लेकिन इसका नुकसान भी उठाना पड़ रहा है। कैरियर संवारने का समय नहीं मिलता है। 2011 में केबीसी सीजन 5 जीतने के बाद प्लान किया था कि अब सिविल सर्विसेज की तैयारी करूंगा। 2012 में दिल्ली गये। छह महीने रहकर आइएएस की तैयारी में लगे। सेलेब्रिटी के कारण घर पर रोज कोई न कोई मिलने चले आते थे। बिना मिले लौटा भी नहीं सकते थे। उन्हें बुरा लगता। उसी में समय निकल जाता था। कोचिंग भी ज्वाइन नहीं कर सका, यही सोच कर कि घर पर मिलनेवालों का तांता लगा रहता है, तो कोचिंग में क्या होगा। सभी समझते थे कि मैं पढ़ने में बहुत तेज हूं। मगर जेनरल नाॅलेज छोड़कर गणित-अंग्रेजी में कमजोर हूं। यही सोचकर संकोच होने लगा। मैं आइएएस बनने का सपना छोड़कर छह महीने में ही घर लौट गया।
वे कहते हैं कि कोई एचीवमेंट नहीं मिलने से शर्मिंदगी महसूस होती है। केबीसी हाॅटसीट पर बैठकर भले पांच करोड़ जीत लिया। कुछ दिनों तक किस्मत बुलंदियों पर रहा। केबीसी के बाद कलर्स चैनल पर प्रसारित ‘झलक दिखला जा’ में भी भाग लिया। कल्पना में भी नहीं सोचा था कि जीवन में कभी डांस करूंगा। डांस का क, ख, ग भी नहीं आता था। लेकिन सोचा आॅफर मिला है तो देखते हैं किस्मत आजमाकर। दो-तीन महीने मुंबई में रहे। करीब 10 लाख रुपये मिले। वहां मेरे लिए एडजस्ट करना मुश्किल था। सो, फिर बिहार लौट गया। मनरेगा का भी ब्रांड एम्बेस्डर बना। आइडिया का विज्ञापन किया। लेकिन बहुत पैसे नहीं मिले। वे कहते हैं कि हम प्रोफेशनल नहीं बन पाये, इसलिए ब्रेक मिलने के बाद भी बहुत लाभ नहीं मिल पाया। फिलवक्त सुशील मोतिहारी में ही समय बीता रहे हैं। नौकरी की तलाश में हैं।
सुशील बताते हैं कि 2008 में बिहार विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान विषय में एमए किया। बीच में पढ़ाई रुक गयी थी। फिलहाल मैं बीएड कर रहा हूं। बिहार विश्वविद्यालय के दूरस्थ शिक्षा निदेशालय में एमफिल में नामांकन कराया है। नेट की तैयारी में लगा हूं। कैरियर को ले अब मुझे कोई उलझन नहीं है। आगे शिक्षा के क्षेत्र में ही कुछ करना है। लेक्चरर बनूं या प्राथमिक स्कूल का शिक्षक, अब पढ़ाने का ही काम करूंगा। ज्ञान बांटूंगा, क्योंकि समाज का उत्थान शिक्षा, संस्कृति व संस्कार को बढ़ावा देने से ही हो सकता है। समाज में गुरु का स्थान देवता से भी ऊपर है।