सोमवार, 4 सितंबर 2017

ओडीएफ पर मीडिया ब्रीफिंग एवं परिचर्चा



31 अगस्त 2017 को सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसइ) के बैनर तले पटना के चाणक्या होटल में मीडिया ब्रीफिंग एवं परिचर्चा का आयोजन किया गया, जिसमें कई प्रदेशों के पत्रकारों एवं जनसंगठनों ने हिस्सा लिया. यह कार्यक्रम ओडीएफ पर आधारित था. इस कार्यक्रम को सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण, डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक समेत बिहार सरकार के वरीय अधिकारी भी शामिल हुए.

बुधवार, 24 मई 2017

हिंदी उपन्यासों में ग्रामीण जनजीवन का चित्रण


- संतोष सारंग

उत्तर आधुनिकता का लबादा ओढ़े आज का आम आदमी नगरीय तौर-तरीके अपनाने को आकुल है। ग्राम्य जीवन में भी शहरीपन समा चुका है। ठेठ देहाती जीवन मूल्यों पर चोट करती अपसंस्कृति का दर्शन खेत-खलिहानों व पगडंडियों तक में हो जाता है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण के कारण ग्रामीण जनजीवन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। टूटते-बिगड़ते रिश्तों की डोर, सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर स्व तक सीमित हो जाना, सहजीवन की वृत्तियों को भुला देना, यह क्या है? प्रगतिशील समाज का द्योतक या समाज का विघटन। समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन प्रगतिवादियों के लिए शुभ हो सकता है, लेकिन एक मजबूत सामाजिक परंपरा के लिए कमजोर करनेवाली प्रक्रिया है। आज का गांव नये रूप में आकार ले रहा है। आधुनिकता की खुली हवा में जवान होती आज की पीढ़ी के खुले विचारों के कारण गांव की आबो-हवा भी बदल रही है। नये विचारों के कारण नयी जीवन पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। इसे आप विघटन कह लें अथवा सहज सामाजिक बदलाव। कथा साहित्य इस परिवर्तन को महसूस कर रहा है और इसे अपनी तरह से व्याख्यायित भी करने में पीछे नहीं है। ग्रामीण यथार्थ को साहित्य की अन्य विधाओं ने भी वर्ण्य विषय बनाया है, लेकिन उपन्यास ने ग्रामीण संवेदनाओं को, गांव की माटी में रहकर दुख-दर्द व संत्रास भोगनेवाले दलितों की दयनीय स्थिति को, किसानों की त्रासदी को पूरी ईमानदारी से हूबहू परोसकर महाकाव्यात्मक रूप धारण कर लिया है। प्रेमचन्दोत्तर युगीन कथा साहित्य ने खुद को ऐयारी-तिलिस्म, जासूसी व मनोरंजक छवि से खुद को बाहर निकालकर बदलते गांव की छटपटाहट को महसूस कर उसकी कथा-व्यथा को जीवंत तरीके से चित्रित किया है।     
हिन्दी उपन्यासों में ग्राम्य जीवन का वृहत् चित्रण सर्वप्रथम प्रेमचंद के उपन्यासों में दिखाई देता है। प्रेमचंद ने उपन्यासों में वैसे तो समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण किया है, लेकिन सबसे अधिक श्रमशील रहनेवाले किसानों पर लिखा है; जिसकी आबादी करीब 85 फीसदी है। प्रेमचंद के साहित्य संसार में प्रविष्ट करने का मतलब है भारतवर्ष के गांवों को सच्चे रूप में देखना। उपन्यास सम्राट का साहित्य ग्राम्य चेतना से ओतप्रोत है। प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ महाकाव्य का स्वर गूंजित करते हुए इसलिए कालजयी कृति बन सका, क्योंकि उन्होंने भारत की आत्मा में प्रेवश कर अपनी कलम चलायी।

