मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

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शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

प्रभाष जोशी का मशाल जलाकर ऐसे जाना !

संतोष सारंग
प्रभाष जोशी क्रिकेट पर खूब लिखे। इस जुनूनी खेल के वे रसिया थे। क्रिकेट देखना, सुनना और इस पर बातें करना उन्हें भाता था। सचिन के जबरदस्त प्रशंसक थे। वे नवंबर को हैदराबाद के उप्पल मैदान में चल रहे क्रिकेट की उस पारी के टीवी स्क्रीन के जरिय गवाह बनना चाह रहे थे, जिसमें क्रिकेट के देवता कहे जाने वाले सचिन के द्बारा एक और विश्व्क्रीतिमान बनने वाला था। सत्रह हजार रन का कीर्तिमान बना भी और १७५ रन की एक शानदार पारी भी खेली, लेकिन वे भारत को हार से नहीं बचा पाय। शायद गाजियाबाद में अपने घर में टीवी पर क्रिकेट का लुत्फ़ उठा रहे प्रभाष जोशी को इस हार का गम बर्दाश्त नहीं हो सका। सचिन के आउट होने के साथ ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी। अस्पताल ले जाने पर चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। ह्रदयगति रुकने से उनके निधन का समाचार मिला। यह ख़बर सुनकर मैं अवाक् रह गया। इसके साथ ही गंभीर व साफ़-सुथरी पत्रकारिता के एक युग का अंत हो गया, क्योंकि समकालीन पत्रकारिता के दो स्तम्भ शरद जोशी व राजेन्द्र माथुर पहले ही संसार छोड़ चुके हैं।
मुझे वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से पहली बार मिलने-सुनने का सौभाग्य इसी साल प्राप्त हुआ था। पटना स्थित गांधी संग्रहालय में १२ जून को " स्वर्गीय रामचरित्र सिंह मेमोरियल लेक्टर" के तहत "लोकतंत्र का धता चौथा स्तम्भ" विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया था। वरिष्ट पत्रकार हरिवंशजी एवं गाँधी संग्रहालय के सचिव रजी अहमद भी मंचासीन थे। प्रभाष जी को सुनने के लिय मैं मुजफ्फरपुर से पटना पहुँचा था। सभागार खचाखच भरा था। लोग उन्हें खड़े होकर सुन रहे थे। सनद रहे की उनहोंने पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान मीडिया के नए एजेंडे (पार्टी प्रत्याशियों से लाखों रुपए का पॅकेज बेचकर चुनावी खबरें छापने की) के ख़िलाफ़ मुहीम छेड़ दी थी। इसी कड़ी में देशभर में घूम-घूमकर अखबारों के गिरते स्तर, चरित्र और बिकाऊ रवैये के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान को लेकर पटना पहुंचे थे। नवोदित पत्रकारों ने उनसे कई सवाल पूछे। एक ने सवाल किया