रविवार, 10 मई 2009

पत्रकारिता, पैसा और जनता

इस बार के चुनाव में पत्रकारिता का चीरहरण हो गया । जनता बेचारी मूकदर्शक बनी रही द्रित्राष्ट्र की तरह । लूट-पिट गयी पत्रकारिता । अखबारों के मालिकों ने खूब खेली पैसो की होली । पाठक समझ नहीं सके कि जो वह पढ़ रहे हैं वह ख़बर है या विज्ञापन । मुजफ्फरपुर में दो राष्ट्रीय अखबारों की उनिट हैं । दैनिक हिंदुस्तान और दैनिक जागरण का । मुझे एक दिन पता चला कि कानपूर से यहाँ के संपादक को एक पत्र आया है कि जनसंपर्क की ख़बर छपने के बदले प्रत्याशियों से पैसे लें । यानि पुरे लाख-दो लाख के पॅकेज थे । बड़े दल के प्रत्याशियों ने लाखों रुपये देकर बड़ी-बड़ी खबरें प्रकाशित करवाते रहे । जो लिख कर दिया वही छापा । पाठक नयी तरह की खबरें परहने को मजबूर थे । उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि इसे विज्ञापन कहूँ या समाचार । पहले दैनिक जागरण ने पहले लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को गिरवी रखा तो उसका अनुसरण दैनिक हिंदुस्तान ने भी किया, लेकिन इसने थोडी इज्जत बचाकर । क्योंकि इसने एचटी मीडिया एडव लिखा । दैनिक जागरण ने तो ख़बर कि तरह सब्खुच छापा लेकिन लिया मोटी रकम । बेचारे निर्दलीय एवं गरीब प्रत्याशियों देखते ही रह गए । उनकी कौन सुधि लेता है। सबसे ज्यादा जो मुझे झकझोरा वह था मौन छुप्पी । अखबारों के मालिकों के खिलाफ क्यों नहीं आक्रोश हुआ जनता में, क्यों नहीं आन्दोलन हो रहे हैं बिक चुकी मीडिया घरानों के खिलाफ । अखबार क्यों नहीं जलाया जा रहा है । लोकतंत्र को बचाना है तो पत्रकारिता को बचाना होगा । गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता कहाँ गयी ।

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