बुधवार, 13 मई 2015

जमीन के लिए भूमिहीनों की जंग

  • संतोष सारंग

राजेंद्र सहनी मुजफ्फरपुर जिले के कोठिया गांव के रहनेवाले हैं। उन्हें भूमि हदबंदी के तहत 1974 में जमीन का पर्चा मिला। वे मालगुजारी भी दे रहे हैं, लेकिन जमीन का मालिकाना हक आजतक नहीं मिला। जेपी के संघर्ष की भूमि रही मुशहरी के इस गांव के लगभग 208 लोग ऐसे हैं, जिन्हें पर्चा मिला, लेकिन जमीन नहीं मिली। 40 साल में न जाने कितनी अर्जी विभिन्न दफ्तरों में दे चुके होंगे। अंचल से लेकर आयुक्त कार्यालय तक सैकड़ों बार दौड़ लगा चुके ये लोग उबकर कई महीने से आंदोलनरत हैं। 16 जनवरी को बेतिया के तुनिया विशुनपुर गांव के 40 दलित भूमिहीन परिवारों की झोंपडि़यों पर प्रशासन का बुलडोजर चला। कड़ाके की ठंड में ये लोग खुले आसमान के नीचे आ गये। इन परचाधारियों ने करीब आठ साल पहले गांव की एक जमीन पर कब्जा जमाकर झोंपड़ी खड़ी कर ली थी। हालांकि, प्रशासन ने यह कदम हाइकोर्ट के आदेश पर उठाया, लेकिन सवाल उन हजारों भूमिहीन परिवारों के अधिकार से जुड़ा है, जिन्हें बसाने से पहले ही उजाड़ दिया जाता है। यह समस्या सिर्फ एक टोले की नहीं है, बल्कि पूरे राज्य में नासूर बन रही है। जमींदार जमीन छोड़ने को तैयार नहीं हैं। आसमान छूती जमीन की कीमत ने संघर्ष की जमीन तैयार करने में भी खास भूमिका निभायी है।
यह जटिल समस्या आजादी के बाद से आज छह दशक बाद भी बरकरार है। इस अवधि में कई कानून बने, कई कमेटियां बनीं। बटाईदार कानून, सिलिंग एक्ट, चकबंदी जैसे कानून भी भूमिहीनों को बसने के लिए जमीन नहीं दिला पायी। जून 2006 में बिहार में भूमि सुधार आयोग बना। आयोग ने सरकार को रिपोर्ट सौंपी, लेकिन शत-प्रतिशत अमलीजामा नहीं पहनाया जा सका। बंदोपाध्याय कमेटी की अनुशंसाओं पर भी विवाद छिड़ गया। ‘जमीन किसकी, जोते उसकी’ के नारे एक बार फिर दम तोड़ता नजर आया। बिहार भूदान यज्ञ कमेटी का भी गठन किया गया, लेकिन जमीन वितरण का काम पूरा नहीं हो सका। प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह के कार्यकाल में स्वामी सहजानंद सरस्वती के दबाव में जमींदारी उन्मूलन कानून बना था। तब बंदोबस्ती के बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़े का मामला प्रकाश में आया था। इस बीच बिहार भूमि विवाद के साये में सैकड़ों हिंसक झड़पों को देख चुका है। इसकी माटी लाल होती रही।
नीतीश सरकार ने भूमि समस्या के समाधान का प्रयास किया भी, लेकिन फिर बैकफुट पर आ गयी। एक खास वर्ग सरकार से नाराज हो गया। सरकार को वोट बैंक की चिंता सताने लगी। बिहार वास भूमि नीति के अंतर्गत शहरी क्षेत्र में अनुसूचित जाति, जनजाति के भूमिहीन परिवारों के लिए तीन-तीन डिसमिल जमीन खरीद कर देना है, मगर इसमें भी पेच फंसता रहा है। बीते वर्ष पटना स्थित एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट को केंद्र बनाकर 23 समाजसेवियों व एनजीओ संचालकों की एक कोर कमेटी बनायी गयी, ताकि भूमिहीनों को मिली जमीन का विवाद खत्म कराया जा सके। यह कमेटी बेदखली, दाखिल खारिज, भूमिहीनों को वास के लिए तीन डिसमिल जमीन देने एवं जमीन विवाद से जुड़े मुकदमों की सुनवाई की प्रक्रिया पूरी कराने के उद्देश्य से बनायी गयी। प्रश्न है कि सरकार की इच्छाशक्ति के बगैर एक यह कमेटी 57,831 एकड़ अवितरित व 8,48,48 एकड़ अयोग्य गैरमजरूआ आम जमीन तथा 1,62,737 एकड़ जमीन व 10,10,677 एकड़ अयोग्य गैरमजरूआ मालिक भूमि का वितरण कैसे होगा? भूदान की जमीन पर एक लाख के करीब बेदखली का मामला लंबित है। राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री नरेंद्र नारायण यादव का कहना है कि भूमि पर कब्जा दिलाने के लिए सरकार गंभीर है। इस मामले में अब दबंग भू-माफिया पर्चाधारियों के खिलाफ साजिश के तहत 107 व 144 के तहत कार्रवाई नहीं करा सकते हैं।
इधर, मांझी सरकार भी दो कदम आगे बढ़ने की कोशिश में लगी है। आॅपरेशन दखल-दहानी चलाकर गैर मजरूआ (आम व खास), भूदान, वासगीत पर्चा एवं क्रय नीति के तहत आवंटित जमीन ने पर्चाधारियों को उनकी जमीन पर कब्जा दिलाने का डेडलाइन 31 मार्च तय किया है। पर सवाल है कि यह कैसे संभव होगा? राज्य में सरकारी अमीनों की कमी है। 800 अमीनों की बहाली की प्रक्रिया फर्जीवाड़े के खुलासे के बाद फाइलों में अटकी पड़ी है। सीओ व अंचलकर्मी भी इस मसले पर उदासीन नजर आते हैं।
अभी हाल में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी महिला भूदान किसान सम्मेलन में कहा कि पर्चाधारियों को 6 लाख 48 हजार 593 एकड़ जमीन मिली, लेकिन अभी तक राजस्व विभाग ने 3 लाख 45 हजार एकड़ जमीन की ही संपुष्टि की है। एक अनुमान के अनुसार, राज्य में अब भी करीब सवा लाख ऐसे जमींदार हैं, जिनके पास औसतन 45 एकड़ या उससे अधिक जमीन है। करीब 75 भूपतियों के पास 500 से 2000 एकड़ जमीन है। जबकि राज्य में भू-हदबंदी की सीमा 15 से 45 एकड़ तक ही है।
बिहार देश का पहला राज्य है, जहां भूमि सुधार कानून बना। इस कानून को लागू करने को ले सरकारें डरती रही हैं। यह उस राज्य की विडंबना है, जहां के हजारों लोग मजदूरी के लिए हर वर्ष दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, कोलकाता आदि प्रदेशों के लिए पलायन करते हैं। सड़क किनारे तंबू गाड़ कर, अवैध तरीके से सरकारी जमीन पर झोपड़ी खड़ी कर जिल्लत की जिंदगी जीने वालों की पीड़ा कोई सुनने वाला नहीं है। जिला प्रशासन भी बसाने से पहले ही ऐसे लोगों को खदेड़ देता है। बुलडोजर चलवा देता है। भूमिहीनों के वास व आवास का हक छीननेवालों का तर्क होता है कि ये लोग अवैध कब्जाधारी है।  