गोदान (1936) के प्रकाशन से दस साल पहले शिवपूजन सहाय ‘देहाती दुनिया’ लिख चुके थे। यह उपन्यास भोजपुर अंचल के ग्राम्य जनजीवन के अनेक प्रसंगों का संकलन है, जो तत्कालीन गांव को यथार्थ रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। गांव की बोली-बानी, भोजपुरी संस्कृति, आंचलिक मुहावरों-कहावतों व लोकगीतों के कारण इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी गयी। 1934 में जयशंकर प्रसाद ने ‘तितली‘ में ग्राम्य जीवन के चित्र व जटिल समस्याओं का अंकन किया। इस उपन्यास के केंद्र में धामपुर गांव है, जिसकी कथा को आगे बढ़ाता है मुख्य पात्र तितली (बंजो), मधुबन (मधुआ), बाबा रामनाथ, राजकुमारी, इंद्रदेव, शैला आदि। ‘‘किसानों-मजदूरों पर होनेवाले अत्याचारों, तहसीलदारों-महंतों के हथकंडों, कलकत्ता महानगरी के जुआडी-जेबकतरों के कारनामों तथा निम्न वर्ग की दयनीय स्थिति, वेश्याओं की धनलोलुपता, विधवा राजो की अतृप्त कामभावना आदि का तितली में यथार्थ अंकन किया गया है।’’1   
         
प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु दूसरे बड़े उपन्यासकार हैं, जिन्होंने गांव को केंद्र में रखकर साहित्य साधना की। ग्राम्य चेतना से पूरित आंचलिक उपन्यास का उद्भव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास जगत की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। आजादी के सात साल बाद 1954 में ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के साथ ही ‘आंचलिकता’ ने अपना स्वतंत्र अर्थ ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पैठ बना ली। ग्रामीण जीवन पर स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भी बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन ग्राम्य चेतना को आंचलिक शब्द में पिरोने का काम रेणु ही कर सके। ‘‘इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अंचल को और उसकी कथा-व्यथा को संपूर्णता में उकेरने वाला यह हिन्दी का पहला उपन्यास है और ‘गोदान’ की परंपरा में हिन्दी का अगला। रेणु के उपन्यासों की शुरुआत वहां से होती है, जहां से प्रेमचंद के उपन्यासों का अंत होता है अर्थात् जब टूटती सामंती व्यवस्था का स्थान नया पूंजीवाद लेने लगता है। गोदान का मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन और वह उसी प्रकार समष्टिमूलक उपन्यास है जिस प्रकार टॉल्सटाय का ‘वार एंड पीस’, शोलोकोव का ‘क्वाइट फ्लोज द डोन’ तथा अमरीकी उपन्यासकारों सिन्क्लेयर लीविस और जॉन स्टाइनवेक की रचनाएं। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी अपनी इस कृति में व्यष्टि को नहीं समष्टि को प्रधानता दी है; यहां व्यक्ति गौण, प्रासंगिक ही है। इसकी कहानी व्यक्ति की नहीं, पूरे गांव की कहानी है। वह अंचल की जिन्दगी सामने रखता है।’’2 

उपन्यास सम्राट प्रेमचंद व आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के बाद ग्राम्य संवेदनाओं को गहराई से पकड़नेवाले कथाकारों में अररिया जिले के नरपतगंज गांव में किसान  परिवार में 1 जनवरी 1945 को जन्मे रामधारी सिंह दिवाकर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे ग्राम्य चेतना के कुशल चितेरे कहे जा सकते हैं। रेणु के बाद गांव-अंचल पर उपन्यास लेखन कर्म के दूसरे बड़े सिद्धहस्त शिल्पी माने जाते हैं। उनके लेखन व चिंतन में गांव की माटी की खुशबू पोर-पोर में समाहित है। दिवाकरजी पर रेणु का प्रभाव साफ-साफ दृष्टिगोचर होता दिखता है, तो इसका पुख्ता कारण भी है। कोसी अंचल के जिस इलाके में रेणुजी का लेखन व जीवन पल्लवित-पुष्पित हुआ, उसी इलाके में दिवाकरजी का भी बचपन बीता, जवानी के दिन बीते और लिखना शुरू किया। रेणु का सानिध्य मिला, तो उनके लेखक मन पर गांव की माटी में साहित्य साधना के बीज अंकुरने लगे, जो आगे चलकर उनके लेखन का आधार बीज बनकर साहित्य जगत में छा गया।       

