मंगलवार, 29 सितंबर 2009

हम जन्नत यहीं बनायेंगे

- प्रोफ़ेसर निराला वीरेन्द्र
अपनी मिहनत और मशक्कत से, आसमां को झुकायेंगे
सब्र रख ये अहले चमन, हम जन्नत यहीं बनायेंगे ।

सेहरा में सैर अपनी है, जलन तो जरूर होगी
पांव में छाले होंगे, मगर मुस्कुराएंगे ।

माना कि एक धुंध में दबे पड़े हैं हम,
लेकिन इंकलाबी फूंक से, हम इसे उडाएंगे।

ये जुनूने इश्क है, इसका नशा उतरेगा क्या
हद से गुजरने का फन, हम तुम्हें सिखायेंगे।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

कब तक बिकेंगे आप

संतोष सारंग
कौन कहता है कि पत्रकार बिकते नहीं हैं। पत्रकार भी बिकते हैं एकदम मोल के भाव। कौन कहता है कि कलम गिरवी नहीं रखी जाती है चंद सिक्कों की खातिर। कलम सच उगलती थी, पर बाजारवाद ने कलम को झूठ उगलना सिखला दिया। जिस पत्रकार की कलम सच उगलती है, उसकी हाथ कट ली जाती है। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का जमाना चला गया। प्रोफेशनल पत्रकारिता का युग चल रहा है। जो पत्रकार ब्लैक मनी पर पल रहे पदाधिकारियों एवं भ्रष्ट नेताओं की चमचागिरी करते हैं, वे उतने बड़े पत्रकार होते हैं। मंगरू मांझी भूख से बिलबिलाकर मरे तो चंद लाइन की ख़बर अन्दर के पेज पर छपती है। कोई भ्रष्ट व अपराधी किस्म का नेता बयान जारी कर दे तो मुख पृष्ठ की ख़बर बन जाती है। मंगरू की मौत बिक नहीं सकती न, इसलिय। नेताजी तो विज्ञापन देते हैं, पत्रकारों को ठेकेदारी में हिस्सा जो मिलता।
मुजफ्फरपुर शहर में ऐसे भी संपादक हैं जो कुछेक छुटभैये नेताओं की गाड़ी पर घुमते हैं। बड़े होटल का बिल चुकाते हैं नेताजी। बदले में उनकी फोटो छपती रहती है। बस उनकी भी जय-जय और इनकी भी जय-जय। पहले संपादक का मतलब होता था गंभीर, विद्वान आदमी। आज होता है अच्छा सेटर, अच्छा मैनेजर। सच लिखना, जन सरोकार रखना, समझौता न करना उनका धर्म नहीं रहा। शहर से देहात तक अनगिनत ऐसे पत्रकार हैं जो रोज अपनी कलम को बेचते हैं। बेचारी कलम स्याही की आंसू रोती रहती है। कोई चाय पानी में बिकता है तो कोई मोटी रकम में बिकता है। अगर किसी की बेटी की दहेज़ के लिए हत्या हो जाय तो बेटी के बाप को भी पैसे देकर ख़बर छपवानी पड़ती है। जिन पत्रकारों को मोटी पगार नहीं मिलती है तो उनकी व्यथा समझी जा सकती है। क्योंकि बड़े घराने के अखबारों का प्रबंधन उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करता है। गाँव के पत्रकारों का तो अखबार प्रबंधन शोषण करता ही है। मगर उनकी क्या कहेंगे, जो मोटी पगार व अन्य सुविधाएँ पाने के बावजूद काली कमाई कराने में लगे रहते हैं। कुछेक दो-चार एनजीओ का निबंधन कराकर अपने प्रभाव से ग्रांट प्राप्त करते हैं। इस तरह उनकी दुकानदारी चलती रहती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के गिरते स्तर से समाज का कितना भला होगा ? ये यक्ष प्रश्न आमलोगों एवं इमानदार लोगों को बार-बार परेशां करता है। समाज उन चंद इमानदार लोगों एवं पत्रकारों के कारण जीवित है जो अकेले लड़ते रहते हैं खुद से और भ्रष्ट समाज से। ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सलाम!