की आप कहते हैं, पत्रकारों को ईमानदारी से काम करना चाहिय, लेकिन प्रखंड से रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को दस रुपये प्रति ख़बर मिलते हैं, ऐसे में उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं। इस पर प्रभाष जी ने दो-टूक जवाब दिया की दलाली करना पत्रकारिता की मजबूरी नहीं है। वे मानते थे की पत्रकारिता साधना है, तपस्या है, मिशन है, संघर्ष के कंटीले पथ हैं। जिन्हें पैसे व ऐशो-आराम चाहिय, उन्हें इस क्षेत्र में नहीं आना चाहिय। उनके इस मुहीम में देश के कई वरिष्ठ सम्पादक शामिल थे। हरिवंश जी, वीजी वर्गीज, कुलदीप नैयर जैसे लोग उनके मुहीम में साथ दे रहे थे।
नए दौर के युवा मीडियाकर्मियों के लिए महानतम पत्रकार प्रभाष जोशी आदर्श रहेंगे। वे नहीं रहे। उनके द्वारा जलाए गए मशाल तो जलते ही रहेंगे। जाते-जाते हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक मिशाल कायम कर गए। एक संदेश छोड़ गए की दुसरे की प्रशंसा-आलोचना करने वाला मीडिया को अपने अन्दर भी झांकना चाहिए और ख़ुद से लड़ने का माद्दा भी पैदा करना चाहिए, जैसा की उनहोंने किया। पत्रकारिता में रहते हुए पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के ख़िलाफ़ आवाज बुलंद की। वे कहते थे की हमें कभी पत्रकारीय धर्म को नहीं छोड़ना चाहिय। चुनाव के समय अखबार कसौटी पर होता है। चुनाव के समय सही प्रत्याशियों के चयन में मीडिया लोगों के लिय आईने की तरह होता है। यदि वाही पैसे लेकर अच्छे को बुरे और बुरे को अच्छा लिखने लगे तो लोकतंत्र का क्या होगा। लोकतंत्र के ढहते इस चौथे स्तम्भ को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए वे असमय चल दिए, यह पत्रकारिता जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
जनसत्ता के संस्थापक सम्पादक रहे प्रभाष जोशी के चर्चित स्तम्भ "कागद कारे" समसामयिक राजनीतिक उतार-चदाव, सामाजिक घटनाक्रमों एवं इतिहास बनते वक्त के नब्ज को टटोलने वाले प्लेटफोर्म तथा जनाकांक्षाओं व जनसंघर्षों को आवाज देने वाला स्तम्भ के रूप में दर्ज किया जायगा। इंदौर में जन्मे प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। उनकी कलम ने कभी सत्ता को सलामी नहीं दी। लेखन को कभी स्वार्थ सिद्ध करने का माध्यम नहीं बनाया। हम ऐसे निर्भीक, ईमानदार, निष्पक्ष व यस्शवी लेखक-पत्रकार को सच्ची श्रद्धांजली देते हैं ! (साभार-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी)

