प्रभाष जोशी क्रिकेट पर खूब लिखे। इस जुनूनी खेल के वे रसिया थे। क्रिकेट देखना, सुनना और इस पर बातें करना उन्हें भाता था। सचिन के जबरदस्त प्रशंसक थे। वे ५ नवंबर को हैदराबाद के उप्पल मैदान में चल रहे क्रिकेट की उस पारी के टीवी स्क्रीन के जरिय गवाह बनना चाह रहे थे, जिसमें क्रिकेट के देवता कहे जाने वाले सचिन के द्बारा एक और विश्व्क्रीतिमान बनने वाला था। सत्रह हजार रन का कीर्तिमान बना भी और १७५ रन की एक शानदार पारी भी खेली, लेकिन वे भारत को हार से नहीं बचा पाय। शायद गाजियाबाद में अपने घर में टीवी पर क्रिकेट का लुत्फ़ उठा रहे प्रभाष जोशी को इस हार का गम बर्दाश्त नहीं हो सका। सचिन के आउट होने के साथ ही उनकी तबियत बिगड़ने लगी। अस्पताल ले जाने पर चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। ह्रदयगति रुकने से उनके निधन का समाचार मिला। यह ख़बर सुनकर मैं अवाक् रह गया। इसके साथ ही गंभीर व साफ़-सुथरी पत्रकारिता के एक युग का अंत हो गया, क्योंकि समकालीन पत्रकारिता के दो स्तम्भ शरद जोशी व राजेन्द्र माथुर पहले ही संसार छोड़ चुके हैं।
मुझे वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी से पहली बार मिलने-सुनने का सौभाग्य इसी साल प्राप्त हुआ था। पटना स्थित गांधी संग्रहालय में १२ जून को " स्वर्गीय रामचरित्र सिंह मेमोरियल लेक्टर" के तहत "लोकतंत्र का धता चौथा स्तम्भ" विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया था। वरिष्ट पत्रकार हरिवंशजी एवं गाँधी संग्रहालय के सचिव रजी अहमद भी मंचासीन थे। प्रभाष जी को सुनने के लिय मैं मुजफ्फरपुर से पटना पहुँचा था। सभागार खचाखच भरा था। लोग उन्हें खड़े होकर सुन रहे थे। सनद रहे की उनहोंने पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान मीडिया के नए एजेंडे (पार्टी प्रत्याशियों से लाखों रुपए का पॅकेज बेचकर चुनावी खबरें छापने की) के ख़िलाफ़ मुहीम छेड़ दी थी। इसी कड़ी में देशभर में घूम-घूमकर अखबारों के गिरते स्तर, चरित्र और बिकाऊ रवैये के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान को लेकर पटना पहुंचे थे। नवोदित पत्रकारों ने उनसे कई सवाल पूछे। एक ने सवाल किया की आप कहते हैं, पत्रकारों को ईमानदारी से काम करना चाहिय, लेकिन प्रखंड से रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों को दस रुपये प्रति ख़बर मिलते हैं, ऐसे में उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं। इस पर प्रभाष जी ने दो-टूक जवाब दिया की दलाली करना पत्रकारिता की मजबूरी नहीं है। वे मानते थे की पत्रकारिता साधना है, तपस्या है, मिशन है, संघर्ष के कंटीले पथ हैं। जिन्हें पैसे व ऐशो-आराम चाहिय, उन्हें इस क्षेत्र में नहीं आना चाहिय। उनके इस मुहीम में देश के कई वरिष्ठ सम्पादक शामिल थे। हरिवंश जी, वीजी वर्गीज, कुलदीप नैयर जैसे लोग उनके मुहीम में साथ दे रहे थे।
नए दौर के युवा मीडियाकर्मियों के लिए महानतम पत्रकार प्रभाष जोशी आदर्श रहेंगे। वे नहीं रहे। उनके द्वारा जलाए गए मशाल तो जलते ही रहेंगे। जाते-जाते हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में एक मिशाल कायम कर गए। एक संदेश छोड़ गए की दुसरे की प्रशंसा-आलोचना करने वाला मीडिया को अपने अन्दर भी झांकना चाहिए और ख़ुद से लड़ने का माद्दा भी पैदा करना चाहिए, जैसा की उनहोंने किया। पत्रकारिता में रहते हुए पत्रकारिता के गिरते मूल्यों के ख़िलाफ़ आवाज बुलंद की। वे कहते थे की हमें कभी पत्रकारीय धर्म को नहीं छोड़ना चाहिय। चुनाव के समय अखबार कसौटी पर होता है। चुनाव के समय सही प्रत्याशियों के चयन में मीडिया लोगों के लिय आईने की तरह होता है। यदि वाही पैसे लेकर अच्छे को बुरे और बुरे को अच्छा लिखने लगे तो लोकतंत्र का क्या होगा। लोकतंत्र के ढहते इस चौथे स्तम्भ को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए वे असमय चल दिए, यह पत्रकारिता जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।
जनसत्ता के संस्थापक सम्पादक रहे प्रभाष जोशी के चर्चित स्तम्भ "कागद कारे" समसामयिक राजनीतिक उतार-चदाव, सामाजिक घटनाक्रमों एवं इतिहास बनते वक्त के नब्ज को टटोलने वाले प्लेटफोर्म तथा जनाकांक्षाओं व जनसंघर्षों को आवाज देने वाला स्तम्भ के रूप में दर्ज किया जायगा। इंदौर में जन्मे प्रभाष जोशी ने नई दुनिया से पत्रकारिता की शुरुआत की थी। उनकी कलम ने कभी सत्ता को सलामी नहीं दी। लेखन को कभी स्वार्थ सिद्ध करने का माध्यम नहीं बनाया। हम ऐसे निर्भीक, ईमानदार, निष्पक्ष व यस्शवी लेखक-पत्रकार को सच्ची श्रद्धांजली देते हैं ! (साभार-दैनिक पूर्वांचल प्रहरी)
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