- प्रोफ़ेसर निराला वीरेन्द्र
अपनी मिहनत और मशक्कत से, आसमां को झुकायेंगे
सब्र रख ये अहले चमन, हम जन्नत यहीं बनायेंगे ।
सेहरा में सैर अपनी है, जलन तो जरूर होगी
पांव में छाले होंगे, मगर मुस्कुराएंगे ।
माना कि एक धुंध में दबे पड़े हैं हम,
लेकिन इंकलाबी फूंक से, हम इसे उडाएंगे।
ये जुनूने इश्क है, इसका नशा उतरेगा क्या
हद से गुजरने का फन, हम तुम्हें सिखायेंगे।
मंगलवार, 29 सितंबर 2009
मंगलवार, 22 सितंबर 2009
कब तक बिकेंगे आप
संतोष सारंग
कौन कहता है कि पत्रकार बिकते नहीं हैं। पत्रकार भी बिकते हैं एकदम मोल के भाव। कौन कहता है कि कलम गिरवी नहीं रखी जाती है चंद सिक्कों की खातिर। कलम सच उगलती थी, पर बाजारवाद ने कलम को झूठ उगलना सिखला दिया। जिस पत्रकार की कलम सच उगलती है, उसकी हाथ कट ली जाती है। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का जमाना चला गया। प्रोफेशनल पत्रकारिता का युग चल रहा है। जो पत्रकार ब्लैक मनी पर पल रहे पदाधिकारियों एवं भ्रष्ट नेताओं की चमचागिरी करते हैं, वे उतने बड़े पत्रकार होते हैं। मंगरू मांझी भूख से बिलबिलाकर मरे तो चंद लाइन की ख़बर अन्दर के पेज पर छपती है। कोई भ्रष्ट व अपराधी किस्म का नेता बयान जारी कर दे तो मुख पृष्ठ की ख़बर बन जाती है। मंगरू की मौत बिक नहीं सकती न, इसलिय। नेताजी तो विज्ञापन देते हैं, पत्रकारों को ठेकेदारी में हिस्सा जो मिलता।
मुजफ्फरपुर शहर में ऐसे भी संपादक हैं जो कुछेक छुटभैये नेताओं की गाड़ी पर घुमते हैं। बड़े होटल का बिल चुकाते हैं नेताजी। बदले में उनकी फोटो छपती रहती है। बस उनकी भी जय-जय और इनकी भी जय-जय। पहले संपादक का मतलब होता था गंभीर, विद्वान आदमी। आज होता है अच्छा सेटर, अच्छा मैनेजर। सच लिखना, जन सरोकार रखना, समझौता न करना उनका धर्म नहीं रहा। शहर से देहात तक अनगिनत ऐसे पत्रकार हैं जो रोज अपनी कलम को बेचते हैं। बेचारी कलम स्याही की आंसू रोती रहती है। कोई चाय पानी में बिकता है तो कोई मोटी रकम में बिकता है। अगर किसी की बेटी की दहेज़ के लिए हत्या हो जाय तो बेटी के बाप को भी पैसे देकर ख़बर छपवानी पड़ती है। जिन पत्रकारों को मोटी पगार नहीं मिलती है तो उनकी व्यथा समझी जा सकती है। क्योंकि बड़े घराने के अखबारों का प्रबंधन उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करता है। गाँव के पत्रकारों का तो अखबार प्रबंधन शोषण करता ही है। मगर उनकी क्या कहेंगे, जो मोटी पगार व अन्य सुविधाएँ पाने के बावजूद काली कमाई कराने में लगे रहते हैं। कुछेक दो-चार एनजीओ का निबंधन कराकर अपने प्रभाव से ग्रांट प्राप्त करते हैं। इस तरह उनकी दुकानदारी चलती रहती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के गिरते स्तर से समाज का कितना भला होगा ? ये यक्ष प्रश्न आमलोगों एवं इमानदार लोगों को बार-बार परेशां करता है। समाज उन चंद इमानदार लोगों एवं पत्रकारों के कारण जीवित है जो अकेले लड़ते रहते हैं खुद से और भ्रष्ट समाज से। ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सलाम!