बुधवार, 4 नवंबर 2009

...तो फिर क्यों न बन जायें माओवादी

अंग्रेज के ज़माने में कलकत्ता से लुटियन की दिल्ली में स्थानांतरित हुए देश के सर्वोच्च सत्ता प्रतिष्ठान का सफर सौ साल पूरा करने के करीब है। इस बीच यमुना में ढेर सारा पानी भी बह चुका है और आज स्थिति यह है कि दिल्ली में जमा होते कचरे को ढोते-ढोते यमुना ख़ुद गन्दी हो चुकी है। यमुना तो गन्दी हुई ही लुटियन द्वारा निर्मित सर्वोच्च संस्था संसद भवन के गलियारे से निकली राजनीति की लगभग तमाम धाराएं भी गन्दी हो चुकी है। दिल्ली का दिल दलगत राजनीति के विकृत वाणों से छलनी हो चुका है। अब तो लूट, स्वार्थपरक राजनीति, वंशवाद का बेल, सत्ता व कुर्सी का घिनौना खेल लोकतंत्र के निचले पायदान तक पहुँच चुका है। स्थानीय स्वशासन यानि पंचायती राज व्यवस्था भी उच्च सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, राजनीतिक सिद्धांतों के ढहते प्रतिमानों का साक्षात्कार करता हुआ दलाली, आर्थिक अनियमितताओं एवं लूट-खसोट की संस्कृति को समृद्ध करने में लग गया है। शासन-प्रशासन की राजसी और तानाशाही कार्यशैली से आहत जनता उग्र हो रही है। हुक्मरानों-हाकिमों की कुम्भकर्णी निद्रा तोड़ने के लिए की जानेवाले लोकतांत्रिक आन्दोलनों, यथा-धरना-प्रदर्शनों, उपवास, मौन-जुलूस आदि का असर भी कुंद पङता जा रहा है। अपनी मांगों को लेकर धरना दे रहे आम नागरिकों के ज्ञापनों पर अमल करने की फुर्सत अब जिलाधिकारियों को नहीं रही। पंचायत, प्रखंड, थाने, जिला मुख्यालय होता हुआ एक निरीह आदमी मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक चला जाता है। अपनी शिकायतें केन्द्रीय मंत्रालयों, आयोगों को लिखता हुआ वह थक जाता है, पर न्याय नहीं मिलता है। थका-हारा वह असहाय आदमी भटकता है, तलाशता है किसी मसीहा को। अंततः सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता "भिक्षुक" का किरदार निभाने को मजबूर हो जाता है तो कहीं से एक किरण दिखाई पड़ती है, जिसे हम नक्सलवाद का लाल सिपाही कहते हैं। मरता क्या नहीं करता। फिर वह बन्दूक उठाता है और बन जाता है खुनी क्रांति का एक भटका हुआ सिपाही।

