बुधवार, 30 सितंबर 2015

किसानों को बदनसीबी देकर लौट रहा माॅनसून


  •  संतोष सारंग
कमजोर माॅनसून ने भारतीय किसानों को एक बार फिर संकट में डाल दिया है। कम बारिश के कारण खरीफ फसलें झुलस रही हैं। बिहार के किसान धान के हरे-हरे पौधे काटकर मवेशी को खिला रहे हैं। देश के अन्य हिस्सों के किसान भी मौसम की असहनीय मार झेलते हुए हिम्मत हार रहे हैं। सौराष्ट्र से लेकर बुंदेलखड तक के किसान आत्मघाती कदम उठाने को विवश हैं। देश के अन्नदाताओं के हिस्से में दुख, चिंता, संत्रास की काली छाया के अलावा है ही क्या? उम्मीदों की फसल काटने के लिए बैंक व महाजन से कर्ज लेते हैं और बदले में मिलती है नाउम्मीदी की मौत। अभिशप्त जिंदगी और फसल व अनमोल जीवन के मुआवजे का लाॅलीपाॅप। 
भारतीय किसानों की त्रासदी समझने के लिए ये तस्वीरें काफी हैं। तेलंगाना के मेडक जिले के रयावरम गांव का एक किसान आत्महत्या कर लेता है। दुनिया छोड़ने से पहले वह अपने सात वर्ष के बेटे से कहता है, ‘बेटे, कभी किसान मत बनना’। बुंदेलखंड के महोबा जिले के ननौरा गांव के किसान रामकिशन पटेल को उम्मीद थी कि इस वर्ष अच्छी फसल होगी, लेकिन मौसम ने दगा दिया। कर्ज से दबे रामकिशन इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर सके। देश के किसानों की बदनसीबी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। एक अनुमान के मुताबिक, बीते दो दशकों में देश के 1.25 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली। किसानों की त्रासदी इन आंकड़ों से समझा जा सकता है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, इस वर्ष के प्रथम छह माह में महाराष्ट्र में 1300 किसानों ने सुसाइड किया है, जबकि बीते वर्ष 1981 किसानों ने आत्महत्या की थी। इससे जाहिर है कि साल-दर-साल किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला बढ़ रहा है। आंकड़ों पर विश्वास करें तो पिछले एक साल में किसानों की आत्महत्या की दर में 20 फीसदी की वृद्धि हुई है। 2001 से लेकर 2011 तक देश के लगभग 90 लाख किसानों ने खेती छोड़कर अन्य काम-धंधों पर लग गये।         
माॅनसून का सीजन बीतने को है, फिर भी किसान अंतिम उम्मीदों के साथ आसमान की ओर ललचाई नजरों से छकाते बादलों को देख रहे हैं। एक बार बादल बरस जाये, तो शायद फसल को जीवनदान मिल जाये। लेकिन ऐसा होने की उम्मीद नजर नहीं आ रही। मुजफ्फरपुर के युवा किसान फुलदेव पटेल कहते हैं कि सात कट्ठा धान के खेत में एक बार पंपसेट से पटवन करने में 820 रुपये लगा। 120 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से सात कट्ठा धान के खेत को सिंचित करने में छह घंटे लगे। सिंचाई करने की दोबारा हिम्मत नहीं हुई। सात कट्ठे में दो किलो धान भी हो जाये, तो बहुत है। बोआई के समय भी जेब ढीली करनी पड़ी और अब फसल बचाने के लिए करनी पड़ रही है।   
खेती-किसानी व मनीआॅर्डर इकोनाॅमी वाले बिहार में 50 फीसदी से कम बारिश दर्ज की गयी। सितंबर तक बिहार के भोजपुर, अररिया, मुजफ्फरपुर, नालंदा, शिवहर, सीतामढ़ी, गया, गोपालगंज समेत 19 जिलों में 46 फीसदी से कम बारिश हुई। इस कारण खरीफ फसलें चैपट हो रही हैं। गुजरात में भी 66 प्रतिशत ही बारिश हुई। सौराष्ट्र इलाके की स्थिति तो और ही विकट है। अल्पवृष्टि के कारण वहां के बांधों में भी सिंचाई के लिए ज्यादा पानी नहीं बचा है। जामनगर जिले के बांध में सिर्फ पांच फीसदी ही पानी बचा है। जूनागढ़ के बांधों में सिर्फ 13 फीसदी व पोरबंदर जिले के बांधों में सिर्फ 8 फीसदी पानी शेष है। पानी की कमी से कपास व तिलहन फसल अधिक बर्बाद हुई है।
