खुशबू कुमारी
हाल ही में यूनिसेफ द्वारा जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया में आधे से भी अधिक बच्चे प्राथमिक शिक्षा से वंचित हैं तथा शिक्षा के क्षेत्र में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य की गति धीमी है ऐसे में 2015 तक लक्ष्य को प्राप्त करना कठिन हो जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के करीब 25 करोड़ बच्चे अभी भी पढ़ लिख नहीं पाते हैं जबकि उन्हें चौथी कक्षा तक का ज्ञान प्राप्त हो जाना चाहिए था। यूनिसेफ की इस रिपोर्ट से हमारा देश में भी अछूता नहीं है। शिक्षा का अधिकार कानून लागू करने के बाद भी देश में शिक्षा के स्तर में कोई संतोषजनक सुधार नहीं हुआ है। अब भी बच्चों की एक बड़ी आबादी प्राथमिक विद्यालय की बात तो दूर स्कूल का मुंह तक नहीं देख पाती है। इनमें लड़कियों की तादाद सबसे अधिक है। कुछ दिनों पूर्व राष्ट्रीय शैक्षिक योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय (न्यूपा) द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के बाद यह बात सामने आई कि देश के सभी प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में सुविधाओं का अभाव है। स्कूलों में क्लास रूम, पानी, शौचालय, बेंच और अध्यापकों की भारी कमी है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद अधिकतर स्कूलों में बालिकाओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था नहीं की जा सकी है। जिसका प्रभाव शिक्षा की गुणवत्ता पर हो रहा है और साक्षरता दर में उम्मीद से कम बढ़ रही है।
हालांकि इसी स्कूल के एक षिक्षक अजय कुमार झा दोपहर के बाद विद्यार्थियों की संख्या में कमी के पीछे छात्रों के प्रति सख्ती नहीं करने के कानून को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि छड़ी नहीं उठाना स्वंय बच्चों के लिए अभिशाप बनता जा रहा है। उनके प्रति सख्ती नहीं करने का आदेश बालमन को उद्दंड बनाता जा रहा है। हालांकि समय समय पर शिक्षक अपनी तरफ से बच्चों को काफी कुछ नैतिकता का पाठ पढ़ाने की कोषिष करते रहते हैं यही कारण है कि स्कूल के अधिकतर बच्चों को भारतीय संविधान का प्रस्तावना कंठस्थ है। इसके अतिरिक्त जमीन नहीं होने के कारण भवन निर्माण में बाधा भी एक बड़ी समस्या है। स्कूल में आठवीं तक की पढ़ाई होती है लेकिन कमरे केवल चार हैं। ऐसे में बच्चों को खुले आसमान के नीचे ही पढ़ाई करनी होती है। जाड़े और बारिश के मौसम में उन्हें काफी असुविधा उठानी पड़ती है। कई बार पढ़ाई को बीच में रोकना पड़ता है। शिक्षिका ललीता कुमारी का कहना है कि स्कूल में शौचालय की व्यवस्था सही नहीं होने के कारण न सिर्फ छात्राओं बल्कि महिला शिक्षिकाओं को भी असुविधा का सामना करना पड़ता है। जो सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन है जिसमें कोर्ट ने देश के सभी स्कूलों में छात्राओं के लिए अलग से शौचालय की व्यवस्था का आदेश दिया है। इस संबंध में एक अभिभावक कौशल किशोर सिंह का कहना है कि स्कूल में शौचालय की व्यवस्था नहीं होने और अन्य कमियों के कारण ही सरकारी स्कूलों से माता-पिता का मोहभंग हो रहा है और वह महंगी फीस देकर अपने बच्चों को निजी विद्यालय में भेजना ज्यादा पसंद करते हैं। इस संबंध में सरकारी पक्ष जानने के लिए कई कोशिशों के बाद भी प्रखंड शिक्षा पदाधिकारी से संपर्क नहीं हो सका। इस संबंध में कृष्णदेव कहते हैं कि शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए योग्य शिक्षकों की जरूरत होती है। इस वक्त जिले में शिक्षकों के करीब दस हजार पद खाली हैं। शिक्षाविद श्रीमती शमीमा शब्बीर छात्रों में शिक्षा के प्रति अरूचि के लिए अभिभावकों को जिम्मेदार मानती हैं। उनका कहना है कि परिवार में सदस्यों की बड़ी संख्या इस विचार को जन्म देती है कि ज्यादा हाथ ज्यादा कमाने का साधन है। जबकि छोटा परिवार सुखी परिवार की संकल्पना से बिहार अभी भी अभिनज्ञ हैं।
संसद के पिछले शीतकालीन सत्र में स्वंय सरकार लोकसभा में यह मान चुकी है कि सर्वशिक्षा अभियान के तहत पिछले 10 सालों में शिक्षकों के स्वीकृत पदों में अभी तक छह लाख 87 हजार पद भरे नहीं जा सके हैं। इनमें बिहार में अकेले सबसे अधिक दो लाख पद रिक्त थे। हालांकि वर्तमान राज्य सरकार इसकी कमी को पूरा करने के लिए नियोजित शिक्षकों की बहाली कर रही है लेकिन उसकी क्या स्थिती है यह किसी से छुपा नहीं है। प्रश्न उठता है कि शिक्षा जो किसी भी सभ्य समाज के लिए महत्वपूर्ण है और जिसे मौलिक अधिकार की श्रेणी में रखा गया है उसे धरातल पर उतारने में इतनी बेरूखी क्यूं की जा रही है? उच्च षिक्षण संस्थान को उन्नत बनाने का सरकार का प्रयास सराहनीय है लेकिन जब बुनियादी शिक्षा ही कमजोर होगी तो हमे सफलता की आशा करना बेमानी होगा।