शनिवार, 31 अक्टूबर 2009

यूपी से एमपी पहुँचा सीऍफ़एल



धरती की तपन से अब सरकार के भी पसीने छुटने लगे हैं। जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए केन्द्र के साथ-साथ राज्य सरकारें भी गंभीर दिख रही हैं। हम धन्यवाद देते हैं बहनजी (मायावती) को, जिनके शासन ने यूपी में सभी सरकारी दफ्तरों में विद्युत ऊर्जा बचत के लिए पहल शुरू कर दी है। पिछले दिनों मीडिया में खबरें आई थीं कि यूपी सरकार ने सभी कार्यालयों में लटके बल्बों को हटाकर सीऍफ़एल लगाने का आदेश जारी किया है तो पर्यावरण प्रेमियों को प्रसन्नता जरूर हुई होगी। यूपी के बाद अब मध्य प्रदेश इस कड़ी में शामिल हो गया है। वहां की सरकार ने इसी महीने (अक्टूबर) उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अपने सभी कार्यालयों में सीऍफ़एल के प्रयोग की पहल शुरू कर दी है। निःसंदेह, दोनों सरकारें धन्यवाद की पात्र हैं। अन्य राज्यों को भी कुछ ऐसा ही कदम उठाना चाहिय पर्यावरण संरक्षण की लिए। सीऍफ़एल (कोम्पैक्ट फ्लूरेसेंट लाइट) के प्रयोग के मुख्यतः दो फायदे हैं। पहला, इससे विद्युत ऊर्जा की काफी बचत होती है तो दूसरे ओजोन छतरी को नुकसान पहुंचाने वाले अवयव कार्बन का उत्सर्जन भी कम जाता है। यह जानते हुए भी लोगों की पहुँच सीऍफ़एल तक नहीं हुई है, क्योंकि इसकी कीमत अत्यधिक है। ६० वाट का साधारण बल्ब ५-६ रुपये में बाज़ार में उपलब्ध हैं। इसलिए आम उपभोक्तायों का घर इसी बल्ब से रौशन होता है। सीऍफ़एल की कीमत कम हो इसके लिय सरकार व् बल्ब बनाने वाली कंपनियों के बीच कुछ ठोस एवं ईको-फ्रेंडली नीति पर काम होना चाहिय। इसको लेकर जागरूकता की भी कमी है।
आईये, हम सब मिलकर बल्बों, ट्यूबलाईट व् अधिक ऊर्जा खपत कराने वाले बल्बों को टा-टा कहें और सीऍफ़एल के प्रयोग की ओर कदम बढाएं। एक विन्रम निवेदन है की ख़ुद ईको-फ्रेंडली (पर्यावरण मित्र) बने और दूसरे को भी इसके लिए प्रेरित करें। बेवजह दिन में जलते स्ट्रीट लाईट को बिना शरमाय जरूर स्विच ऑफ़ करें। एसा अपने घर में भी करें। ऊर्जा बचत के साथ पैसा का भी बचत होगा और कार्बन उत्सर्जन भी कमेगा।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009

