- संतोष सारंग
मुजफ्फरपुर की रंभा देवी तीन साल से जिंदगी व मौत से जंग लड़ रही है। दोनों किडनी खराब होने के कारण एक-एक पल चिंता, संत्रास, घोर अंधकार में बीत रहा है। परिवार के लोगों के सामने परेशानी का पहाड़ खड़ा है। पत्नी व मां को बचाने में एक पति व बेटे-बेटियों ने अपनी जिंदगी झांेक दी है। प्रत्येक हफ्ते दो बार डायलिसिस कराना पड़ता है। डायलिसिस कराने व महंगी दवाएं खरीदने में हर माह करीब 70 से 80 हजार रुपये खर्च होता है। बैंक एकाउंट खाली हो गया। 10 लाख रुपये बैंक से लोन लेना पड़ा है। एक लाख रुपये से अधिक प्रतिमाह कमानेवाला एक प्रोफेसर पति कंगाल हो गया। अब जरा सोचिए, एक सामान्य आदमी का क्या हश्र होता होगा, जिसके परिवार का कोई सदस्य किडनी संबंधी बीमारी से जूझ रहा हो। रंभा के पति प्रोफेसर डाॅ वीरेंद्रनाथ मिश्र कहते हैं कि मेरे जैसा आदमी टूट चुका है, तो गरीब लोगों की क्या स्थिति होती होगी। पैसे के बल पर उसे जिंदा रख पाया हूं। मैं अपनी पत्नी को नहीं बचा रहा हूं, अपने बेटे-बेटियों की मां को बचा रहा हंू। एक बार वह डाॅक्टर का पैर पकड़कर रोने लगी और कहने लगी ‘‘डाॅक्टर साहब, आप मुझे मरने का इंजेक्शन दीजिये। अब मुझे नहीं जीना है।’’ डाॅ मिश्र रुआंसे स्वर में कहते हैं कि यहां एक सांस की कीमत 60 से 70 हजार रुपये है।
जिले के मीनापुर के रंजन कुमार की दोनों किडनी खराब है। चार साल से वे डायलिसिस के सहारे जिंदा है। प्राइवेट हाॅस्पिटल में महंगे इलाज व डायलिसिस कराने को मजबूर रंजन के घर के सारे सामान बिक चुके हैं। अब चंदा मांगकर इलाज कराना पड़ रहा है। मुजफ्फरपुर स्थित प्रसाद हाॅस्पिटल के डायलिसिस टेक्नीशियन फख्रे आलम कहते हैं कि कई बार इतने मजबूर व गरीब मरीज आते हैं कि हमें उनकी मदद करनी पड़ती है। दो बार तो मैंने अपनी जेब से गरीब मरीज की मदद की है। कई ऐसे मरीज हैं, जिसने अपना घर व जेवर तक बेच दिया है।
मुजफ्फरपुर समेत राज्य के कई जिलों में अभी हीमोडायलिसिस की सरकारी सुविधा उपलब्ध नहीं है। एसकेएमसीएच में एक साल पहले एक डायलिसिस मशीन लगी थी, जो टेक्नीशियन के अभाव में सड़ रही है। सदर अस्पताल में भी जगह नहीं मिलने के कारण आउटसोर्सिंग एजेंसी बी ब्राॅन ने मशीन नहीं लगायी है। फख्रे आलम बताते हैं कि उतर बिहार के बेतिया, मोतिहारी, शिवहर, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, बेगूसराय जिलों से हरेक महीने करीब 1000 मरीज डायलिसिस के लिए मुजफ्फरपुर आते हैं। यहां तीन निजी नर्सिंग होम में डायलिसिस की सुविधा है। एक डायलिसिस का चार्ज 3500-4000 रुपये है। दवा व ब्लड का खर्च अलग से। आलम का कहना है कि सरकारी अस्पताल में सुविधा मिल जाये तो मरीजों को बहुत राहत मिलेगी। श्रीकृष्ण मेडिकल काॅलेज एंड हाॅस्पिटल (एसकेएमसीएच) के अधीक्षक डाॅ जीके ठाकुर कहते हैं कि एक डायलिसिस मशीन एक-डेढ़ साल से पड़ी है। टेक्नीशियन के अभाव में सेंटर शुरू नहीं हो सका है। सरकार के स्तर पर बहाली होनी थी, जो ठंडे बस्ते में पड़ी है। आउटसोर्सिंग एजेंसी ने दो हजार वर्ग फीट में बनी बिल्डिंग मांगी थी, जो हम उपलब्ध नहीं करा पाये। वे कहते हैं कि यहां तो डायलिसिस विभाग ही नहीं हैं। न्यूरोलाॅजी, नेफ्रोलाॅजी समेत कई ऐसे विभाग हैं, जिसे यहां चला पाना संभव नहीं हैं। डाॅक्टर पटना छोड़ना ही नहीं चाहते हैं। सदर अस्पताल के सीएस डाॅ ज्ञानभूषण ने बताया कि हमने आउटसोर्सिंग एजेंसी को जगह उपलब्ध कराने का आॅफर दिया है, लेकिन अबतक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं होती दिख रही है।