मंगलवार, 15 सितंबर 2009

पूर्वोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता

पूर्वोत्तर के सातों प्रान्त-असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। इन प्रान्तों के कार्यालयों में या तो अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता है। हिन्दी यहाँ सिर्फ़ संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में है। गुवाहाटी में पहली बार तक़रीबन बीस साल पूर्व हिन्दी पत्रकारिता की धमाकेदार शुरुआत हुई, जब दैनिक "पूर्वांचल प्रहरी" का प्रकाशन शुरू हुआ। इस अखबार के प्रकाशन के मात्र १४ दिनों बाद निकला "दैनिक सेंटिनल" । आज असम की राजधानी क्षेत्र गुवाहाटी से मुख्यतः चार हिन्दी दैनिक का प्रकाशन हो रहा है-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय और दैनिक प्रातः ख़बर। हालाँकि, सबसे पहले "उत्तर काल" नामक अखबार निकलना था, लेकिन बाजी मारी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी ने। "उत्तर काल" कईं वर्षों तक निकली, पर बाद में दम तोड़ दी। पूर्वोत्तर के शेष छह प्रान्तों में एक भी हिन्दी अखबारों का प्रकाशन नहीं होता है। राष्ट्रिय अखबारों से यहाँ के हिन्दी भाषी पाठक वंचित हैं।