मूढ़ मानुष गाँधी को क्या जाने

गाँधी पूर्ण आध्यात्मिक व ईश्वरीय व्यक्ति थे, जिन्हें समझना एक व्यक्ति के लिए उतना ही कठिन है जितना परमेश्वर के तत्वज्ञान को जान पाना। जो मूढ़ मानूष आजतक ख़ुद को, अपने अंतर्मन को, अपनी अंतरात्मा को, जीवन व प्रकृति के गूढ़ रहस्यों से अपरिचित रह अधकचरे ज्ञान के अहम् में मस्त है, भला उसे ईश्वर सत्ता के मर्म की समझ कहाँ होगी? सुकरात, ईसा मसीह की तरह गांधी को भी यह भौतिक जगत नहीं पचा सका, क्योंकि ये महामानव जाति, धर्म, वर्ण, भाषा, ऊंच-नीच, वाद, क्षेत्र में बंटे इस जगत को भी हमेशा प्रकृति के मूल तत्व की कसौटी पर कसकर देखा। हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि में भेद न कर गांधी ने आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर खुद को विराजमान किया। और यही जीवन का सार तत्व भी है, लेकिन रंग, वर्ण, धर्म में बांटकर समाज में जहर फैलाने वाले लोगों को गांधी नहीं सुहाए। प्राण त्यागने के समय भी गांधी की जुबान से 'हे राम' निकला। इससे समझा जा सकता है कि गांधी का जीवन परम ज्ञान व ब्रह्म शब्द से कितना पिरोया हुआ था। 'ईश्वर-अल्लाह तेरो नाम...' प्रार्थना व गीता का संसर्ग उनके अन्दर दिव्य शक्ति पैदा किया था। आज के युवा कही-सुनाई बातों को लेकर गांधी को बुरा-भला कहते हैं। बुरा-भला वही कहते हैं जो मूढ़ हैं, जो अधकचरे ज्ञान से भरे हैं, जो जीवन जीने की कला आज तक नहीं सीख पाए। हिंदुत्व, इस्लामियत, ईसाइयत, यहूदियत आदि धर्मों का झंडा ढोने वाला कभी दिव्य पुरूष हो ही नहीं सकता, क्योंकि हरेक धर्म का सार है-सत्य का धारण करना। और सत्य सिर्फ़ वही है जो प्रकृति से उत्पन्न है। कोई भी धर्म हिंसा, घृणा या इंसानों को बांटने का संदेश नहीं देता है। चालाक इंसान यानि धर्मावलम्बी अपनी मठाधियत बरकरार रखने की लिए धर्म को अपने-अपने ढंग से परिभाषित कर समाज को बांटने का काम किया है। युवाओं, पहले गांधी के जीवन व कर्म का अध्ययन करो। ख़ुद तो अपने तक सिमटे रहे। जनकल्याण के लिए एक तिनका भी खर्च नहीं किया आजतक और चल दिए आलोचक बनने। अरे, गांधी तो दक्षिण अफ्रीका से लेकर भारत को आजाद करवाने एवं अस्पृश्यता के खिलाफ लंबी लडाई का शंखनाद किया। अपना पूरा जीवन देश के लिए झोंक दिया। भारतवासियों ! अपने गांधी को तुम गाली देते रहो, दुनिया तो पूज रही है न। क्योंकि तुम अधकचरे हो और दुनिया बुद्धिमान। दुनिया हीरे को पहचानती है। तभी तो संयुक्त राष्ट्र संघ गांधी जयंती को 'अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस' घोषित किया। गांधी का सिद्धांत 'सत्य व अहिंसा' ही अन्तिम सत्य है, तुम्हारा सिद्धांत चाहे हिंदुत्व का हो या इस्लामियत का मिट जाने वाला है। हिंदुत्व के झंडाबरदारों, मुझे यह तो बताओ की फिर अछूत-पिछडे-दलित-हरिजन क्या हिंदू नहीं है? यदि है तो कहाँ लगाते हो उसे गले। न तुम्हारे संगठन में, न तुम्हारी पार्टी में और न तुम्हारे किसी समारोहों में दीखते हैं ये लोग। यह ढोंग असली हिंदू समझ गया है। सच्चे मुसलमान, हिंदू या सिख, ईसाई के लिए तो सारा संसार उसका अपना है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' ही उसका नारा है। गाँधी भी तो इसी बुनियाद पर खड़े थे।

