शनिवार, 31 जनवरी 2015

जमीन के लिए डीएम का छीनेंगे कलम

मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी प्रखंड कार्यालय के समक्ष धरने पर बैठे भूमिहीन पर्चाधारी
- पिंकी कुमारी
किसी भी आदमी के लिए रोटी-कपड़ा और मकान की जरू रत होती है. लेकिन वह मकान तभी बन पायेगा, जब उसके पास थोड़ी-सी भी जमीन हो. 70 वर्ष के राजेंद्र सहनी को 1974 में जमीन का वासगीत का पर्चा मिला, लेकिन आजतक जमीन नहीं मिली. वे करीब 40 साल से जमीन का मालिकाना हक हासिल करने के लिए दौड़-धूप  कर रहे हैं. अंचल कार्यालय से लेकर कमिश्नर साहेब एवं सरकार तक जा चुके हैं. मगर वे जमीन के मालिक नहीं बन सके. यह पीड़ा सिर्फ राजेंद्र सहनी की ही नहीं है. मुजफ्फरपुर जिले के मुशहरी प्रखंड के कोठिया गांव के दर्जनों आदमी की भी है. यहां के करीब 208 लोग पर्चाधारी हैं. ये लोग सिलिंग, भूदान एवं वासगीत पर्चा लेकर घूम रहे हैं. जमीन का पट्टा पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 
कोठिया की चित्रलेखा देवी का कहना है कि हमलोगों को 1992 में पर्चा मिला, पर जमीन पर अब तक कब्जा नहीं हुआ. जमीन का रसीद भी कटवाते हैं. हमलोग इसके लिए भूख हड़ताल किये. कमिश्नर से मिले, मुख्यमंत्री से मिले, लेकिन कुछ नहीं हुआ. उनलोगों ने सिर्फ आश्वासन दिया. मीनू देवी, निर्मला देवी का कहना है कि हमलोगों के पास जमीन नहीं हैं. इसलिए सड़क किनारे झोंपड़ी बनाकर रहते हैं. इसी गांव के बैजू ठाकुर का कहना है कि 1997-98 से जमीन का रसीद कटवा रहे हैं, फिर भी जमीन कब्जे में नहीं आया. सभी जमीन बेची जा रही है. पर्चाधारियों को मिली जमीन में मॉल व नर्सरी खोले जा  रहे हैं. भू-माफिया जमीन बेच रहे हैं. कोई अधिकारी हमलोगों की बात नहीं सुनता है. अब हमलोग एकजुट होकर अंचलाधिकारी, सीआई एवं डीएम का कलम छीनेंगे. जिस कलम से जनता का काम करना है, यदि उस कलम से हो नहीं रहा, तो उसके पास क्यों रहेगा?
भूमिहीनों व गरीबों को हक दिलाने के लिए जिले के हरेक ब्लॉक में लोग लगातार आंदोलन कर रहे हैं. मुहल्ला सभा बनाकर ये लोग एकजुट हुए हैं. आंदोलनकारियों का नेतृत्व करनेवाले आनंद पटेल कहते हैं कि भूमाफियाओं व अधिकारियों के गठजोड़ के कारण गरीबों को जमीन नहीं मिल रही है. हम इन्हें हक दिलाकर रहेंगे. अधिकारियों को घेरेंगे.
- पिंकी कुमारी, अप्पन समाचार की रिपोर्टर है.