गुरुवार, 20 अगस्त 2009

मेरा संपर्क नम्बर

मेरा मोबाइल नम्बर है- ०९४०१५३४२५७
०९४७१४७३१०९

सोमवार, 17 अगस्त 2009

कमाल के हैं पूर्वोत्तर के संगीतप्रेमी : भट्ट

मोहन वीणा के सृजक एवं ग्रैमी अवार्ड से सम्मानित पंडित विश्वमोहन भट्ट आज की तारीख में संगीत के आकाश में देदीप्यमान तारे की तरह हैं। विश्वविख्यात भट्ट साहब ने शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ हॉलीवुड की मूवीज में भी अपना संगीत दिया है। नुसरत फतह अली खान के साथ हालीवुड की फ़िल्म 'डेडमैन वाकिंग' के अलावा ' टू डेज इन वैली' में भी संगीत दिया है। एक अमरीकन प्रोड्यूसर की अभी हाल में रिलीज मूवी 'इम्पटी स्ट्रीट' को भी भट्ट साहब ने अपनी मधुर संगीत से सजाया है। आजकल पंडित विश्व मोहन भट्ट अपनी पेशकश के सिलसिले में गुवाहाटी में हैं। यहाँ प्रस्तुत है श्री भट्ट की संतोष सारंग के साथ हुई विस्तृत बातचीत का मुख्य अंश :-
पंडित विश्व मोहन भट्ट और मोहन वीणा में मोहन शब्द कॉमन है। मोहन का क्या तात्पर्य है?
- मुझे लगा कि यदि मेरी कल्पना, मेरा इजाद मेरे नाम से जाना जाय तो अच्छा होगा। इसलिए जब मैंने बीस तार वाले इस साज की खोज की तो इसका नाम अपने नाम मोहन के साथ जोड़कर मोहन वीणा रखा। सन १९६७ में मैंने इस साज को शुरू किया। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। मुझे एहसास हुआ कि कोई साज ऐसा हो जिसमें इमोशन, रोमांच, मधुरता, निरंतरता यानी सभी चीजों का समावेश हो। इस साज की विशेषता है कि इसकी ध्वनि की निरंतरता देर तक जारी रहती है। सितार, सरोद आदि वाद्य यंत्र एक स्ट्रोक के बाद बंद हो जाती है, जबकि मोहन वीणा से एक स्ट्रोक में ही गायकी निकलती है।
वीणा और मोहन वीणा में अन्तर क्या है?
- वीणा कई प्रकार की होती है। लेकिन आकार लगभग सबका समान होता है। मैंने मोहन वीणा के साथ वीणा इसलिए जोड़ा क्योंकि इसका आकार भी बहुत कुछ वीणा और विचित्र वीणा से मिलता है। दक्षिण के वाद्य यंत्र गो तू वाद्यम के आकार से भी यह साज मिलता-जुलता है।
'ऐ मीटिंग बाई दी रिवर' के लिए आपको ग्रैमी अवार्ड मिला। इस एलबम की क्या खासियत है?
- इसमें फ्यूजन म्यूजिक है, जो लाजबाव बना है।
सेल्युलाइड की दुनिया में, जहाँ पश्चिमी संगीत हावी होता जा रहा है। इस परिस्थिति में आप शास्त्रीय संगीत को कहाँ पाते हैं?
- मैं वेस्टर्न म्यूजिक को क्लासिकल म्यूजिक का प्रतिस्पर्धी नहीं मानता हूँ। वो अपनी जगह ठीक है और यह अपनी जगह ठीक है। हाँ, यह जरूर है की युवायों का झुकाव ही क्यों हम जैसे लोगों का भी रुझान उस तरफ़ बढ़ा है। लोगों को अच्छी चीजें अच्छी नहीं लगती है। बुरी चीजें अच्छी लगती है। वैसे, मैं नहीं मानता की पश्चिमी संगीत ख़राब है। उनका म्यूजिक भी अच्छा है। लेकिन यहाँ के लोग सीन को न्यूड बना कर पेश करते हैं, जिस वजह से लगता है की वेस्टर्न म्यूजिक ख़राब है। वहां के लोग ईमानदार हैं, सिस्टमेटिक हैं। हम वहां के म्यूजिक व मूवी को ग़लत तरीके से पेश करते हैं।
आप किस घराने से ताल्लुक रखते हैं?
- मैं मध्य प्रदेश के मैहर घराने से हूँ। विश्वविख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर का शागिर्द हूँ। मेरे बड़े भाई शशि मोहन भट्ट उनके पहले शागिर्द हैं। पंडित रविशंकर उस्ताद अलाउद्दीन खान साहब के शागिर्द रहे हैं। वैसे, मैं अपने परिवार की सातवीं पीढी हूँ, जिसने संगीत कला की साधना में रत है। मेरा परिवार संयुक्त परिवार है। यह संगीत की ताकत से ही सम्भव हुआ है। मुझे गीत-संगीत विरासत में मिली है। तीन सौ साल की लम्बी संगीत परम्परा है, मेरे परिवार की। मैंने सितार से शुरू किया फिर अपनी कल्पना को मोहन वीणा के रूप में लाया। गुरु एक वृहत रूप होता है। गुरु बिना ज्ञान सम्भव नहीं है।
किसी राग का नाम बताएं, जिसे आपने कम्पोज किया है।
- हाँ, मैंने मधुवंती राग और शिवरंजनी राग को मिलाकर राग विश्वरंजनी बनाया है। देश की ५० वीं स्वतंत्रा दिवस पर मैंने राग गंगा का कम्पोजीशन किया। मैंने राग के क्रियेशन में विश्वास नहीं करता। जो कहता है की मैंने राग की खोज की है, वह खोज नहीं नक़ल है। जो नक़ल करने में विश्वास करते हैं, वे बहुत आगे तक नहीं जाते। मैं ख़ुद नहीं जानता की आज क्या पेश करना है। जिस क्षण मैं वाद्य यंत्र पकड़ता हूँ तो नई-नई चीजें स्वयं उँगलियों पर आ जाती हैं। कोई भी चीज पूर्व नियोजित नहीं होता, पहले से तैयारी नहीं रहती है। कई बड़े उस्तादों के शागिर्दों ने उन्हीं की नक़ल की और वे पीछे रह गये।
आप अपने देश और विदेश के संगीत प्रेमियों में क्या फर्क पाते हैं?
- मैंने अब तक ३५ देशों के लगभग सात सौ शहरों में कंसर्ट किए हैं। अरिम कलेपटन ने अभी अमरीका बुलाया था। कार्यक्रम में लगभग एक लाख संगीत श्रोतायों की भीड़ थी, जिसमें अधिकाँश अमेरिकी थे। इंडियन क्लासिकल सोसायटी के बैनर तले आयोजित कार्यक्रम में ६० प्रतिशत भारतीय और ४० प्रतिशत गोरे लोग सुनने आए थे। मैंने महसूस किया की विदेशों के श्रोतायों में क्लासिकल म्यूजिक के प्रति काफ़ी समझ है। अपने देश में पुणे के श्रोता काफ़ी समझ रखते हैं शास्त्रीय संगीत की।
पूर्वोत्तर के संगीतप्रेमियों के बारे में क्या राय है?
- भाई, यहाँ के श्रोता तो कमाल के हैं। यहाँ पहले भी कई कार्यक्रम पेश कर चुका हूँ। लोग काफ़ी संख्या में मुझे सुनने आते हैं।
युवा संगीत प्रेमियों को क्या संदेश देना चाहेंगे?
- युवाओं को हम यही कहेंगे की वे अपनी संस्कृति, अपनी विरासत और अपने संगीत को बचाए रखें.