सोमवार, 19 अक्टूबर 2009

कंसा के लोगों से सीख तो लो आतिशबाजों


हम इतने पिछडे क्यों है ? क्योंकि हम शिक्षित हैं। हमसे अच्छा तो अनपढ़ है, जो जानकारी व ज्ञान के अभाव के बावजूद हमसे ज्यादा समझदार हैं, इको फ्रेंडली हैं। हम बुद्धिजीवी जो ठहरे। भला कुल्हड़ में चाय क्यों पियें, कपडे के झोले में सब्जी क्यों धोएं, सायकिल क्यों चलायें ? प्लास्टिक के कप में चाय पीना, पालीथीन में सब्जी ढोना, बाईक-कार चलाना, एसी कमरे में रहना बड़े लोगों का स्टेटस सिम्बल जो है। ये तथाकथित पढाकू लोग अपना लाइफ स्टाइल चेंज नहीं करेंगे, क्योंकि फटाफट जिंदगी जीने में विश्वास करते हैं, भाड़ में जाए पर्यावरण, प्रकृति और प्राणी जगत।
भई, पैसे वाले ये हैं तो आतिशबाजी करेंगे गरीब के बच्चे ! लखनऊ की युगरत्न जैसी नन्हीं लड़की संयुक्त राष्ट्र में जाकर पर्यावरण को बचाने की अपील करती है, इसके बावजूद शर्म नहीं आती इन स्वार्थी व एशो-आराम की जिंदगी जीने वालों को। पूरी दुनिया में पर्यावरण को हो रहे नुकसान व उसे बचाने की मुहीम के बीच भी इस बार की दिवाली में बच्चे तो बच्चे बड़े भी करोड़ों के बम-पटाखें उडाये।
इस बार की दिवाली मैंने गुवाहाटी में मनाई। एक पत्रकार मित्र ने कहा कि अखबार का पेज छोड़ने के बाद खूब पटाखे उडायेंगे। मैंने उनसे कहा, भाई साहब पर्यावरण पहले से जख्मी है फिर उसे क्यों जख्मी करने पर तुले हैं ? तो उन्होंने हंसते हुए कहा, क्या सारंग जी आप भी कहाँ चले जाते हैं? मैंने इस बार तेवर में कहा, जब हम पड़े-लिखे लोग ही जानबूझ कर गलती करेंगे तो बाकि लोग क्या अनुसरण करेंगे ? उस वक्त तो उन पर असर हुआ पर रात में दस बम उडाये ही। हालाँकि इसी बीच देशभर से कुछ अच्छी खबरें भी आई है। गुजरात के मेहसाना जिले के एक गाँव कंसा के लोगों ने इस बार आतिशबाजी न कर पर्यावरण रक्षा का संदेश दे गए। एक ग्रामीण रमेश भाई का कहना है की यह समय पर्यावरण संरक्षण का है और इसके प्रति जागरूकता लाने का। उन्होंने दावा किया की उनके गाँव में दुकानों पर पटाखे नहीं बिकते हैं और दिवाली के दिन आतिशबाजी की बजाय खेल और सांस्कृतिक आयोजन किया जाता है।
लिहाजा, पर्यावरण की रक्षा केवल सरकार के बूते की बात नहीं है। इस विषय पर सरकार की नीति भी अव्यवहारिक है। वह गुटखा की बिक्री पर प्रतिबन्ध तो लगाती है पर गुटखा बनाने वालों पर नहीं। सिगरेट पीने वालों पर जुर्माना लगाती है पर निर्माताओं को खुली छूट दे रखी है। पटाखे उडाने वालों पर अंकुश लगाना चाहती है, लेकिन शिवाकाशी (पटाखा फैक्ट्री) में कोई हस्तक्षेप नहीं। बिसलेरी बोतलों व प्लास्टिक कचरों का धरती पर अम्बार लगता जा रहा है लेकिन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की नजर इन पर नहीं पड़ती है। खैर, ख़ुद जनता जाग जाय तो सरकारी पहल की कोई जरूरत नहीं।
आईये, हम भी संकल्प लें कि आनेवाले पर्व को इको-फ्रेंडली तरीके से मनाएंगे और पड़ोसियों से भी अनुनय-विनय करेंगे ऐसा ही कुछ कराने के लिए। बच्चों, तुम भी आगे आओ पर्यावरण को बचाने के लिए और एक हिस्सा बन जाओ इस मुहीम का।


बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

धरती संकट में : जल के लिए तरसेंगे लोग

सुनामी की लहरें लाखों परिवारों को निगल जाती हैं। बुंदेलखंड में हजारों परिवार सिर्फ़ इसलिए पलायन कर गए/रहे हैं, क्योंकि वहां के कुएं सुख गए हैं, हैण्ड पम्प में पानी नहीं आ रहा है। बेतहाशा गर्मी बढ़ रही है। कुछ इन्हीं सवालों पर एक गहरी नज़र :-
आज पूरी दुनिया में करीब एक अरब लोगों को पानी नहीं मिलता है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका, ब्राजील जैसे लगभग तमाम विकासशील देशों में तक़रीबन २२ लाख लोग गंदे पानी से पैदा होने वाली बीमारियों के कारण मौत की शरण में चले जाते हैं। धरती के सम्पूर्ण जल में साफ पानी का प्रतिशत ०.३ से भी कम है। आने वाले अगले २० वर्षों में खेती, उद्योग सहित अन्य क्रियाकलापों के लिए ५७ फीसदी अतिरिक्त जल की आवश्यकता होगी। पर्यावरणविदों की भविष्यवाणी है कि २०२५ तक एक-तिहाई देशों में रहने वाली विश्व की दो-तिहाई आबादी पानी के गंभीर संकट से जूझती नजर आएँगी। कोई दो राय नहीं कि तब दुनिया पानी के लिए युद्ध रत होंगे।
भारत के अलग-अलग राज्यों से आ रही खबरों ने भी जल संकट को लेकर भारतीयों को आगाह करना शुरू कर दिया है। छत्तीसगढ़ के बुंदेलखंड जल संकट के गंभीर दौर से गुजर रहा है। जल के लिए लोग पलायन करने पर मजबूर हुए। पूर्वोत्तर का द्वार कहलाने वाले आसाम के गुवाहाटी में भी जल की समस्याएं घेर रही हैं। इस साल मेघों के प्रदेश मेघालय में भी औसत से कम बारिश हुई। यह ग्लोबल वार्मिंग का ही असर है। बिहार में भी जल संकट बढ़ रहा है। पिछले दिनों मुजफ्फरपुर प्रमंडल के भूगर्भ जल सर्वेक्षण विभाग ने मुजफ्फरपुर, वैशाली, समस्तीपुर, पूर्वी चंपारण के कुछेक प्रखंडों में भूगर्भ जल की उपलब्धता पर सर्वे कराया। सर्वे से जो तथ्य सामने आए वह राज्य में बढ़ते जल संकट की ओर इशारा करता है। इन प्रखंडों में जितना पानी जमा होता है उससे ७० % अधिक पानी निकल रहा है। यानि पानी के रिचार्ज और ड्राफ्ट का अन्तर ७० % का है। समय से पूर्व नहीं चेता गया तो आने वाले दिनों में उत्तर बिहार के लोग भी पानी के लिए तरसेंगे । खेत, चापाकल, कुएं सूख जायेंगे।
डोली-कहार की परम्परा ख़त्म हो गयी। बैलों के समूह से गेंहू दौनी का चलन बंद हो गया। धेकुल से खेतों में पानी पटाना छोड़ दिया किसानों ने। जानवरों के मरने पर गिद्धों का मंडराना दिखाई नहीं देता। शीशम के पेड़ लुप्त हो रहे हैं। मिटटी के बर्तन का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया, जो प्रकृति के लिए नुकसानदेह हो रहा है। यूँ कहे की आदमी अपनी पुरानी चीजों को छोड़कर तथाकथित विकास की रफ्तार के साथ अंधी दौड़ लगा रहा है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी । प्रकृति और जीवन ही नहीं रहेगा तो विकास का क्या मतलब ? जिस प्रकृति ने हमें शुद्ध पेयजल, हवा और हरियालियुक्त धरती दी है, उसे आदमी ने भौतिक सुख-सुविधायों की प्राप्ति के लिए अनेक कल-कारखाने लगाकर उसे प्रदूषित कर किया है। वनों को काटकर सुंदर शहर बसाया जा रहा है, मॉल स्थापित की जा रही है। मुंबई को पेरिस बनाने वाले भारत के नीति-निर्धारकों को पता होना चाहिय की आने वाले समय में मुंबई पानी में डूबने जा रहा है। इसका संकेत भी मिलना शुरू हो गया है।
कृषि और पर्यावरण एक-दूसरे के पूरक है। हरित क्रांति लाने के चक्कर में किसानों ने अन्धाधुन्ध तरीके से रासायनिक खादों, कीटनाशकों का प्रयोग करना शुरू किया। इसका कुपरिणाम पर्यावरण को झेलना पड़ रहा है। इसके प्रयोग से जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हुई, जीव-जन्तुयें मरने लगे, लोगों और जानवरों के सेहत पर असर पड़ रहा है। पंजाब के कई गाँव में रासायनिक खाद आदि के प्रयोग से वहां का पानी जहरीला हो गया है। कृषि उत्पादन घटा है। अतः एकबार फिर हमें जैविक खेती की ओर मुड़ना होगा। जरूरत है हम सबकों एकजूट होकर पर्यावरण को बचाने के मुहीम में जुटाने की। हरेक आदमी पेड़ रोपना एवं जल का संरक्षण करना अपना धर्म समझे।