दरभंगा मेडिकल काॅलेज (डीएमसीएच) में तीन में दो डायलिसिस सेंटर चल रहे हैं, लेकिन गत छह महीने से इंवर्टर व बैट्री के कारण जर्जर हालत में आ गये हैं। एक उपकरण तो बंद ही पड़ा है। मरीजों को महंगी दवाएं बाहर से लेनी पड़ती हैं। इसमें इंटकैथ, फरमालिन, हेमारीन, साइट्रोसटिल, ऑक्सीलिकएसिड, लयुको बैंड, सीरिंज, बायोकाबरेनेट फलूड व पाउडर, इंटोडयुसर नीडिल, गायड वायर, डबुललयुमेन कैथ, साईट्रिक एसिड पाउडर, सोडियम हाइडोक्लोराइड और हाइड्रोजन पेरोआॅक्साइड दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। इन दवाओं की कीमत करीब 2500 रुपये पड़ती है। मधुबनी सदर अस्पताल में करीब एक साल से आउटसोर्सिंग कंपनी रियायती दर पर डायलिसिस करती है। मधुबनी सीएस डाॅ ओमप्रकाश का कहना है कि सेंटर के प्रचार-प्रसार के लिए अभियान चलाया जा रहा है, ताकि किडनी (गुर्दा) के मरीजों को अधिक लाभ मिल सके।
एक अनुमान के अनुसार, बिहार में करीब 10 हजार लोग किडनी की बीमारी से पीडि़त हैं। इसका इलाज राज्य के कुछ ही अस्पतालों में उपलब्ध है। ऐसे में मरीजों को महंगे इलाज के कारण घर-बार सबकुछ बेचकर जिंदगी बचाने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। हालांकि पिछले साल जर्मनी की कंपनी बी ब्राॅन राज्य सरकार के साथ सार्वजनिक निजी साझेदारी (पीपीपी) के तहत मेडिकल काॅलेज अस्पतालों व सदर अस्पतालों में 24 डायलिसिस यूनिट स्थापित करने की कवायद शुरू की। इस साल जून के प्रथम सप्ताह तक लखीसराय, बांका समेत एक दर्जन से अधिक जिलों में डायलिसिस यूनिट स्थापित किया जा चुका है। अगस्त 2014 में पीपीपी मोड के तहत पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने नालंदा मेडिकल काॅलेज में हीमोडायलिसिस सेंटर का उद्घाटन करते हुए कहा था कि मरीजों को डायलिसिस के लिए केवल 1410 रुपये देना होगा, जो बाजार से बहुत सुलभ व सस्ता होगा। देखना है कि यह घोषणा कितना फलीभूत हो पाता है।
लिहाजा, उŸार बिहार के आधा दर्जन जिलों के गुर्दा मरीजों के सामने महंगे इलाज के अलावा कोई उपाय नहीं है। जमीन-जेवर बेचकर जिंदगी बचाने की आस लिये ये मरीज व उनके परिजन दिन-रात सरकार व स्वास्थ्य विभाग को कोसते रहते हैं। तब भी, पता नहीं कितने अभागे लोग अपनी जिंदगी बचा पाते होंगे!
जिले के मीनापुर के रंजन कुमार की दोनों किडनी खराब है। चार साल से वे डायलिसिस के सहारे जिंदा है। प्राइवेट हाॅस्पिटल में महंगे इलाज व डायलिसिस कराने को मजबूर रंजन के घर के सारे सामान बिक चुके हैं। अब चंदा मांगकर इलाज कराना पड़ रहा है। मुजफ्फरपुर स्थित प्रसाद हाॅस्पिटल के डायलिसिस टेक्नीशियन फख्रे आलम कहते हैं कि कई बार इतने मजबूर व गरीब मरीज आते हैं कि हमें उनकी मदद करनी पड़ती है। दो बार तो मैंने अपनी जेब से गरीब मरीज की मदद की है। कई ऐसे मरीज हैं, जिसने अपना घर व जेवर तक बेच दिया है।