यह लगातार दूसरा साल है, जब माॅनसून कमजोर रहा। भारत के कृषि उत्पादन का माॅनसून से सीधा संबंध है। 2010 में जब बारिश औसत से 2 फीसदी अधिक हुई थी, तब कृषि उत्पादन में 8.6 फीसदी का इजाफा हुआ था। एक साल पूर्व जब बारिश में 21.8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी, तब कृषि उत्पादन में 0.8 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी। देश में 2009 जैसे सूखे के हालात बन रहे हैं। इस बात की चेतावनी देते हुए मौसम विभाग ने से कहा है कि अगस्त महीने तक समूचे देश में सामान्य से 12 फीसदी कम बारिश हुई है। माॅनसून पर अलनीनो का साफ असर दिख रहा है। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार, अबतक देश के 40 फीसदी इलाकों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गयी है। दक्षिण भारत के केरल, कर्नाटक व तेलंगाना की स्थिति और भयावह है। इन इलाकों में 26-44 फीसदी तक कम बारिश हुई है। वहीं मध्य महाराष्ट्र व मराठवाड़ा में सामान्य से करीब 50 फीसदी कम बारिश हुई है, जबकि पंजाब व हरियाणा में सामान्य से करीब 35 फीसदी कम बारिश हुई है। बिहार व यूपी के हालात भी बेहद खराब है। इससे किसानों की कमर टूट सकती है।
देश के लगभग 283 जिले सूखे की चपेट में हैं। अल्पवृष्टि ने सबको परेशान कर रखा है। कहने को तो मौसम विभाग, कृषि विशेषज्ञ व सरकार भी देश के इस हालात से ंिचंंितत है। विभागीय अधिकारी का भी रोना है कि कृषि आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए यह मौसम बेहद खराब है। चालू वित्तीय वर्ष में कमजोर माॅनसून का कृषि उत्पादन पर असर पड़ना तय है। जिसे देश की 60 फीसदी खेती माॅनसून पर निर्भर है, उसकी सेहत पर कमजोर माॅनसून का असर तो पड़ना ही है।
इस बुरी खबर के बीच केंद्रीय विŸा मं़त्री अरुण जेटली ने देश की जनता को भरोसा दिलाया है कि देश में खाद्यान्न के पर्याप्त भंडार है। अतः देशवासियों को घबराना नहीं चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हम कीमतें बढ़ने नहीं देंगे और लोगों को उचित दर पर सभी आवश्यक खाद्य सामग्री उपलब्ध करायेंगे। कृषि मंत्री राधामोहन सिंह कहते हैं कि कमजोर माॅनसून से निबटने के लिए सरकार ने आपात योजना बना ली है। उधर कैबिनेट की बैठक में दो महीना पहले ही मौसम का पूर्वानुमान देखते हुए सभी मंत्रियों को अपने-अपने विभाग की तैयारियां तेज करने का निर्देश दिया था। लेकिन प्रधानमंत्री व विŸामंत्री की बातों पर देश की जनता को कितना भरोसा है, यह तो वक्त ही बतायेगा। लिहाजा, सूखे की काली छाया के बीच दहलन व प्याज की आसमान छूती कीमतों ने आमलोगों को शंकालु बना दिया है।   
कमजोर माॅनसून का धान, कपास, दलहन की पैदावार पर असर पड़ेगा। किसान कर्ज तले दबेंगे। खाने-पीने के सामान की कीमतों में इजाफा हो सकता है। महंगाई बढ़ सकती है। सवाल है कि एग्रीकल्चर सेक्टर की इस दीन-हीन अवस्था को ले केंद्र व राज्य सरकारें कितना संवेदनशील है? विश्व बैंक के एक आकलन के मुताबिक, भारत की कुल खेती के मात्र 35 फीसदी हिस्से को सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। यानी दो-तिहाई खेती माॅनसून के रहमो-करम पर है। सरकारें चाहे तात्कालिक जो भी एक्शन प्लान या आपदा योजना बना लें, खेती व किसानों को संकट से नहीं उबार सकती है। जबतक हमारी निर्भरता माॅनसून पर से कम नहीं होगी, तबतक अच्छे दिन नहीं आयेंगे। आजादी के छह दशक बाद भी मुकम्मल सिंचाई के साधन मुहैया कराने में सरकार पीछे रही। स्टेट बोरिंग का प्रयोग भी असफल रहा। आज भी सुदूर गांवों तक बिजली नहीं पहुंची, ताकि किफायती सिंचाई की व्यवस्था किसान खुद कर सके। अनियोजित विकास के कारण परंपरागत जलस्त्रोत भी नष्ट हो रहे हैं। भ्रष्ट सरकारी तंत्र के कारण नहरें भी खेतों की प्यास बुझाने में नाकाम साबित हो रही हैं। आनेवाले दिनों में जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि संकट और गहराने वाला है। ऐसी विकट स्थिति के बीच अन्नदाता को इन्द्र देवता का कृपापात्र बने रहने को छोड़कर देश के राजनीतिक नेतृत्व ने आजतक क्या किया? इसका जवाब हमारे रहनुमाओं को एक-न-एक दिन देना पड़ेगा। 


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