रविवार, 19 जुलाई 2009

यात्रा जारी रहेगी, चाहे मुसीबतें लाख आए

मुझे आध्यात्मिक साधना के साथ काम करने में असीम आनंद की अनुभूति होती है . मेरा मानना है कि आदमी एक माध्यम है ईश्वर के काम को पूरा करने का . मैं यही मानकर कोइ काम करता हूँ . अपने सारे काम इश्वर को समर्पित कर देता हूँ . एसा करके मैं पहले से और अधिक उर्जा और आत्मविश्वास से लबरेज हो जाता हूँ . "अप्पन समाचार" जैसा प्रयोग भी कुछ इसी तरह के चिंतन व ऊर्जा की ताकत से संभव हो पाया . यह प्रयोग भी ईश को समर्पित !

कुछ साल पहले तकरीबन साठ साल की बुधिया भूख व दवा के अभाव में मुजफ्फरपुर सदर अस्पताल के जीर्ण-शीर्ण बेड पर तड़पती हुई दम तोड़ दी . मल-मूत्र में सना उसके कंकाल शव को पता नहीं अस्पताल प्रशासन ने कहाँ ठिकाने लगाया होगा . पता चला उसका परिजन कई वर्षों से उस बूढी का सुधि लेना छोड़ दिया था . यह वाकया मीडिया की सुर्खियाँ नहीं बनी . सरैया प्रखंड का डोमन मांझी भी भूख व कुपोषण से लड़ता हुआ दम तोड़ दिया . इस घटना से कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन की पोल तो खुलती ही है, जनता के साथ होने का दंभ भरने वाली मीडिया की नियत भी साफ हो जाती है . हर रोज सैंकडों बुधिया व डोमन काल के गाल में समा जाते हैं, लेकिन अखबारों के लिए इनके जीवन का कोइ मोल नहीं . मीडिया ने यह साबित कर दिया है कि सनसनीखेज खबरें, सेक्स, हारर, अपराध, गन्दी राजनीति को तरजीह देते हुए हम बाज़ार की ही बाजीगरी करेंगे . हमें पत्रकारीय धर्म और मिशन से नाता नहीं है . हम तो विज्ञापनी बाज़ार की चकाचौंध में अपना व्यवसाय चला रहे हैं . और आप जानते हैं कि व्यवसाय का गणित सिर्फ लाभ-हानि पर चलता है, मिशन के मनोविज्ञान पर नहीं . कुछेक अखबार भले अपवाद हो सकते हैं.