सोमवार, 26 जनवरी 2015

हिम्मत और साहस की बेजोड़ कहानी

तहलका के फोटो जर्नलिस्ट विकास कुमार ने अप्पन समाचार की लड़कियों के बारे में एक बढिया रपट लिखी है. अप्पन समाचार की लड़कियों का मैं कायल हूं, क्योंकि ठेठ गांव की इन लड़कियों ने तकनीक का इस्तेमाल करके जो काम किया है वह मुझे भूतो न भविष्यति टाइप लगता है. जाहिर है मित्र संतोष सारंग भी तारीफ के बराबर के हकदार हैं. बहरहाल अनुरोध करके विकास जी से यह खबर मैंने पगडंडी के लिए मांग ली है. शीर्षक भी उन्हीं के फेसबुक स्टेट से लिया है. हमने पहले यह खबर पंचायतनामा के लिए भी लिखी थी, मगर तब हमारे पास उतनी बेहतर तसवीरें नहीं थी जितनी विकास के कैमरे से निकली हैं. और फिर विकास ने नयी निगाह से अप्पन समाचार के काम को देखा है जो इस स्टोरी को पठनीय बनाता है. मैं खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं क्योंकि इन बच्चियों के साथ मुझे भी पूरा दिन गुजारने का मौका मिला है... बहरहाल इस खबर को पढ़ा जाये और इन बेहतरीन तसवीरों का आनंद लिया जाये.... तहलका का आभार...
जनवरी महीने की तीन तारीख है. सुबह के दस बज चुके हैं, लेकिन धूप नहीं निकली है. हम इस वक्त बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के एक छोटे से गांव कोठिया में हैं. गांव के लोग घरों से निकलकर पास की खाली जगह की तरफ जा रहे हैं. गांव के बच्चे भी कमेरा-कमेरा (कैमरा-कैमरा) चिल्लाते उसी ओर दौड़ रहे हैं. यहां एक 20-22 साल की युवती एक खबर बोल रही है और उसकी टीम उसे रिकॉर्ड कर रही है. लेकिन बीच-बीच में बच्चों के चिल्ला देने की वजह से उसे बार-बार रुकना पड़ रहा है. लेकिन इसके बावजूद वह खीझ नहीं रही. मुस्कुराते हुए वह उन बच्चों से कहती है, ‘थोड़ा देर चुप रह जो, फेरू फोटो खिंच देबऊ.’ बच्चों के शोर की वजह से चार-पांच बार रिकॉर्डिंग रुकती है और हर बार टीम की लड़कियां उन बच्चों का मनुहार करती हैं. कुछ कोशिशों के बाद रिकॉर्डिंग पूरी हो जाती है.
समझा-बुझाकर काम करने का यह सिलसिला पिछ्ले सात साल से चल रहा है. साल 2007 के दिसंबर महीने में मुजफ्फरपुर के पारो ब्लॉक के एक छोटे से गांव चांदकेवारी से इस अनूठे समाचार माध्यम ‘अप्पन समाचार’ की शुरुआत हुई, जिसे सात लड़कियां चलाती हैं. संसाधन के नाम पर इनके पास आया एक सस्ता वीडियो कैमरा, एक ट्राईपॉड और एक माईक्रोफोन. और इसके साथ ही शुरू हो गई खबरों के लिए इन लड़कियों की भागदौड़. तब से अब तक यह भागदौड़ बदस्तूर जारी है.
‘अप्पन समाचार’ के पीछे पहल है युवा पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग की. हिम्मत, जुनून और जज्बा उन सात लड़कियों का, जो खबर के लिए साइकल से गांव-गांव जाती हैं. और सहयोग स्थानीय लोगों का, जिन्हें अब उनके इस काम से कोई परेशानी नहीं है. अब तो उन्हें अपने गांव की इन खबरचियों पर गर्व है.
ये सारी लड़कियां पढ़ाई कर रही हैं. दो लड़कियां गांव के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हैं जहां इन्हें हर महीने महज 600 रुपये मिलते हैं. इनकी उम्र 14 से 24 साल के बीच है, लेकिन बुलंद हौसलों से लबरेज ये लड़कियां लगातार काम कर रही हैं. सबके सहयोग से अब तक पच्चीस एपिसोड बना चुकी हैं. खबरों के चयन और उनकी रिपोर्टिंग-रिकॉर्डिंग के बाद इन लड़कियों में से कोई उसे लेकर मुजफ्फरपुर जाता है, जो गांव से तकरीबन 50 किलोमीटर दूर है. वहां एक स्टूडियो में इनकी एडिटिंग होती है. यह स्टूडियो चलाने वाले राजेश बिना किसी शुल्क के इन टेप्स को एडिट करते हैं और एडिट टेबल पर लड़कियों को वीडियो एडिटिंग की बारीकियां भी समझाते जाते हैं. उसके बाद खबरों की सीडी गांव वापस आती है और उसे सीडी प्लेयर के माध्यम से गांव वालों के बीच दिखाया जाता है.