सुपरिचित कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर ग्रामीण जनजीवन के सशक्त कथाकार हैं। उनके सभी उपन्यास ‘क्या घर क्या परदेश’, ‘काली सूबह का सूरज’, ‘पंचमी तत्पुरुष’, ‘आग पानी आकाश’, ‘टूटते दायरे’, ‘अकाल संध्या’ एवं ‘दाखिल खारिज’ ग्रामीण जनजीवन के दस्तावेज हैं। दिवाकर अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति ‘क्या घर क्या परदेश’ में गांव की आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों को उभारने में सफल दिखते हैं। ‘‘आज की बदली हुई परिस्थिति में गांव की स्थिति यह है कि अपने ही खेत में अपने ही हाथ से खेती करनेवाला व्यक्ति हेयदृष्टि से देखा जाता है। दूसरी ओर ऐन-केन-प्रकारेण पैसा बटोरने वाले भ्रष्ट चरित्र समाज के लिए आदर्श बन गये हैं।’’3  ‘अकाल संध्या’ उपन्यास की कथा पूर्णिया जिले के दो गांवों मरकसवा व बड़का गांव को केंद्र में रखकर बुनी गयी है। यह उपन्यास जमींदारों, सवर्णों व बबुआन टोलों के पराभव एवं दलित चेतना के निरंतर हो रहे उभार की कहानी कहता है। ‘‘शूद्रों के उदय की यह कैसी काली आंधी चली है? इस काली आंधी ने परंपरा से चली आ रही सवर्ण सत्ता के चमकते सूरज को शाम होने से पहले ही ढंक लिया। बाबू रणविजय सिंह की जमीन खरीद रहा है गांव का खवास झोली मंडर। नौकर-चाकर अब मिलते नहीं हैं। सब भाग रहे हैं-दिल्ली, पंजाब। बाबू-बबुआनों की जमीन खरीद रहे हैं गांव के राड़-सोलकन।’’4 

प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यासकारों ने गांव को आधार बनाकर दर्जनों बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं, उनमें बाबा नागार्जुन का खास स्थान है। इनके सभी उपन्यासों की कथाभूमि मिथिला के गांव हैं। रतिनाथ की चाची, बलचनमा, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरुण के बेटे में नागार्जुन ने ग्रामीण जीवन की सामाजिक विषमता, किसानों की यातनापूर्ण स्थिति, गरीबी, वर्ग व्यवस्था को उजागर किया है। बलचनमा निम्नवर्गीय किसान का पुत्र है, जो बड़ा होकर किसान जीवन की पीड़ा, त्रासदियों व अभावों को झेलता हुआ जमींदारों के अमानवीय अत्याचार को झेलता रहता है। इसी तरह नई पौध में सौरठ मेले से जुड़ी सड़ी-गली प्रथा, स्वार्थवृत्ति और पुरानी पीढ़ी की शोषक वासना का नंगा चित्र उद्घाटित करता है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे नई पौध के लोग पुरातनपंथी सोच को नकारने को आंदोलित हो उठते हैं। 

जीवनभर रोजी-रोटी के लिए खेतों में पसीने बहाते किसानों, अभावग्रस्त ग्रामीणों की तबाही और बढ़ जाती है जब बाढ़ कहर बनकर टूटती है। बाढ़ की विभीषिका झेलनेवालों की त्रासद कथा को भी उपन्यास में स्वर मिली है। जगदीशचंद्र माथुर का ‘धरती धन न अपना’, रामदरश मिश्र का ‘टूटता हुआ जल’ विवेकी राय का ‘सोना माटी’, रामदरश मिश्र का ‘पानी के प्राचीर’ आदि उपन्यासों में हर साल बाढ़ का कहर झेलते गांवों के लोगों की अंतहीन पीड़ा की दास्तां है। इन उपन्यासों में लेखक ने श्वेत पक्ष को भी उद्घाटित किया है। बाढ़ आती है तो सिर्फ धन-जन ही बहाकर नहीं ले जाती है। वह आपसी वैमनस्य को भी बहा ले जाती है। ‘‘सोना माटी उपन्यास में हर तरफ फैले हुए बाढ़ के पानी के बावजूद रामपुर, मेहपुर, चटाई टोला, बीरपुर जैसे सबके सब गांव एक-दूसरे के निकट आते हैं और सामाजिकता का पूरा निर्वहन करते हैं। बाढ़ का पानी मानों इन गांवों को, गांवों के मैले मन को जोड़ने का सूत्र हो।‘‘5 