निःसंदेह, एसे घटाटोप में ही किसी विकल्प की खोज होती है . "अप्पन" समाचार" की परिकल्पना भी इन्हीं विकल्पों की तलाश के क्रम में बिहार के मुजफ्फरपुर की माटी में साकार हुआ . पिछले पांच-सात सालों में जिन चीजों ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया है, वह है मीडिया में आई गिरावट . मैं परेशां होता रहा कि जब लोकतंत्र का प्रहरी ही पथभ्रष्ट व बिकाऊ हो जाय तो लोकतंत्र का क्या होगा ? मुझे लगने लगा कि अब वैकल्पिक मीडिया को बढावा देने का समय आ गया है . बस क्या था ? मैंने गाँव के मुद्दे, खेत-खलिहान से जुड़ा सवाल, सामाजिक कुरीतियाँ, कल्याणकारी योजनाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार, गरीब-गुरबों का दर्द, गाँव की माटी में दफ़न होती लोकसंस्कृति, पर्यावरण, ग्रामीण प्रतिभाओं की सफल कहानियां, मानवाधिकार, महिला सशक्तिकरण, लोक-शिक्षण आदि मुद्दों पर प्रमुखता से अप्पन समाचार के जरिय फोकस करने का निर्णय लिया . और इस तरह शुरू हुआ एक छोटा परन्तु प्रभावकारी वैकल्पिक मीडिया आन्दोलन, जिसकी चर्चा बिहार के एक सुदूर गाँव चान्दकेवारी के खेत के मेड़ से होता हुआ सात समुन्दर पार पंहुच गया . सरैया की पूजा. जो इस ग्रामीण समाचार चैंनल के लिए रिपोर्टिंग का काम करती थी के मोबाइल पार एक दिन जर्मनी से "वायस ऑफ़ जर्मनी" का फोन आया तो वह रोमांचित होकर बातें की . उसका पूरा परिवार खुश था. अप्पन समाचार की खुशबू, अनीता, रूबी, रुमा के परिवारवाले भी बेहद खुश थे अपनी बेटियों व पतोहू की कहानियों को अखबारों के पन्नों व टीवी स्क्रीन पार देखकर . गाँव की लड़कियों ने जब पहली बार अपने अनगदे हाथों से जब कैमरे संभालना शुरू किया तो आस-पड़ोस के लोगों ने फब्तियां कसने लगे . कहने लगे-घर की इज्जत को चौखट से बाहर निकाला है, नाक कटेगी तो पता चलेगा . फिर भी इन चारों के परिजनों ने अनसुनी कर बेटियों को प्रोत्साहित किया . बिना विधिवत प्रशिक्षण के इन लड़कियों ने जिस आत्मविश्वास के साथ खबर जुटाना शुरू किया कि आप भी वाह कहे बिना नहीं रह सकते . कोसी की प्रलयंकारी बाढ़ को कवर करने गयी रिंकू कुमारी, अनीता व खुशबू के जज्बे को देखकर एनडीटीवी के पत्रकार अजय कुमार ने भी सराहा . मेगाकैम्प में आये मुख्यमंत्री नीतिश कुमार के कार्यक्रम को कवर करने के क्रम में रिंकू के पैर का नाखून उखड गया, खून निकलता रहा, लेकिन रिकॉर्डिंग रुकी नहीं . हाल में तुर्की में पधारे पूर्व राष्ट्रपति व मिसाईल मैन डॉ ए पी जे अबदुल कलाम के कार्यक्रम को भी अप्पन समाचार की फायरब्रांड गर्ल्स नीरू चौधरी, रिंकू, सुब्बी ने बड़ी बारीकी से कवर किया . लोकसभा चुनाव के दौरान इस ग्रामीण चैनल ने "वोट की चोट" कार्यक्रम के जरिय वोटर जागरूकता का भी कार्यक्रम चलाया . पूर्व केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री डॉ रघुवंश प्रसाद सिंह भी गाँव की इन महिला पत्रकारों से रूबरू होकर खुश थे . ज्ञात हो कि अप्पन समाचार का प्रसारण डॉ. सिंह के लोकसभा क्षेत्र के चार प्रखंडों में ही होता है . चुनाव के दौरान कुछ राजनीतिबाजों ने अप्पन समाचार को खरीदने की भी कोशिश किया . सात-आठ लाख तक के आफर मिले, लेकिन मैंने साफ ठुकराते हुए कहा कि यह चैनल वैकल्पिक मीडिया है, बिकाऊ मीडिया का विकल्प .

सोलह अक्टूबर २००८ की सुहानी शाम मेरे जीवन की सबसे सुखद शाम थी . सीएनएन-आईबीएन की ओर से दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उस शाम एक भव्य समारोह में अप्पन समाचार के जैसे अनोखे प्रयोग के लिए मुझे "सिटिज़न जर्नलिस्ट अवार्ड" से सम्मानित किया . प्रख्यात टीवी पत्रकार राजदीप सरदेसाई, आशुतोष, आजतक की नलिनी सिंह, कुलदीप नैयर, गायक हरिहरन, फिल्म अभिनेता राहुल बोस, पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी के बीच खुद को पाकर गौरवान्वित था . हवाई यात्रा की मुरादें पूरी हुईं.

मुंबई से आकर स्वतंत्र डॉक्युमेंट्री फिल्म मेकर अब्राहम शिरले और अमित मधेशिया अप्पन समाचार पर शोध किया . अचानक राष्ट्रिय-अन्तर्राष्ट्रीय सुर्खियों में छा गया "अप्पन समाचार" सिविल सर्विसेस क्रानिकल जैसी पत्रिका ने अप्पन समाचार को जी के के सवाल के रूप में शामिल किया . यह सब पूरी टीम को उर्जा देता रहा, लेकिन यह लड़ख्राती शुरुआत आज भी संसाधनों के अभाव में लड़खराते हुए ही आगे बढ़ रही है . प्रशंसा तो मिली पर आर्थिक सहयोग कहीं से नहीं मिली . बिहार सरकार ने भी इस प्रयोग की सुधि नहीं ली . सहयोग के नाम पर एकमात्र पत्रकार मित्र भारतीय बसंत कुमार ने एक साल के लिए प्रोजेक्टर देकर मदद की . मुजफ्फरपुर स्थित सूर्या फिल्मस के राजेश कुमार का सहयोग भुलाया नहीं जा सकता है . इन्होने तकनीकी सहयोग निरंतर दिया है . कोसी चुनौती के संयोजक लोकेन्द्र भारतीय का योगदान भी ताकत देता रहा है . अमृतांज इन्दीवर, फूलदेव पटेल, पंकज सिंह, पत्रकार विवेकचंद्र, प्रोफेसर निराला वीरेंदर, अनिल रत्ना. डॉ हेम्नारायण विश्वकर्मा, नसीमा का भी सहयोग समय-समय पर मिलाता रहा है . संसाधन के नाम पर आज भी हमारे पास दो माईक. एक त्रिपोद और एक-दो फर्नीचर ही अपने पास है. कैमरे व प्रोजेक्टर या तो भाड़े पर लेते हैं या मित्रो का सहयोग .