सवाल यह है इतनी मेहनत से इस समाचार माध्यम को चलाने की जरूरत क्या है? इस सवाल के जवाब में टीम की सदस्य सविता कहती हैं, ‘बड़े समाचार चैनल न तो हमारे गांव तक पहुंच पाते हैं और न ही वे हम लोगों की रोजमर्रा की परेशानियां दिखाते हैं. हम लोग इन दिक्कतों से रोज दो-चार होते हैं. ऐसे में हमें अपने बीच की परेशानियों को उठाने और लोगों के बीच दिखाने में खुशी होती है.’
सविता की इस बात को टीम की दूसरी सदस्य ममता आगे बढ़ाती हैं. वह कहती हैं, 'इस तरह की खबर हम ही दिखा सकते हैं. बड़े-बड़े चैनल्स को बड़े-बड़े मुद्दे चाहिए. वह इन मुद्दों पर रिपोर्टिंग नहीं करते हैं.' इस तरह बातों-बातों में ममता यह अहसास करा जाती हैं कि कथित बड़े चैनल केवल शहरों तक सीमित हो गए हैं. वे चुनाव या किसी बड़ी आपदा के वक्त ही गांव पहुंचते हैं.
इनकी दिखाई खबरों का असर भी हुआ है. ममता कहती हैं, ‘किसान क्रेडिट कार्ड देने के लिए किसानों से पैसे लिए जा रहे थे. हमने खबर बनाई और दिखाई. बैंक मैनेजर से सवाल किया. हमारी खबर की वजह से इलाके के किसानों को मुफ्त में किसान क्रेडिट कार्ड मिले. पास के स्कूल में कमरों का निर्माण घटिया किस्म की ईंटों से किया जा रहा था. हमने उसकी रिपोर्टिंग की और इस वजह से ईंटों की पूरी खेप वापस भेजी गई. जब हमारी वजह से कुछ अच्छा होता है, किसी को उसका हक मिलता है, तो हम सब को बहुत खुशी होती है और इस खुशी के लिए हम और अधिक मेहनत करना चाहते हैं.’
इस टीम की खबरों से जितना असर हुआ, वो तो है ही, असल बदलाव तो इनके बाहर निकलने और सवाल करने से हुआ है. पूरे इलाके में बेटियों के प्रति सोच में बदलाव आया है. लड़कियों को पढ़ाने और लायक बनाने की कोशिश हो रही है. इस बारे में संतोष बताते हैं, ‘यह इलाका नक्सल-प्रभावित रहा है. शाम होते ही इस इलाके में आना-जाना बंद हो जाता था. लड़कियों का पढ़ना-लिखना तो दूर की बात थी. आज स्थिति ऐसी नहीं है. आज लड़कियां पढ़ रही हैं.' दरअसल पहली बार इलाके के लोगों को यह दिख रहा है कि उनकी बिटिया बैंक मैनेजर से लेकर बीडीओ तक से सवाल कर रही है. उन्हें यह भी दिख रहा है कि इनके सवाल करने से उनकी जिंदगी की दुश्वारियां थोड़ी कम ही हुई हैं.
लेकिन यह कोशिश आसान नहीं रही है. खबरों की खोज में निकलने वाली लड़कियों और संतोष के सामने इस दौरान कई तरह की दिक्कतें भी आईं, लेकिन इनके बुलंद हौसलों के सामने दिक्कतें छोटी पड़ गईं. संतोष कहते हैं, ‘संसाधनों के मामले में हम शुरू से कमजोर हैं. इस वजह से थोड़ी दिक्कत आती है, लेकिन इस कमी की वजह से यह प्रयास थमेगा नहीं.'
अभी कुछ ही समय पहले की बात है. अमेरिका के एक स्वयंसेवी संस्थान ने टीम से संपर्क किया. उन्होंने कहा कि वे अप्पन समाचार को सहयोग देना चाह रहे हैं. संतोष बताते हैं, 'हमने उनका स्वागत किया. लड़कियां भी खुश थीं, लेकिन जब वे लोग आए तो पता चला कि इस सहयोग के बहाने वे हमारी पूरी मेहनत को हथियाना चाह रहे हैं. हमने लड़कियों के सामने पूरा प्रस्ताव रख दिया और कहा कि वे चुनाव कर लें. लड़कियों और ग्रामीणों ने एक सिरे से उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया. हम सहयोग जरूर चाह रहे हैं, लेकिन कोई हमारी कीमत लगाए, यह हमें कतई मंजूर नहीं है.’
- पुष्यमित्र जी के ब्लॉग पगडंडी से साभार 
 http://tehelkahindi.com/appan-samachar-in-bihar/
http://hindustanigaon.blogspot.in/2015/01/blog-post_35.html