शिव प्रसाद सिंह ने ‘अलग-अलग वैतरणी’ में गर्मी-सर्दी की परवाह किये बिना सालों भर मेहनत करनेवाले भारतीय कृषकों में व्याप्त निराशाजनक स्थितियों को रूपायित किया गया है। ‘बबूल’ उपन्यास में बाढ़नपुर गांव में व्याप्त बेकारी की समस्या को चित्रित किया गया है। काम की तलाश में अधिकतर मजदूर दूसरे प्रांतों में पलायन कर जाते हैं। ‘अपनी अपनी कंदील’ में हिमांशु श्रीवास्तव ने माली परिवार की सामाजिक व आर्थिक दशा का अनुशीलन किया है। गांव के गरीबों को सूदखोर उसकी जमीन-जायदाद तक हड़प लेते हैं और उसे जीवनभर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश कर देते हैं, यही पीड़ा इस उपन्यास में उभरकर आता है।                                                      
रामदरश मिश्र का ‘सूखता हुआ तालाब’ की चेनइया अपने विजिड़ित जीवन को लेकर देव प्रकाश से कहती हैं। ‘‘बाबा, गांव सचमुच रहने लायक नहीं है, मैं गांव से भाग रही हूं। गांव ने मुझे बेस्सा बनाकर छोड़ दिया, अब जान लेने पर उतारू है।’’6 यहां सूखते हुए तालाब के जरिये कथाकार ग्रामीण जीवन से मानवीय संवेदनाओं के लोप होने की बात उकेरता है। तालाब के सूखने का मतलब है गांव में जीनेवाले लोगों की संवेदनाओं का सूखना। ग्रामीण जीवन में तालाब का एक अपना महत्व है। यह जीवन व परंपरा से जुड़ी है। तालाब को पवित्र मानकर गांव के लोग इसके तट पर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। आधुनिकता ने तालाब की समृद्ध परंपरा के स्रोत को ही सूखा दिया है। 

वृंदावनलाल वर्मा का ‘लगन’, अमृतलाल नागर का ‘महाकाल’, उग्रजी का ‘जीजीजी’, गोविंदबल्लभ पंत का ‘जूनिया’, भैरव प्रसाद गुप्त का ‘गंगा मैया’, राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’, शिवकरण सिंह का ‘अस गांव पस गांव’, मधुकांत का ‘गांव की ओर’, एकांत श्रीवास्तव का ‘पानी भीतर फूल’, मार्कण्डेय का ‘अग्निबीज’ आदि उपन्यासों में भी ग्रामीण संवेदनाएं खुलकर उभरी हैं। सियारामशरण गुप्त, उदयशंकर भट्ट समेत कई अन्य कथाकारों ने भी उपन्यासों के माध्यम से गांव का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है। 

वैसे तो, प्रेमचंद से लेकर विवेकी राय तक ने टूटते-बिखड़ते भारतीय गांव के सत्य से पाठकों को साक्षात्कार कराया है, लेकिन बदलते हुए गांव को बारीकी से पकड़ने में रामधारी सिंह दिवाकर ही सफल हो पाये हैं। समय की मार ने जमींदारों को अपनी जमीन बेचने पर मजबूर किया, तो उधर सदियों से सताये गये दलित वर्ग के लोग उनकी प्लॉट खरीद रहा है। पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद सड़ी-गली राजनीति का अड्डा बने गांवों में दम तोड़ते मूल्यों की भयानक चीख व्याप्त हो गयी है। मानवीय संबंधों के बीच से रागात्मकता खत्म हो रही है। पिछले कुछ दशकों में दलितों-पिछड़ों के बीच एक सम्पन्न वर्ग पैदा हुआ है। इस वर्ग की अपनी विशेषताएं-विद्रुपताएं हैं। गांवों की इन जटिलताओं व विडंबनाओं को दिवाकर जैसे उपन्यास लेखक ही पकड़ पाये हैं।          
           