संघर्ष तो हैं ही, खतरें भी कम नहीं हैं इस काम में . लेकिन लड़कियां कमर कसी हैं . सरैया के प्रखंड विकास पदाधिकारी और चान्दकेवारी के मुखिया के गुर्गे से धमकियाँ मिल चुकी हैं टीम को . इस चैनल के खबर का असर ही हैं कि ग्रामीण बैंक, धरफरी ने किसानों को बिना घूस लिए केसीसी ऋण का लाभ देना शुरू किया . नीम के पेड़ को लेकर गाँव में व्याप्त भ्रांतियां दूर होने लगी है .

जानकारी हो कि अप्पन समाचार ६ दिसम्बर २००७ को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के पारू प्रखंड के रामलीला गाछी (चान्दकेवारी) में शुरू हुआ था . यह आल वूमेन चैनल के रूप में चर्चित हुआ . एक गाँव से शुरू हुआ यह "आल वूमेन न्यूज़ नेटवर्क" आज जिले के पांच प्रखंडों के तक़रीबन दो दर्जन से अधिक गाँव को कवर करता है . अप्पन समाचार बुलेटिन ४५ मिनट का होता है और प्रोजेक्टर या डीवीडी दे जरिये गाँव के हाट-बाजारों में दिखाया जाता है . रामलीला गाछी, धरफरी, देवरिया, सरैया, पकडी पकोही, मिठनपुरा, भगवानपुर सहित दर्जनों जगहों के लोग अपनी समस्यायों को टीवी स्क्रीन पर देखते हैं. अप्पन समाचार के लिए लगभग पंद्रह लड़कियां एंकरिंग, रिपोर्टिंग, कैमरा चलाने का काम, एडिटिंग आदि का काम देखती हैं. चैनल की दो लड़कियां रांची जाकर डाक्युमेंटरी फिल्म मेकिंग का छः दिन का ट्रेनिंग ले चुकी हैं. मीडिया वर्कशॉप दे द्वारा भी इन महिला पत्रकारों को पत्रकारिता का प्रशिक्षण दिया जाता रहा है .

यह लड़खारती शुरुआत एक दिन सफल यात्रा होगी और ग्रामीण मीडिया का एक माडल भी, इसी उम्मीद दे साठ यह संघर्ष जारी रहेगा . चाहे मुश्किलें लाख आये .

संतोष सारंग

रविवार, 14 जून 2009

दलाली करना पत्रकारिता की मजबूरी नहीं : प्रभाष जोशी

१२ जून को पटना स्थित गाँधी संग्रहालय के सभागार में स्वतंत्रता सेनानी श्री रामचरित्र सिंह मेमोरियल लेक्चर के तहत "लोकतंत्र का ढहता चौथा स्तम्भ" विषय पर प्रख्यात पत्रकार श्री प्रभाष जोशी का व्याख्यान आयोजित हुआ ।
श्री प्रभाष जोशी ने अपने संबोधन में कहा कि चुनाव के समय मीडिया कसौटी पर होता है । पाठक को तैयार करता है । सही सूचना व सही जानकारी देता है ताकि वे सही नेता का चुनाव कर सके । लेकिन हुआ क्या । जिस तरह शादी के समय लडके वाले का सीजन होता है । उसी तरह चुनाव के समय अखबारवालों के लिए रेवन्यू जेनेरेशन का सीजन रहा । आगे उन्होंने कहा कि अगर दलाली करनी है तो पत्रकारिता छोड़ दे । दलाली करना पत्रकारिता की मजबूरी नहीं हो सकती है ।
इस अवसर पर प्रभात ख़बर के प्रधान संपादक हरिवंश जी ने भी मीडिया की करतूतों पर टिपण्णी की । गाँधी संग्रहालय के रजी अहमद भी उपस्थित थे ।

गुरुवार, 11 जून 2009

ख़बर बेचने वाले, ख़बरदार !