मुजफ्फरपुर समेत राज्य के कई जिलों में अभी हीमोडायलिसिस की सरकारी सुविधा उपलब्ध नहीं है। एसकेएमसीएच में एक साल पहले एक डायलिसिस मशीन लगी थी, जो टेक्नीशियन के अभाव में सड़ रही है। सदर अस्पताल में भी जगह नहीं मिलने के कारण आउटसोर्सिंग एजेंसी बी ब्राॅन ने मशीन नहीं लगायी है। फख्रे आलम बताते हैं कि उतर बिहार के बेतिया, मोतिहारी, शिवहर, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, बेगूसराय जिलों से हरेक महीने करीब 1000 मरीज डायलिसिस के लिए मुजफ्फरपुर आते हैं। यहां तीन निजी नर्सिंग होम में डायलिसिस की सुविधा है। एक डायलिसिस का चार्ज 3500-4000 रुपये है। दवा व ब्लड का खर्च अलग से। आलम का कहना है कि सरकारी अस्पताल में सुविधा मिल जाये तो मरीजों को बहुत राहत मिलेगी। श्रीकृष्ण मेडिकल काॅलेज एंड हाॅस्पिटल (एसकेएमसीएच) के अधीक्षक डाॅ जीके ठाकुर कहते हैं कि एक डायलिसिस मशीन एक-डेढ़ साल से पड़ी है। टेक्नीशियन के अभाव में सेंटर शुरू नहीं हो सका है। सरकार के स्तर पर बहाली होनी थी, जो ठंडे बस्ते में पड़ी है। आउटसोर्सिंग एजेंसी ने दो हजार वर्ग फीट में बनी बिल्डिंग मांगी थी, जो हम उपलब्ध नहीं करा पाये। वे कहते हैं कि यहां तो डायलिसिस विभाग ही नहीं हैं। न्यूरोलाॅजी, नेफ्रोलाॅजी समेत कई ऐसे विभाग हैं, जिसे यहां चला पाना संभव नहीं हैं। डाॅक्टर पटना छोड़ना ही नहीं चाहते हैं। सदर अस्पताल के सीएस डाॅ ज्ञानभूषण ने बताया कि हमने आउटसोर्सिंग एजेंसी को जगह उपलब्ध कराने का आॅफर दिया है, लेकिन अबतक इस दिशा में कोई प्रगति नहीं होती दिख रही है।
दरभंगा मेडिकल काॅलेज (डीएमसीएच) में तीन में दो डायलिसिस सेंटर चल रहे हैं, लेकिन गत छह महीने से इंवर्टर व बैट्री के कारण जर्जर हालत में आ गये हैं। एक उपकरण तो बंद ही पड़ा है। मरीजों को महंगी दवाएं बाहर से लेनी पड़ती हैं। इसमें इंटकैथ, फरमालिन, हेमारीन, साइट्रोसटिल, ऑक्सीलिकएसिड, लयुको बैंड, सीरिंज, बायोकाबरेनेट फलूड व पाउडर, इंटोडयुसर नीडिल, गायड वायर, डबुललयुमेन कैथ, साईट्रिक एसिड पाउडर, सोडियम हाइडोक्लोराइड और हाइड्रोजन पेरोआॅक्साइड दवाएं खरीदनी पड़ती हैं। इन दवाओं की कीमत करीब 2500 रुपये पड़ती है। मधुबनी सदर अस्पताल में करीब एक साल से आउटसोर्सिंग कंपनी रियायती दर पर डायलिसिस करती है। मधुबनी सीएस डाॅ ओमप्रकाश का कहना है कि सेंटर के प्रचार-प्रसार के लिए अभियान चलाया जा रहा है, ताकि किडनी (गुर्दा) के मरीजों को अधिक लाभ मिल सके।
एक अनुमान के अनुसार, बिहार में करीब 10 हजार लोग किडनी की बीमारी से पीडि़त हैं। इसका इलाज राज्य के कुछ ही अस्पतालों में उपलब्ध है। ऐसे में मरीजों को महंगे इलाज के कारण घर-बार सबकुछ बेचकर जिंदगी बचाने की जद्दोजहद करनी पड़ती है। हालांकि पिछले साल जर्मनी की कंपनी बी ब्राॅन राज्य सरकार के साथ सार्वजनिक निजी साझेदारी (पीपीपी) के तहत मेडिकल काॅलेज अस्पतालों व सदर अस्पतालों में 24 डायलिसिस यूनिट स्थापित करने की कवायद शुरू की। इस साल जून के प्रथम सप्ताह तक लखीसराय, बांका समेत एक दर्जन से अधिक जिलों में डायलिसिस यूनिट स्थापित किया जा चुका है। अगस्त 2014 में पीपीपी मोड के तहत पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने नालंदा मेडिकल काॅलेज में हीमोडायलिसिस सेंटर का उद्घाटन करते हुए कहा था कि मरीजों को डायलिसिस के लिए केवल 1410 रुपये देना होगा, जो बाजार से बहुत सुलभ व सस्ता होगा। देखना है कि यह घोषणा कितना फलीभूत हो पाता है।
लिहाजा, उŸार बिहार के आधा दर्जन जिलों के गुर्दा मरीजों के सामने महंगे इलाज के अलावा कोई उपाय नहीं है। जमीन-जेवर बेचकर जिंदगी बचाने की आस लिये ये मरीज व उनके परिजन दिन-रात सरकार व स्वास्थ्य विभाग को कोसते रहते हैं। तब भी, पता नहीं कितने अभागे लोग अपनी जिंदगी बचा पाते होंगे!
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