शुक्रवार, 15 मई 2015

श्रम के भार से दब रहा बचपन

  • अमृतांज इंदीवर

 बचपन से जिन बच्चों के हाथ गुड्डे-गुड़ियों व मिट्टी के खिलौने से खेलते हैं, आज उन्हीं हाथों को समाज ने जिंदगी भर मजदूरी व भटकने के लिए छोड़ दिया है. जिस उम्र में बच्चों को मां-बाप का प्यार, समाज से संस्कार, स्कूल से अक्षर ज्ञान मिलना चाहिए, वहीं इसके बदले उसे अपने और परिवार के पेट की खातिर ज़ोखिम भरा काम करना पड़ रहा है. ऐसे बच्चों को ढाबों, होटलों, रेस्टोरेंटों व रेलवे स्टेशन पर काम करते देखा जा सकता है. कमरतोड़ श्रम के बाद दो जून की रोटी कहीं नसीब हो पाती है. हमारे देश में ऐसे ढेर सारे बच्चे हैं, जो फटेहाल जिंदगी जी रहे हैं, जो सड़क किनारे, बस व रेलवे स्टेशन पर कूड़े-कचरों में अपना जीवन तलाश रहे हैं. इन बच्चों को समाज नाजायज़ करार देता है. सड़क पर जीवन बिताने वाले बच्चों की संख्या हमारे देश में लाखों में है. यह प्रश्न उन तमाम देशों के शासन-प्रशासन व नीति-नियंताओं के लिए चुनौती है, जो कहते हैं कि बालश्रमिक अब न के बराबर हैं.
      यूनिसेफ की मानें तो भारत में सड़कों पर जीवन बसर करने वाले बच्चों की संख्या दो करोड़ से भी अधिक है, जो भुखमरी के साथ-साथ उपेक्षा, उत्पीड़न और शोषण  के भी शिकार हैं. इतना ही नहीं, इनसे अनैतिक कार्य भी कराये जाते हैं. भीख मांगने, चोरी और शराब बेचने के अलावा जेब काटने जैसे-अनैतिक कार्य इन बच्चों से कराये जाते हैं, जिसकी वजह से इनकी जिंदगी नारकीय बनती जा रही है. पूरे भारत में असामाजिक तत्वों एवं एजेंटों के ज़रिये पैसा कमाने के लिए इन मासूमों का सौदा बेरोकटोक किया जा रहा है. परिणामत: बच्चे भी कच्ची उम्र में शराब, सिगरेट, खैनी, बीड़ी आदि का सेवन करने लगते हैं. दूसरी ओर, बाल मजदूरी निषेधाज्ञा और विनियमन कानून को बने ढाई दशक हो गये, पर बाल मजदूरी के ग्राफ में कमी आने के बजाय 15 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. सरकार के कुछ प्रभावी प्रोजेक्ट भी बने और चले भी पर भ्रष्टाचार की गंगोत्री में आकंठ डूबे सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने बच्चों का निवाला ही छीन लिया है, जिसमें प्रमुख रूप से ‘बालश्रिमक विशेष विद्यालय’ और एनजीआरपी योजना’ शामिल हैं, जिसके तहत बालश्रमिकों को मुख्यधारा में लाकर तीन वर्षो का ब्रिज कोर्स पांच रुपए की दर से मध्याह्न भोजन, सौ रु पए छात्नवृति, नियमित स्वास्थ्य जांच एवं वोकेशनल (रोजगारपरक) ट्रेनिंग उपलब्ध कराया जाना था. इसके अलावा सरकार ने अभियान चलाया कि ढाबों, होटलों, मनोरंजन केंद्रों सहित छोट-छोटे धंधों में लगे बच्चों को नौकरी पर रखने वालों को जेल की हवा खानी पड़ेगी. कुछ दिनों तक धड़-पकड़ का अभियान ज़ोरों पर रहा, कुछ समय के बाद अभियान भी बंद हो गया.
       बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के हुस्सेपुर, चांदकेवारी पंचायत के दलित-महादलित व पिछड़े टोलों के छोटे-छोटे बच्चों के हाथ महानगरों की चकाचौंध में जोखिम भरा काम कर रहे हैं। सरयुग, अर्जुन, टुन्नी, दारोगा (काल्पनिक नाम) आदि बच्चे सूरत (गुजरात), दिल्ली, कोलकता, असम आदि जगहों पर आधी मजदूरी में काम करने को मजबूर हैं. सरयुग प्राथमिक स्कूल की पढ़ाई छोड़कर घर की माली हालत सुधारने के लिए सूरत कपड़ा फैक्ट्री में नौकरी कर रहा है. दो साल बाद जब घर आया, तो आसपास के अपने स्कूल साथियों के साथ जींस-पैंट और टी-शर्ट में हीरो से कम नहीं दिख रहा था. पूर्व के साथी ने जींस-पैंट पर लिखे अंग्रेज़ी का शब्द पढ़ा, तो सरयुग अवाक् रह गया. अरे, ‘तुम्हें दो साल में अंग्रेजी भी पढ़ने आ गयी. मैं तो एबीसीडी के अलावा कुछ नहीं जाना.’ मित्नों ने कहा, ‘तुम पैसे कमा रहे हो और मैं पढ़ाई कर रहा हूं.’ तुम हीरो दिखते हो और हम सब बच्चे ही दिखते हैं.’ सरयुग घर का इकलौता कमाने वाला है. उसकी कमाई से ही घर-परिवार की गाड़ी चलती है. पढ़ाई से नाता टूटते ही सरयुग समाज, संस्कार, नैतिकता, मां की ममता आदि चीजों से वंचित हो गया. आज वह 13 साल का है और महीने में पांच हज़ार रु पये तक कमाता है. इसके अलावा सरयुग सूरत में गलत लोगों की संगति में आकर शराब, सिगरेट और वयस्क फिल्में देखने का भी आदी हो चुका है.  उससे बात करने पर लगता है कि पूर्णत: वयस्कता प्राप्त कर ली है. हाथ में कीमती मोबाइल पर फूहड़ गीत बजाते हुए गांव-कस्बों से निकलता है, तो तथाकथित समाज के लोग गालियां देते थकते नहीं। पर, भला इसमें सरयुग का क्या दोष? जब उसकी माली हालत खराब हुई तो कोई उसकी मदद के लिए आगे नहीं आया. किसी ने परिवारवालों को नहीं समझाया कि अभी यह बच्चा है, इसे परदेस कमाने के लिए मत भेजो. इन सवालों में घिरे समाज व सरकार ने आज भी सैकड़ों सरयुग जैसे मासूमों की जिंदगी के सुखद लम्हों को कुम्भलाने के लिए छोड़ दिया है. हमारे समाज में पढ़े लिखे लोगों और समाजसेवियों की कमी नहीं हैं, लेकिन वह भी इनके भविष्य को संवारने की बजाय इनके साथ भेदभाव करने से नहीं हिचकिचाते. सरयुग जैसे अनपढ़ ही देश के सामाजिक व आर्थिक विकास में बाधक बनते हंै. 
       गौरतलब है कि बाल मजदूरों की लंबी सूची है, जो कुपोषित होने के साथ-साथ भुखमरी के कगार पर है. आज भी हमारे देश में खासतौर से गरीब महिलाएं खून की कमी का शिकार होती हैं, तो उनके गर्भ में पल रहे बच्चे स्वस्थ कैसे होंगे ? प्राय: गर्भधारण से लेकर प्रसव के दौरान मरनेवाली महिलाओं की संख्या कम नहीं है. पोषण का सवाल इन बातों से सीधे जुड़े हैं कि बच्चा जन्म ले पायेगा या नहीं और जन्म ले भी लेता है, तो उसे सही पोषण व सम्मानित जीवन जीने का अधिकार मिलेगा या नहीं. यह कहना मुश्किल है. आंकड़े बताते हैं कि 85 प्रतिशत से लेकर 90 प्रतिशत बच्चे 6 वर्ष से कम उम्र में ही मर जाते हैं
            सबसे आश्चर्यजनक तथ्य तो यह है कि खाद्य सुरक्षा व बाल विकास परियोजना के तहत चल रहे ‘आंगनबाड़ी केंद्रों’ पर बच्चों को दिया जाने वाला पोषाहार और अन्य सामग्री सिर्फ नाम मात्न के लिए ही मिलती हैं. बच्चों और गर्भवती महिलाओं के लिए आनेवाली सामग्री या तो बेच दी जाती हैं या फिर कागज़ी खानापूर्ति कर दी जाती है.  ऐसे में झुग्गी-झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को खाद्य सुरक्षा की गारंटी मिलेगी, कहना मुश्किल है. मौजूदा हालात में ऐसे परिवार अपने बच्चों को पेट की खातिर मजदूरी करने के लिए नहीं भेजंेगे तो क्या करेंगे?
           ज्यादातर बाल मजदूर गरीबी के कारण हजारों की संख्या में अन्य राज्यों में पलायन कर रहे हैं. कमोबेश सभी राज्यों से गरीब, भूमिहीन, आदिवासी, दलित एवं पिछड़ी जातियांे से हजारों की तदाद में बच्चे पलायन कर दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि जगहों पर आधी मजदूरी में काम करने को मजबूर हैं. सर्वशिक्षा अभियान कार्यक्र म 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने की बात करता है. पलायन कर रहे बच्चे या तो अशिक्षित हैं या फिर बीच में ही पढ़ाई छोड़कर अपने पेट की आग बुझाने को विवश हैं. वस्तुत: गरीब के भूखे बच्चों को हाथ से काम छीनकर जबर्दस्ती किताब पकड़वाने से अच्छा होता कि शिक्षा को श्रम से जोड़कर एक नयी परिभाषा गढ़ी जाये. रोटी बिना किताब किस काम की. किसी उर्दू शायर ने ठीक ही कहा है-
                                  
                                 ‘जब चली ठंडी हवा, बच्चा ठंड से ठिठुर गया।
                                  मां ने अपने लाल की तख्ती (स्लेट) जला दी रात को।’

1 टिप्पणी:

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