गांव के हाट-बाज़ार में बहुत कुछ बिकता है । मसलन : टिकुली-सेनुर, गमछा-लुंगी, कचरी-बरी, आलू-प्याज, मुर्गा-मछली आदि । किंतु, दुनिया के बाज़ार में सब कुछ बिकता है । मसलन : रिश्ते-नाते, मां की ममता, भाई-बहन का राखी में पिरोया प्यार, पति-पत्नी के मंगलसूत्र में गुंथे मोहब्बत, इंसानियत, जिस्म, किडनियां, जमीर, नैतिकता, बोतलबंद शराब, कलम, खबरें यानि सबकुछ । आप सभी सुधि पाठकों से गुजारिश है कि ग्राहक की हैसियत से अपनी पसंद का कोई भी सामान जरूर खरीद लें । कुछ सामानों पर विशेष छुट की सुविधा उपलब्ध है ।
जी, जब खरीद-बिक्री की बात चली है तो चलिए न मीडिया की मंडी में देखते हैं खबरों का भाव क्या है ? चुनाव के कारण खबरों का भाव थोड़ा चढ़ गया था, फिलहाल कुछ ठीक-ठाक चल रहा है । चुनाव के दरम्यान कुछ मीडिया संस्थानों ने खबरों के साथ अपना जमीर भी बेचा । धनी खरीददारों ने तो जमकर मार्केटिंग की, परन्तु गरीब प्रत्याशी तो देखते ही रह गए । सुधि पाठक भी ठगे रह गए । पर सियासत पर तिजारत करनेवाले की तो जय-जय हो गयी । यह अलग बात है कि इस काली कमाई को श्वेत धवल चादर से ढकने के मकसद से जनजागरण भी चलता रहा । शिवहर से भारतीय जनतांत्रिक जनता दल के प्रत्याशी शत्रुघ्न कुमार और बसपा के वैशाली से शंकर महतो जैसे हजारों सामान्य आर्थिक पृष्टभूमि वाले प्रत्याशियों में आज भी गुस्सा है । आक्रोश तो प्रबुद्ध पाठको में भी है ।
एक घटना का जिक्र करना यहाँ उचित होगा । बातें चुनाव से जुड़ी हैं । बिहार के मुजफ्फरपुर के खुदी राम बोस स्टेडियम में मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार की चुनावी जनसभा थीं । पत्रकार गैलरी में सजी कुर्सियों पर स्थानीय नेता-कार्यकर्ता पहले से जमे थे । शहर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनसे आग्रहपूर्वक कहा, 'भईया, ये कुर्सियां पत्रकारों के लिए रखी हैं, कृपया खाली तो कर दे ।' मंच पर विराजमान एक सज्जन ने आवाज दी, 'भाई साहेब, पैसा लेकर ख़बर छापते हैं तो कुर्सी कैसे मिलेगी । पैसा और कुर्सी दोनों नहीं मिलती हैं ।' उस गंभीर व तेजतर्रार पत्रकार की जैसे जुबान ही सिल गयी । वे बुदबुदाये, ' इमान बेचता है इक्का-दुक्का अखबार और भुगतना पड़ता है पूरी पत्रकार बिरादरी को ।' और देर से खड़े कुछ पत्रकारों ने बांस-बल्ले के सहारे उस सभा को कवर किया । यह मीडिया के गिरते स्तर की बानगी भर नहीं है, बल्कि पत्रकारिता जगत को शर्मशार करने के लिए काफी है ।

बुधवार, 10 जून 2009

मैं भी सत्ता गढ़ लेता

"तुझ सा लहरों में बह लेता

तो मैं भी सत्ता गढ़ लेता,

इमान बेचता चलता तो

मैं भी महलों में रह लेता ।"

"हर दिल पर छूकर चली मगर

आंसू वाली नमकीन कलम,

मेरा धन है स्वाधीन कलम ।"

- गोपाल सिंह 'नेपाली'