संदर्भ :  
1. गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ 151
2. डॉ शान्तिस्वरूप गुप्त, हिन्दी उपन्यास : महाकाव्य के स्वर, पृष्ठ 83
3. ग्रामीण जीवन का समाजशास्त्र, संपादक : जीतेंद्र वर्मा, पृ. 126
4. रामधारी सिंह दिवाकर, अकाल संध्या, पृ 71, 72
5. देवगुड़ि हुसेनवली, प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यासों में ग्राम जीवन, पृ. 68
6. डॉ रामदरश मिश्र, सूखता हुआ तालाब, पृ. 102










आवारा पूंजी के इशारे पर नाचता मीडिया

- संतोष सारंग

देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विकास में मीडिया की महती भूमिका होती है। समाज को जागरूक करना, नैतिक मूल्यों को स्थापित करना, भ्रष्टाचार पर प्रहार करना, आम पाठकों की चेतना को झकझोर कर जनमत का निर्माण करना, निष्पक्ष व निर्भीक रहकर सच को उद्घाटित करना पत्रकारिता के दायित्व हैं। मीडिया जनसंचार का सबसे सशक्त माध्यम होता है। इसका असर देश की राजनीति, समाज के विकास पर व्यापक रूप से पड़ता है। मीडिया की जिम्मेवारी है कि वह लोकजीवन की व्यथा एवं उसकी त्रासदी की सही तसवीर पेश कर आम आदमी की आवाज सरकार तक पहुंचाएं। लेकिन क्या वर्तमान दौर में ऐसा हो पा रहा है। इसका जवाब हां और ना दोनों में दिया जा सकता है। कई मोर्चों पर मीडिया का स्याह पक्ष और घनघोर दिखने लगता है, तो कई बार मजबूती व ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका निभाता प्रतीत होता है। मीडिया अपने ऊपर लगे धब्बे को धोने में अन्ना आंदोलन के समय कामयाब हुआ था। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी गयी इस लड़ाई के दौरानं मीडिया की भूमिका जनपक्षधरता वाली रही। लेकिन आवारा पूंजी उसे आम-अवाम के साथ खड़े होने ही नहीं देती है।            ं               
मीडिया मतलब - लोकतंत्र का चैकीदार, बेजुबानों की आवाज, चौथा स्तम्भ, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम, निडर व निष्पक्ष आदि-आदि। वर्तमान संदर्भ में ये सारे शब्द अब अपनी चमक खो रहे हैं। जिस दौर से आज की पत्रकारिता गुजर रही है, वह मिशनवाली पत्रकारिता को नकारता ही नहीं, धिक्कारता भी है। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रभाष जोशी की पत्रकारिता निरंकुश सत्ता से टकराती थी, न कि उसकी चिरौरी करती थी और तलबे चाटती थी। जब से मीडिया ने इंडस्ट्री का रूप धारण किया है, मीडिया के मायने ही बदल गये। सारे मानक, मूल्य ध्वस्त हो गये। बाजार पर टिकी अर्थव्यवस्था व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नित्य नये-नये प्रयोग के चलते मीडिया जनोन्मुखी नहीं, बाजार उन्मुखी होकर रह गया है। बाजार ने उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। आज के मीडिया से व्यापारिक लाभ-हानि की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन जनसरोकार वाली पत्रकारिता की नहीं। ‘‘आज मीडिया का उद्देश्य लाभ कमाना है। इसमें खबरों से ज्यादा विज्ञापन उत्पाद हैं। मीडिया उच्च वर्ग के पक्ष में सहमति निर्मित करने का सबसे कारगर औजार बन गया है। नाॅम चाॅमस्की के अनुसार, ‘सहमति निर्माण करने और जनमन का नियंत्रण करनेवाला औजार है। ’ 19वीं सदी में ही एक फ्रेंच उपन्यासकार ने व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के बारे में कहा था कि दरअसल वह ‘मानसिक वेश्यालय’ होती है, जिसमें पत्र मालिक ठेकेदार होते हैं और पत्रकार दलाल। आज मीडिया का लगभग यही हाल हो रहा है। इसे निकट से जाननेवाले मानते हैं कि यह नरक बन गया है-फैशन व ग्लैमर से चमचमाता एक नरक।’’1 तेजी से बदल रही दुनिया के साथ कदमताल करते जनसंचार माध्यमों के सामने आज कई गंभीर चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में आज के समय में मीडिया की भूमिका को तलाशने की जरूरत है।  