सावन हे सखी सगरो सोहावन

गांव के लोग प्रकृति के साथ जीते हैं। खेत-खलीहान, बाग-बगीचा, कीट-पतंग के सहचर हैं गांव के लोग। मौसम के हिसाब से गीत गाने की परंपरा रही है। हरेक मौसम के अपने-अपने लोकगीत हैं, जो गांव में पहले गूंजते थे। अब गांव पर भी शहर का असर पड़ रहा है। इस वजह से लोग मुंबइया गीत सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। लेकिन गांव की महिलाओं के मुख से गाये जाने वाले गीतों का जवाब नहीं। अप्पन समाचार की एंकर खुशबू कुमारी ने गांव में गूंजनेवाले गीतों का संकलन किया है। पेश है एक बानगी - ‘‘सावन हे सखी सगरो सोहावन
रिमी-झिमी बरसले मेघ हे
भादो हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बा अंहरिया के रात
आसिन हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बाटे ओसवा के दिन हे
कातिक हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बाटे गंगा असनान हे
अगहन हे सखी, सगरो सोहावन
धनवा भइल कचनार हे
पूस हे सखी, सगरो सोहावन
चकवा-चकैया राम धुरिया लगावले
धनवा भइले खरीहान हे’’

इस गंवई गीत में महिलाएं हरेक हिन्दी महीने का वर्णन करती हैं. विशेषकर धान पककर खरीहान (खलिहान) में जाने के बाद इस गीत को गाया जाता है.
‘‘धोबिया के नदवा में छीप-छाप पानी
पंडिजी करले असनान हो राम
धोतियो न भिंजले, जनेऊओ न भिंजले
टोपिया गइले दहलाई हो राम।
हरवा लेले हरवहवा रोए
छितनी लिहले बनिहरवा हो राम
हालि-हुली बरस इनर देवता
पानी बिनू परल बा अकाल हो राम’’

यह गीत अच्छी फसल के लिए भगवान से पानी मांगने यानी वर्षा करवाने के लिए गाया जाता है.  वर्षा न होने पर हरवाहा (हलवाहा) और बनिहरवा (किसान) के दुख को दिखाते हुए इंद्र भगवान से पानी मांगा जा रहा है.
‘‘चकवा भइया चललन हो अहेरिया
कि खीरलीय बहिनी, हमरो चदरिया
कि हम जएबो हाजीपुर बजरिया
तोरा लागी लक्ष्बो चकेउआ
कि धनी लागी लक्ष्बो सिघोरवा
टूटी फाटी जइहेन चकेउआ
कि जुगे-जुगे रहिहेन सिंघोरवा।’’

इस गीत में भाई-बहन के प्यार को दिखाया गया है. चकवा खेलते समय बहन अपनी भाभी के सिंघोरा को युग-युग जीने को कह रही है. यानी अपने भाई की लंबी उमर की कामना कर रही हैं.
‘‘कमल के फूल, कुसुम रंग सारी, पेन्हे के परतऊ रे डैनी
अठमी, सतमी, नौमी के दिनवा, नाचे के परतऊ रे डैनी।’’
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‘‘डैनी लागी लक्ष्बो कुसुम रंग सारी
पेन्हीहे-ओढ़िये इइनी, भइले तइयारी
अपने ही बेटवा के चबइहे गे डयनी।’’

ऐसा माना जाता है कि आश्विन नवरात्र में डायन जादू-टोना करती हैं. डायन को भगाने के लिए लड़कियां ङिाङिाया खेलते हुए यह गीत गाती हैं.
‘‘कदम के डाल के नीचे
बेटी पापा से अर्ज करती है-
पापाजी, शादी मत कीजिए
उमर बारह बरिस की है
लिखा दीजिए नाम कॉलेज में
पढ़ूंगी, देश की भाषा बनूंगी
देश की नेता बनूंगी
देश की सेवा करुंगी।’’

इस गीत में बारह वर्ष की बेटी अपने पापा को कम उम्र में शादी न करने के लिए मना रही है. इस बोल के जरिये बाल विवाह का विरोध किया गया है.
‘‘ पापाजी, तिरहुत के बरवा (वर) बड़ा सुंदर, बर खोज दिअऊ हे
बेटी, तिरहुतवा के बर बड़ा सुंदर तिलकवा जादे मांगत है।’’

इस गीत में बेटी पापा से तिरहुत इलाके के वर को ही ठीक करने का अर्ज करती है. तिरहुत का दूल्हा बड़ा सुंदर होता है. बेटी की इच्छा के विपरित बाबूजी बेटी को समझाते हैं कि तिरहुत का वर तो सुंदर होता है, लेकिन तिलक-दहेज अधिक मांगता है, जिसे मैं देने में सक्षम नहीं हूं.

गांवों में लोकगीत का काफी प्रचलन था. महिलाएं खेती के लिए, वर्षा के लिए, भाई की लंबी उम्र के लिए गीत गाती थीं. जीवन के हरेक मोड़ को गाने में सजाना चाहती थीं. सुख-दुख को गीतों के द्वारा व्यक्त करती थीं. यहां तक कि लड़कियां बाल विवाह का विरोध भी गीत के माध्यम से करती थीं. लेकिन आज तो जैसे ये लोकगीत समाज-गांव से गायब हो गये हैं. आज पश्चिमी गीतों व डिस्को-डांस का जमाना चल पड़ा है.

-- लोकगीतों पर आधारित यह आलेख अप्पन समाचार की एंकर खुशबू कुमारी ने लिखा है.