सोमवार, 26 जनवरी 2015

सावन हे सखी सगरो सोहावन

गांव के लोग प्रकृति के साथ जीते हैं। खेत-खलीहान, बाग-बगीचा, कीट-पतंग के सहचर हैं गांव के लोग। मौसम के हिसाब से गीत गाने की परंपरा रही है। हरेक मौसम के अपने-अपने लोकगीत हैं, जो गांव में पहले गूंजते थे। अब गांव पर भी शहर का असर पड़ रहा है। इस वजह से लोग मुंबइया गीत सुनना ज्यादा पसंद करते हैं। लेकिन गांव की महिलाओं के मुख से गाये जाने वाले गीतों का जवाब नहीं। अप्पन समाचार की एंकर खुशबू कुमारी ने गांव में गूंजनेवाले गीतों का संकलन किया है। पेश है एक बानगी - ‘‘सावन हे सखी सगरो सोहावन
रिमी-झिमी बरसले मेघ हे
भादो हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बा अंहरिया के रात
आसिन हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बाटे ओसवा के दिन हे
कातिक हे सखी, सगरो सोहावन
आइल बाटे गंगा असनान हे
अगहन हे सखी, सगरो सोहावन
धनवा भइल कचनार हे
पूस हे सखी, सगरो सोहावन
चकवा-चकैया राम धुरिया लगावले
धनवा भइले खरीहान हे’’

इस गंवई गीत में महिलाएं हरेक हिन्दी महीने का वर्णन करती हैं. विशेषकर धान पककर खरीहान (खलिहान) में जाने के बाद इस गीत को गाया जाता है.
‘‘धोबिया के नदवा में छीप-छाप पानी
पंडिजी करले असनान हो राम
धोतियो न भिंजले, जनेऊओ न भिंजले
टोपिया गइले दहलाई हो राम।
हरवा लेले हरवहवा रोए
छितनी लिहले बनिहरवा हो राम
हालि-हुली बरस इनर देवता
पानी बिनू परल बा अकाल हो राम’’

यह गीत अच्छी फसल के लिए भगवान से पानी मांगने यानी वर्षा करवाने के लिए गाया जाता है.  वर्षा न होने पर हरवाहा (हलवाहा) और बनिहरवा (किसान) के दुख को दिखाते हुए इंद्र भगवान से पानी मांगा जा रहा है.
‘‘चकवा भइया चललन हो अहेरिया
कि खीरलीय बहिनी, हमरो चदरिया
कि हम जएबो हाजीपुर बजरिया
तोरा लागी लक्ष्बो चकेउआ
कि धनी लागी लक्ष्बो सिघोरवा
टूटी फाटी जइहेन चकेउआ
कि जुगे-जुगे रहिहेन सिंघोरवा।’’

इस गीत में भाई-बहन के प्यार को दिखाया गया है. चकवा खेलते समय बहन अपनी भाभी के सिंघोरा को युग-युग जीने को कह रही है. यानी अपने भाई की लंबी उमर की कामना कर रही हैं.
‘‘कमल के फूल, कुसुम रंग सारी, पेन्हे के परतऊ रे डैनी
अठमी, सतमी, नौमी के दिनवा, नाचे के परतऊ रे डैनी।’’
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‘‘डैनी लागी लक्ष्बो कुसुम रंग सारी
पेन्हीहे-ओढ़िये इइनी, भइले तइयारी
अपने ही बेटवा के चबइहे गे डयनी।’’

ऐसा माना जाता है कि आश्विन नवरात्र में डायन जादू-टोना करती हैं. डायन को भगाने के लिए लड़कियां ङिाङिाया खेलते हुए यह गीत गाती हैं.
‘‘कदम के डाल के नीचे
बेटी पापा से अर्ज करती है-
पापाजी, शादी मत कीजिए
उमर बारह बरिस की है
लिखा दीजिए नाम कॉलेज में
पढ़ूंगी, देश की भाषा बनूंगी
देश की नेता बनूंगी
देश की सेवा करुंगी।’’

इस गीत में बारह वर्ष की बेटी अपने पापा को कम उम्र में शादी न करने के लिए मना रही है. इस बोल के जरिये बाल विवाह का विरोध किया गया है.
‘‘ पापाजी, तिरहुत के बरवा (वर) बड़ा सुंदर, बर खोज दिअऊ हे
बेटी, तिरहुतवा के बर बड़ा सुंदर तिलकवा जादे मांगत है।’’

इस गीत में बेटी पापा से तिरहुत इलाके के वर को ही ठीक करने का अर्ज करती है. तिरहुत का दूल्हा बड़ा सुंदर होता है. बेटी की इच्छा के विपरित बाबूजी बेटी को समझाते हैं कि तिरहुत का वर तो सुंदर होता है, लेकिन तिलक-दहेज अधिक मांगता है, जिसे मैं देने में सक्षम नहीं हूं.

गांवों में लोकगीत का काफी प्रचलन था. महिलाएं खेती के लिए, वर्षा के लिए, भाई की लंबी उम्र के लिए गीत गाती थीं. जीवन के हरेक मोड़ को गाने में सजाना चाहती थीं. सुख-दुख को गीतों के द्वारा व्यक्त करती थीं. यहां तक कि लड़कियां बाल विवाह का विरोध भी गीत के माध्यम से करती थीं. लेकिन आज तो जैसे ये लोकगीत समाज-गांव से गायब हो गये हैं. आज पश्चिमी गीतों व डिस्को-डांस का जमाना चल पड़ा है.

-- लोकगीतों पर आधारित यह आलेख अप्पन समाचार की एंकर खुशबू कुमारी ने लिखा है.

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