वैश्विक गांव बन चुकी दुनिया में एक-एक आदमी उपभोक्ता बन चुका है। 90 के दशक के बाद भूमंडलीकरण की ऐसी हवा बही कि आम आदमी की निहायत निजी जिंदगी व दैहिक-मानसिक वृत्ति भी बाजार के हवाले चली गयी। बड़ी चालाकी से बाजार के धुरंधरों ने पहले अपने व्यापार के विस्तार के लिए जमीन तैयार की, उसके बाद हमारी भावनाओं व संवेदनाओं को भी उत्पाद बनाकर बाजार में उतार दिया। बाजार जितना बड़ा होगा, विज्ञापन की संभवानाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी। ‘‘पत्रकारिता वास्तव में विज्ञापन के व्यवसाय का दूसरा नाम है। टाइम्स आॅफ इंडिया के विनीत जैन ने अपने एक इंटरव्यू मेें ये कहा था कि वे न्यूज के व्यवसाय में नहीं है, बल्कि वे विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं।’’2 विज्ञापन और उससे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृति ने लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता करनेवाले संस्थानों को पत्रकारिता के लिए कारोबार करनेवाले संस्थानों में परिवर्तित कर दिया है। कल तक पेट्रोल व मोबाइल बेचनेवाली कंपनियां आज अखबार निकाल रही हैं, समाचार चैनल चला रही हैं। कुल मिलाकर प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर काॅरपोरेट घरानों का कब्जा हो गया है। बाजार अपना होगा, वस्तु (प्रोडक्ट्स) भी अपनी और विज्ञापन भी अपने ही समूह के अखबार व चैनल पर होगा। पूंजी का यह मायाजाल मीडिया को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आज उसकी भूमिका क्या रह गयी है। असत्य के धरातल पर सत्य का उद्घाटन करना आज बड़ा कठिन कार्य हो गया है। बाजार की इस चालाकी पर गौर करें तो सारा माजरा समझ में आ जाता है कि कैसे न्यूज व व्यूज को उत्पाद बनाकर आकर्षक ढंग से पेश करने का सारा खेल चल रहा है। इस पूरे खेल के पीछे सत्ता का भी हाथ है और पूरी मशीनरी का भी। बाजार व सरकार के इस नये गठजोड़ ने सच्ची पत्रकारिता करनेवालों व इसके इथिक्स को बचाये रखने में लगे लोगों को भी चिंतित कर रखा है।

प्रबंधन व विज्ञापन के दबाव में अपने पत्रकारीय धर्म का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन न कर पाने की छटपटाहट के बीच पत्रकारिता अपना तेवर खोती जा रही है। अखबारनवीस की कलम की धार कुंद होती जा रही है। अब खासकर हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में योग्य, कुशल, प्रतिभाशाली व ईमानदार पत्रकारों की कमी खलने लगी है। न्यूज रूम व रिपोर्टिंग में ऐसे लोग आ रहे हैं, जो संपादक के कृपापात्र होते हैं या पैरवीपुत्र। न्यूज रूम का माहौल ऐसा बन गया है, जहां बौद्धिक विमर्श के लिए कोई जगह नहीं है। घासलेटी बातें, घटिया राजनीति न्यूज रूम की भाषा व पहचान बन गयी है। वो जमाना गया, जब एक पढ़ा-लिखा व जागरूक पाठक ‘संपादक के नाम पत्र’ लिख-लिख कर लेखक-पत्रकार बन जाता था। न्यूज रूम में भी इस स्तम्भ में प्रकाशित गंभीर पत्र पर चर्चा होती थी और उसका असर सरकारी विभागों पर भी पड़ता था। जब से अखबार उत्पाद वस्तु बना, तब से ‘खबरों का असर’ भी घट गया है। खबरों का असर दिखाने के लिए सरकारी विभाग तक को मैनेज किया जाने लगा है। खबरों का खौफ हाकिम-हुक्मरानों में नहीं रहा। मीडिया का मुंह बंद करना है तो विज्ञापन दे दो, नहीं तो पैसे से मीडिया मैनेज कर लो।  