कौन कहता है कि पत्रकार बिकते नहीं हैं। पत्रकार भी बिकते हैं एकदम मोल के भाव। कौन कहता है कि कलम गिरवी नहीं रखी जाती है चंद सिक्कों की खातिर। कलम सच उगलती थी, पर बाजारवाद ने कलम को झूठ उगलना सिखला दिया। जिस पत्रकार की कलम सच उगलती है, उसकी हाथ कट ली जाती है। गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता का जमाना चला गया। प्रोफेशनल पत्रकारिता का युग चल रहा है। जो पत्रकार ब्लैक मनी पर पल रहे पदाधिकारियों एवं भ्रष्ट नेताओं की चमचागिरी करते हैं, वे उतने बड़े पत्रकार होते हैं। मंगरू मांझी भूख से बिलबिलाकर मरे तो चंद लाइन की ख़बर अन्दर के पेज पर छपती है। कोई भ्रष्ट व अपराधी किस्म का नेता बयान जारी कर दे तो मुख पृष्ठ की ख़बर बन जाती है। मंगरू की मौत बिक नहीं सकती न, इसलिय। नेताजी तो विज्ञापन देते हैं, पत्रकारों को ठेकेदारी में हिस्सा जो मिलता।
मुजफ्फरपुर शहर में ऐसे भी संपादक हैं जो कुछेक छुटभैये नेताओं की गाड़ी पर घुमते हैं। बड़े होटल का बिल चुकाते हैं नेताजी। बदले में उनकी फोटो छपती रहती है। बस उनकी भी जय-जय और इनकी भी जय-जय। पहले संपादक का मतलब होता था गंभीर, विद्वान आदमी। आज होता है अच्छा सेटर, अच्छा मैनेजर। सच लिखना, जन सरोकार रखना, समझौता न करना उनका धर्म नहीं रहा। शहर से देहात तक अनगिनत ऐसे पत्रकार हैं जो रोज अपनी कलम को बेचते हैं। बेचारी कलम स्याही की आंसू रोती रहती है। कोई चाय पानी में बिकता है तो कोई मोटी रकम में बिकता है। अगर किसी की बेटी की दहेज़ के लिए हत्या हो जाय तो बेटी के बाप को भी पैसे देकर ख़बर छपवानी पड़ती है। जिन पत्रकारों को मोटी पगार नहीं मिलती है तो उनकी व्यथा समझी जा सकती है। क्योंकि बड़े घराने के अखबारों का प्रबंधन उन्हें भ्रष्ट बनने को मजबूर करता है। गाँव के पत्रकारों का तो अखबार प्रबंधन शोषण करता ही है। मगर उनकी क्या कहेंगे, जो मोटी पगार व अन्य सुविधाएँ पाने के बावजूद काली कमाई कराने में लगे रहते हैं। कुछेक दो-चार एनजीओ का निबंधन कराकर अपने प्रभाव से ग्रांट प्राप्त करते हैं। इस तरह उनकी दुकानदारी चलती रहती है।
लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ के गिरते स्तर से समाज का कितना भला होगा ? ये यक्ष प्रश्न आमलोगों एवं इमानदार लोगों को बार-बार परेशां करता है। समाज उन चंद इमानदार लोगों एवं पत्रकारों के कारण जीवित है जो अकेले लड़ते रहते हैं खुद से और भ्रष्ट समाज से। ऐसे ईमानदार पत्रकारों को सलाम!
मंगलवार, 15 सितंबर 2009
पूर्वोत्तर में हिन्दी पत्रकारिता
पूर्वोत्तर के सातों प्रान्त-असम, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश सेवेन सिस्टर्स के नाम से जाना जाता है। इन प्रान्तों के कार्यालयों में या तो अंग्रेजी अथवा क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग होता है। हिन्दी यहाँ सिर्फ़ संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग में है। गुवाहाटी में पहली बार तक़रीबन बीस साल पूर्व हिन्दी पत्रकारिता की धमाकेदार शुरुआत हुई, जब दैनिक "पूर्वांचल प्रहरी" का प्रकाशन शुरू हुआ। इस अखबार के प्रकाशन के मात्र १४ दिनों बाद निकला "दैनिक सेंटिनल" । आज असम की राजधानी क्षेत्र गुवाहाटी से मुख्यतः चार हिन्दी दैनिक का प्रकाशन हो रहा है-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी, दैनिक सेंटिनल, दैनिक पूर्वोदय और दैनिक प्रातः ख़बर। हालाँकि, सबसे पहले "उत्तर काल" नामक अखबार निकलना था, लेकिन बाजी मारी दैनिक पूर्वांचल प्रहरी ने। "उत्तर काल" कईं वर्षों तक निकली, पर बाद में दम तोड़ दी। पूर्वोत्तर के शेष छह प्रान्तों में एक भी हिन्दी अखबारों का प्रकाशन नहीं होता है। राष्ट्रिय अखबारों से यहाँ के हिन्दी भाषी पाठक वंचित हैं।
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