* संतोष सारंग
सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक चेतना के मामले में मुजफ्फरपुर बिहार का अग्रणी शहर माना जाता है । इसका गौरवशाली इतिहास रहा है आए, जयप्रकाश ने प्रयोग किया, विनोबा के भूदान आन्दोलन का गवाह रहा है यह शहर । शहीद जुब्बा सहनी, रामब्रिक्ष बेनीपुरी, शहीद खुदीराम बोस, महाकवि जानकी बल्लव शास्त्री, भगवान महावीर, लंगट सिंह, लक्ष्मी साहू जैसे न जाने कितने ही विभूतियों की कर्मस्थली, जन्मस्थली और शहादतस्थली रही है यहाँ की धरती । आज भी इस तपोभूमि पर महान समाजवादी चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा की तप और साधना चल रही है, अपने जीवन को आन्दोलन और पर्यावरण के लिए समर्पित करनेवाले अनिल प्रकाश की सक्रियता युवाओं को प्रेरित करती है, वही एक साधारण परिवार में जन्मी मधुमक्खी वाली अनीता ने सफलता की ऐसी कहानी लिख दी कि सात समुन्दर पार यहाँ की शहद की मिठास पहुँच गयी, तो इन पंक्तियों के लेखक की अनोखी परिकल्पना "अप्पन समाचार" को ग्रामीण लड़कियों ने कैमरा व त्रिपोद से साकार कर मुजफ्फरपुर का नाम देश के बाहर रौशन कर दिया । इतना ही नहीं, कईं नामी पत्रकार व संपादक दिया है इस शहर ने देश को । इस धरती के नाम जड़े तमाम उपलब्धियों को शब्दबद्ध किया जाए तो एक पुरी किताब बन जायेगी । संक्षेप में कहें तो मुजफ्फरपुर समृद्ध विरासत की धरती रही है ।
ऐसे में यदि कोई संपादक इस शहर में ऐसा आ जाए जो छुटभैये नेताओं की स्कोर्पियो पर घूमे, दी पार्क होटल का बिल चुकाने के बदले उसका फोटू छापे, अपने मातहत संवाददाताओं से किचेन के सामान का बिल चुकता करवाए और शहर के एक बड़े व्यवसायी, जो एक राष्ट्रीय पार्टी का नेता भी है, की चाकरी करे तो इस शहर के संस्क्रितिकर्मिओं, समाजसेविओं, बुद्धिजीविओं पर क्या बीतेगा ? गत दो-तीन साल से मुजफ्फरपुर और आस-पास के जिले की पत्रकारिता अपने हाल पर आंसू बहा रही है । दारू और लड़की की बात करने वाला वह संपादक पता नहीं कैसी परम्परा का संवाहक बनेगा । उक्त अखबार के मालिक को यदि अधिक-से-अधिक पैसे ही कमाना है तो किसी सुंदर यौनकर्मी को संपादक बना दे ताकि अधिकाधिक टारगेट पुरा करेगी ।
एक बार उक्त संपादक महोदय ने उक्त नेता सह वाहन व्यवसायी की कंपनी के प्रचार में अपनी पूरी सम्पादकीय टीम ही सड़क पर उतार दी । ख़ुद भी सड़क पर टोपी लगाकर खड़े हो गए । सच पूछिये, उस दिन जनतंत्र का प्रहरी (पत्रकारिता) मुजफ्फरपुर की तपती सड़क पर छटपटा रही थी । पता चला, उक्त संपादक ने यह कु(कर्म) सिर्फ़ इसलिय किया था की उस व्यवसायी से संपादक महोदय ने एक-दो लाख रुपये (उधार या उपहार) लिया हुआ था । आपको बताते चले की इस श्रीमान की कलम से यहाँ के पाठकों को आज तक कुछ भी नसीब नहीं हुआ है ।
गनीमत है की ऐसे घटाटोप में कुछ रोशनी शेष है । प्रभात ख़बर, जनसत्ता जैसे कुछ हिन्दी के अखबार न होते तो शायद गाँधी का अन्तिम आदमी की आवाज भी पूरी तरह दब गयी होती । लोकतंत्र जिन्दा है तो कुछ ऐसे ही अखबारों से, लघु पत्र-पत्रिकाओं से ।
खैर, ब्लॉग आन्दोलन विकल्प बनकर उभर रहा है । ऐसे मीडिया मालिकों, संपादकों, दलालों से सावधान !
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