मीडिया मालिकों को भी अब संपादक नहीं, मैनेजर चाहिए, जो मैनेजमेंट की भाषा बोले, पत्रकारिता न झाड़े। वर्तमान समय में संपादक पद की गरिमा की बात करना बेमानी है। जब से हिन्दी अखबारों के छोटे-छोटे शहरों में लोकल एडिशन निकलना शुरू हुआ है, तब से मीडिया के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी है। जितने संस्करण, उतने संपादक चाहिए। बुजुर्ग संपादकों का जमाना गया। अनुभवहीन, अधकचरे ज्ञान वाले युवा संपादकों की मांग बढ़ी है। ‘‘बाजारवाद की जकड़न में फंसे प्रिंट मीडिया के संसार में आज ऐसे संपादकों का अकाल पैदा हो गया है जो बाबूराव विष्णु पराड़कर की तरह नये समय के उपयुक्त कुछ नये शब्द गढ़ सकें। उच्च पौद्यौगिकी के नये स्वरों के अनुकूल शब्दों को समायोजित कर सकें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह उपभोक्तावादी संस्कृति के विकृत प्रभाव से हिंदी भाषा के संस्कार को बचा सकें, विकृत और भ्रष्ट हो चुकी भाषा के परिमार्जन का बीड़ा उठा सकें।’’3 भाषा संस्कार व शुद्धता की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता को कंगाल कहा जा सकता है। हिंदी पट्टी से निकलनेवाले अखबारों के डाक एडिशन को भाषायी प्रदूषण फैलाने के कारण ‘कचरा संस्करण’ कहा जा सकता है। 300 शब्दों के एक खबर में 50-100 त्रुटियां मिल जायेंगी। लुगदी अखबारों को पाठक झेल रहे हैं।  
आज संकट सिर्फ मीडिया की विश्वसनीयता व साख का ही नहीं, बल्कि स्मार्टफोन के जमाने में गंभीर पाठकों का भी हो चला है। आज के सुधि पाठकों की मुट्ठी में दुनियाभर के अखबार व चैनल सिमटकर आ गये हैं। शहरी ही क्यों, गांव के नवधनाढ्य भी स्टेटस सिंबल के लिए दो-तीन अखबार अपने दरवाजे तक मंगवाता है, लेकिन 4जी-5जी की स्पीड से भाग रही खबरों के पीछे उनका दिमाग भागता रहता है। उसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप, ब्लाॅगिंग, यू-ट्यूब से फुर्सत कहां है कि 16-18 पेज के न्यूजपेपर कोे पलटे। पाठक ही क्यों, पत्रकार भी तो सिर्फ लिखने के आदी हो गये हैैं, पढ़ने के नहीं। महीनों तक एक ही तरह की गलतियां छपती रही हैं और पाठक उसे झेलता रहता है। इतना ही नहीं, कई और तरह के संकट झेल रहे प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पूंजी के प्रवाह में ऐसा बहा कि उसकी भूमिका ही बदल गयी। निष्पक्ष पत्रकारिता व साख के बल पर सरकार तक को हिला देनेवाला मीडिया पेड न्यूज छापने लगा। जनमत निर्माण की महती भूमिका छोड़कर सरकार के पक्ष में अथवा खिलाफ में हवा बनाने में रम गया। इसका असर सबसे पहले उसकी साख पर पड़ी।  