बातचीत :

1. जमीन के मसले पर काम करनेवाले चंपारण के पंकज बताते हैं कि भूमि दखल-दहानी अभियान क्रांतिकारी अभियान है, लेकिन एकतरफा चल रहा है। एक महीने में राजस्व विभाग ने 13 लाख परर्चाधारियों की सूची जारी की है, जिसमें सिर्फ पश्चिम चंपारण के 1.20 लाख परर्चाधारी हैं। पश्चिम चंपारण में डेढ़ लाख एकड़ जमीन सरप्लस है। 301 सिलिंग के मामले हाइकोर्ट में लंबित हैं। सरकार के पास औजार नहीं है, और चल दिये लड़ाई लड़ने। भूमि की पैमाइश करनेवाले नहीं हैं। पुलिस बल की भी कमी है। सरकार की पार्टी के कार्यकर्ता कैंप में नहीं आते हैं। ऐसे में यह अभियान कैसे सफल होगा।
2. सामाजिक कार्यकर्ता प्रियदर्शी कहते हैं कि चंपारण को छोड़कर अन्य 37 जिलों में लैंड लाॅर्ड सिमट रहे हैं। जमींदारी प्रथा गुलामी प्रथा थी, जो धीरे-धीरे खत्म हो रही है। जमींदार वर्ग कमजोर हुआ है। भूमि के मसले पर सरकार को भूपतियों से नहीं, वैसे एमएलए व एमपी से खतरा रहता है, जो लैंड लाॅर्ड हैं। चंपारण को छोड़कर जो भूमि का संकेंदण था, वह कायम नहीं है। टूट गया। कानून भी कारण है और स्टेट भी। लातेहार, गढ़वा, पलामू, रोहतास उदाहरण हैं, जहां भूपतियों के हाथ से जमीन खिसकी है। राजनीतिक स्तर पर भी क्रांतिकारी तरीके से जमीन का वितरण नहीं हुआ। सरकारें बटाईदारी पर तो हाथ डालती है, सिलिंग पर नहीं।

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