गांव के हाट-बाज़ार में बहुत कुछ बिकता है । मसलन : टिकुली-सेनुर, गमछा-लुंगी, कचरी-बरी, आलू-प्याज, मुर्गा-मछली आदि । किंतु, दुनिया के बाज़ार में सब कुछ बिकता है । मसलन : रिश्ते-नाते, मां की ममता, भाई-बहन का राखी में पिरोया प्यार, पति-पत्नी के मंगलसूत्र में गुंथे मोहब्बत, इंसानियत, जिस्म, किडनियां, जमीर, नैतिकता, बोतलबंद शराब, कलम, खबरें यानि सबकुछ । आप सभी सुधि पाठकों से गुजारिश है कि ग्राहक की हैसियत से अपनी पसंद का कोई भी सामान जरूर खरीद लें । कुछ सामानों पर विशेष छुट की सुविधा उपलब्ध है ।
जी, जब खरीद-बिक्री की बात चली है तो चलिए न मीडिया की मंडी में देखते हैं खबरों का भाव क्या है ? चुनाव के कारण खबरों का भाव थोड़ा चढ़ गया था, फिलहाल कुछ ठीक-ठाक चल रहा है । चुनाव के दरम्यान कुछ मीडिया संस्थानों ने खबरों के साथ अपना जमीर भी बेचा । धनी खरीददारों ने तो जमकर मार्केटिंग की, परन्तु गरीब प्रत्याशी तो देखते ही रह गए । सुधि पाठक भी ठगे रह गए । पर सियासत पर तिजारत करनेवाले की तो जय-जय हो गयी । यह अलग बात है कि इस काली कमाई को श्वेत धवल चादर से ढकने के मकसद से जनजागरण भी चलता रहा । शिवहर से भारतीय जनतांत्रिक जनता दल के प्रत्याशी शत्रुघ्न कुमार और बसपा के वैशाली से शंकर महतो जैसे हजारों सामान्य आर्थिक पृष्टभूमि वाले प्रत्याशियों में आज भी गुस्सा है । आक्रोश तो प्रबुद्ध पाठको में भी है ।
एक घटना का जिक्र करना यहाँ उचित होगा । बातें चुनाव से जुड़ी हैं । बिहार के मुजफ्फरपुर के खुदी राम बोस स्टेडियम में मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार की चुनावी जनसभा थीं । पत्रकार गैलरी में सजी कुर्सियों पर स्थानीय नेता-कार्यकर्ता पहले से जमे थे । शहर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उनसे आग्रहपूर्वक कहा, 'भईया, ये कुर्सियां पत्रकारों के लिए रखी हैं, कृपया खाली तो कर दे ।' मंच पर विराजमान एक सज्जन ने आवाज दी, 'भाई साहेब, पैसा लेकर ख़बर छापते हैं तो कुर्सी कैसे मिलेगी । पैसा और कुर्सी दोनों नहीं मिलती हैं ।' उस गंभीर व तेजतर्रार पत्रकार की जैसे जुबान ही सिल गयी । वे बुदबुदाये, ' इमान बेचता है इक्का-दुक्का अखबार और भुगतना पड़ता है पूरी पत्रकार बिरादरी को ।' और देर से खड़े कुछ पत्रकारों ने बांस-बल्ले के सहारे उस सभा को कवर किया । यह मीडिया के गिरते स्तर की बानगी भर नहीं है, बल्कि पत्रकारिता जगत को शर्मशार करने के लिए काफी है ।