हालांकि, 2009 में देश के छह बड़े संपादकों प्रभाष जोशी, कुलदीप नैयर, अजीत भट्टाचार्य, जार्ज वर्गीज, हरिवंश व अच्युतानंद मिश्र ने पेड न्यूज के खिलाफ देशभर में अभियान चला कर वर्णसंकर पत्रकारिता पर आघात किया। 6 फरवरी 1992 को सुप्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने रांची में प्रभात खबर द्वारा आयोजित ‘भारत किधर व्याख्यानमाला’ में चिंता जाहिर की थी, ‘‘हिंदी पत्रकारिता में आज सबसे बड़ी चुनौती पत्र-पत्रिकाओं और अखबार के साख का है। पिछले दो सालों से साख का सवाल ज्यादा विकराल रूप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। मंडल आयोग और मंदिर-मसजिद के मुद्दों पर तो साख को और धक्का लगा है। आज हिंदी पत्रकारिता जहां पहुंची है, वहां से वह ऐसे सवाल छोड़ गयी है, जिसका सही समाधान नहीं किया गया, तो वह पतन के गर्त में चली जायेगी। अभी तो लोग पत्रकारों से पुलिसवालों की तरह डरने लगे हैं। पता नहीं क्यों यह स्थिति बनी है कि लोग पत्रकारों, पत्रकारिता और छपे हुए शब्दों से डरने लगे हैं। इन्हें अप्रभावी माना जाने लगा है, जबकि कुछ वर्ष पहले तक लोग अखबार में छपे शब्दों को ब्रह्म वाक्य मानते थे और पत्रकारों को सम्मान की नजर से देखते थे। आज यह आत्ममंथन करने की जरूरत है कि कहीं इसके लिए पत्रकार स्वयं तो जिम्मेवार नहीं हैं?’’4   

इसमें दो राय नहीं कि जब मीडिया कमजोर होगा, तो लोकतंत्र को संक्रमण से नहीं बचाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि पत्रकारिता की कमजोर होती जड़ों को मजबूत किया जाये। मीडिया को खुद अपनी भूमिका तय करनी होगी, नहीं तो बाजार उसे ग्रास बनाकर चबा जायेगा। इन दिनों पत्रकारिता के शब्दकोष में कई ऐसे शब्द गढ़े गये हैं, जो उसकी भूमिका को प्रभावी बना सकते हैं। जनमीडिया, सोशल मीडिया, कम्युनिटी मीडिया, मोबाइल मीडिया के दौर में इस क्षेत्र में नयी संभावनाओं का दौर खुला है। देश-दुनिया में कई सफल प्रयोग हुए हैं, जो भटके काॅरपोरेट मीडिया को चुनौती दे सकते हैं। कम संसाधन व पूंजी में यूपी के बुंदेलखंड समेत कई जिलों से महिलाओं द्वारा निकाले जानेवाला अखबार ‘खबर लहरिया’ इसका बड़ा उदाहरण है। देश ही नहीं विदेशों में भी वैकल्पिक मीडिया के कई सफल नाम हैं।  ‘ओह माई न्यूज’ दक्षिण कोरिया का एक आॅनलाइन न्यूजपेपर है, जिसका पंचलाइन ही है-हर नागरिक पत्रकार है। इसमें 80 फीसदी कंटेंट आमलोग उपलब्ध कराते हैं और केवल 20 फीसदी पेशेवर पत्रकार। न किसी काॅरपोरेट घरानों का दबाव और न सरकार का। ओह माई न्यूज करीब 17 साल से नागरिक पत्रकारिता के जरिये अपने दायित्वबोध से भटके मीडिया के समक्ष एक नजीर पेश करता आ रहा है।

बहरहाल, वर्तमान परिपे्रक्ष्य में मीडिया को तमाम दबावों, प्रलोभनों के बीच से ही कोई न कोई रास्ता खोज निकालना होगा, जो उसे पुरानी भूमिका में ला खड़ा करे, क्योंकि बाजार से मुक्ति अभी मिलनी नहीं है। जिस दिन मीडिया अपनी पत्रकारीय धर्म को छोड़कर पूरी तरह बाजारू बन गया, उसी दिन उसका क्षय अवश्यंभावी हो जायेगा। आज डर इसी बात का है और इस मुश्किल भरे दौड़ से उबार ले जाने की चुनौतियां भी बरकरार हैं।                                 
संदर्भ:
1. गवेषणा, पृ. 104-105, अंक-105/2015
2. जन मीडिया, पृ. 24, अंक-फरवरी 2017
3. गगनांचल, पृ. 95, अंक-4-5, जुलाई-अक्टूबर, 2015
4. प्रभात खबर: प्रयोग की कहानी, पृ. 185