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

हम जन्नत यहीं बनायेंगे

- प्रोफ़ेसर निराला वीरेन्द्र
अपनी मिहनत और मशक्कत से, आसमां को झुकायेंगे
सब्र रख ये अहले चमन, हम जन्नत यहीं बनायेंगे ।

सेहरा में सैर अपनी है, जलन तो जरूर होगी
पांव में छाले होंगे, मगर मुस्कुराएंगे ।

माना कि एक धुंध में दबे पड़े हैं हम,
लेकिन इंकलाबी फूंक से, हम इसे उडाएंगे।

ये जुनूने इश्क है, इसका नशा उतरेगा क्या
हद से गुजरने का फन, हम तुम्हें सिखायेंगे।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

कब तक बिकेंगे आप

संतोष सारंग
कौन कहता है कि पत्रकार बिकते नहीं हैं। पत्रकार भी बिकते हैं एकदम मोल के भाव। कौन कहता है कि कलम गिरवी नहीं रखी जाती है चंद सिक्कों की खातिर। कलम सच उगलती थी, पर बाजारवाद ने कलम को झूठ उगलना सिखला दिया। जिस पत्रकार की कलम सच उगलती है, उसकी हाथ कट ली जाती है। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का जमाना चला गया। प्रोफेशनल पत्रकारिता का युग चल रहा है। जो पत्रकार ब्लैक मनी पर पल रहे पदाधिकारियों एवं भ्रष्ट नेताओं की चमचागिरी करते हैं, वे उतने बड़े पत्रकार होते हैं। मंगरू मांझी भूख से बिलबिलाकर मरे तो चंद लाइन की ख़बर अन्दर के पेज पर छपती है। कोई भ्रष्ट व अपराधी किस्म का नेता बयान जारी कर दे तो मुख पृष्ठ की ख़बर बन जाती है। मंगरू की मौत बिक नहीं सकती न, इसलिय। नेताजी तो विज्ञापन देते हैं, पत्रकारों को ठेकेदारी में हिस्सा जो मिलता।
मुजफ्फरपुर शहर में ऐसे भी संपादक हैं जो कुछेक छुटभैये नेताओं की गाड़ी पर घुमते हैं। बड़े होटल का बिल चुकाते हैं नेताजी। बदले में उनकी फोटो छपती रहती है। बस उनकी भी जय-जय और इनकी भी जय-जय। पहले संपादक का मतलब होता था गंभीर, विद्वान आदमी। आज होता है अच्छा सेटर, अच्छा मैनेजर। सच लिखना, जन सरोकार रखना, समझौता न करना उनका धर्म नहीं रहा। शहर से देहात तक अनगिनत ऐसे पत्रकार हैं जो रोज अपनी कलम को बेचते हैं। बेचारी कलम स्याही की आंसू रोती रहती है। कोई चाय पानी में बिकता है तो कोई मोटी रकम में बिकता है। अगर किसी की बेटी की दहेज़ के लिए हत्या हो जाय तो बेटी के बाप को भी पैसे देकर ख़बर छपवानी पड़ती है। जिन पत्रकारों को मोटी पगार नहीं मिलती है तो उनकी व्यथा समझी जा सकती है। क्योंकि बड़े घराने के अखबारों का प्रबंधन उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करता है। गाँव के पत्रकारों का तो अखबार प्रबंधन शोषण करता ही है। मगर उनकी क्या कहेंगे, जो मोटी पगार व अन्य सुविधाएँ पाने के बावजूद काली कमाई कराने में लगे रहते हैं। कुछेक दो-चार एनजीओ का निबंधन कराकर अपने प्रभाव से ग्रांट प्राप्त करते हैं। इस तरह उनकी दुकानदारी चलती रहती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के गिरते स्तर से समाज का कितना भला होगा ? ये यक्ष प्रश्न आमलोगों एवं इमानदार लोगों को बार-बार परेशां करता है। समाज उन चंद इमानदार लोगों एवं पत्रकारों के कारण जीवित है जो अकेले लड़ते रहते हैं खुद से और भ्रष्ट समाज से। ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सलाम!

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

पूर्वोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता

पूर्वोत्तर के सातों प्रान्त-असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। इन प्रान्तों के कार्यालयों में या तो अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता है। हिन्दी यहाँ सिर्फ़ संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में है। गुवाहाटी में पहली बार तक़रीबन बीस साल पूर्व हिन्दी पत्रकारिता की धमाकेदार शुरुआत हुई, जब दैनिक "पूर्वांचल प्रहरी" का प्रकाशन शुरू हुआ। इस अखबार के प्रकाशन के मात्र १४ दिनों बाद निकला "दैनिक सेंटिनल" । आज असम की राजधानी क्षेत्र गुवाहाटी से मुख्यतः चार हिन्दी दैनिक का प्रकाशन हो रहा है-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय और दैनिक प्रातः ख़बर। हालाँकि, सबसे पहले "उत्तर काल" नामक अखबार निकलना था, लेकिन बाजी मारी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी ने। "उत्तर काल" कईं वर्षों तक निकली, पर बाद में दम तोड़ दी। पूर्वोत्तर के शेष छह प्रान्तों में एक भी हिन्दी अखबारों का प्रकाशन नहीं होता है। राष्ट्रिय अखबारों से यहाँ के हिन्दी भाषी पाठक वंचित हैं।