Patna. On Sunday, February 14, the world's first Bhajpuri podcast 'Dharti Maiya' has launched in a simple ceremony at La Pintura Studio at Ashiana Mod in Patna. As chief guest, Dr. Atul Aditya, head of the Department of Geology of Patna Science College, released the podcast prepared under the direction of Siddhant Sarang, a graduate student of Delhi University. On this occasion, Dr. Atul said that this podcast has been produced by Siddhant Sarang of Muzaffarpur in Bhojpuri, a local dialect. This attempt of the principle is unique because this program has been made in its own language, in its bid, with the aim of making people aware on serious issues like climate change. It has been launched with the idea of spreading the message of climate change to every section of the society and changing the attitude of people about Bhojpuri language. Dr. Atul said that local diagnosis of global problem is necessary. The problem of climate change is the most burning in today's time. The group of youth is trying on this, what can be better than this.
अप्पन समाचार_APPAN SAMACHAR
सोमवार, 15 फ़रवरी 2021
शुक्रवार, 5 जुलाई 2019
India's Siddhant Sarang wins 'The Diana Award'
A young person of India will be awarded the prestigious Diana Award in recognition of his outstanding contribution and voluntary and selfless work to society. Siddhant Sarang aged 18, from Bihar's Muzaffarpur, has been recognised with the highest accolade a young person can achieve for social action or humanitarian efforts – The Diana Award.
Siddhant Sarang is a first-year student of Delhi University but has been working against environmental protection, gender discrimination and inequality from his school. In eighth class, he started Youth Frontliners, a youth-led organization with his classmates for environmental conservation and started a monthly magazine 'Nature Lifeline' dedicated to environmental awareness by adding pocket money with his friends. He made a 3 minutes short documentary film titled 'She Tells Story', in which the struggle of rural women and girls has been shown. He has generated awareness against the dreaded diseases amongst masses as per the guidance of the World Health Organization and has raised substantial donations for cancer patients in India with Cancer Aid Society, for which he was awarded a badge and certificate. He got inspiration to work for society after seeing the plight and misery of 2008 Bihar's Koshi flood aggrieved people.
The Diana Award Team has prepared a 100 words case study on Siddhant's life and is it published in the 'Roll of Honour 2019' with other award winners on their website. The case study is as follows :
"Siddhant lives by Gandhi's quote that ‘the best way to find yourself is to lose yourself in the service of others’. Describe as ‘courageous’, Siddhant is a self-taught documentary filmmaker, fundraiser, social activist and writer committed to educating and empowering young people to speak up and take action against social injustice. He writes for national newspapers as well as blogs and websites for causes close to his heart such as climate change, child labour, gender equality, public policy and education quality. Whilst at school, Siddhant co-founded Youth Frontliners, a youth-led organisation working for environmental concerns. His ambition is to have a Coordinating Ambassador for Youth Frontliners in every country."
The award, named after the late Princess Diana, recognises young people aged 9 to 25 years, who are carrying out their activity for a minimum of 12 months and have made an outstanding and selfless contribution to their communities. This year The Diana Award celebrates its 20th anniversary year. Established in memory of Diana, Princess of Wales, the Award is given out by the charity of the same name and has the support of both her sons, The Duke of Cambridge and The Duke of Sussex.
रविवार, 27 मई 2018
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018
श्रमजीवियों का अपना साथी राहुल सांकृत्यायन
– संतोष सारंग
भारतीय समाज व्यवस्था में गरीबों, किसान–मजदूरों, मजलूमों का जीवन संघर्ष उसकी नियति रही है। इनकी मुफलिसी राजनीतिक व्यवस्था व सामंती समाज के समक्ष उपहास बनती रही है। अफसोस कि आजाद भारत में भी बुर्जुआ वर्ग त्रासद–भरी जिंदगी से खुद को बाहर निकालने के लिए आंदोलनरत है। अपने पारिवारिक सुख को त्याग कर जिस राष्ट्र के नवनिर्माण में मेहनतकश मजदूरों ने अपने रक्त व पसीने बहाए हैं, उन्हें सत्ताधीशों ने सिर्फ सपने ही तो दिखाएं हैं। संभ्रांत वर्ग का पेट भरनेवाले निर्धन किसान आज भी अधनंगे व भूखे रहने को विवश हैं। झूठी दिलासा देकर व वायदों का पिटारा दिखाकर लोकतांत्रिक राज व्यवस्था ने इन्हें खूब ठगा। पूंजीवाद के राक्षसों ने तो इनकी मुक्ति के द्वार को और ही संकीर्ण कर दिया है। यह तो साहित्य ही है, जो निर्धन वर्ग की दबी आवाज को मुखर बनाने की महती भूमिका निभाता रहा है। सत्ता–प्रतिष्ठानों पर चोट करता रहा है।
हिंदी साहित्य जगत के जिन मनीषियों ने किसान–मजदूरों की पीड़ा को अपनी रचना का विषय बनाया है, उनमें राहुल सांकृत्यायन का नाम अग्रगण्य है। गरीब किसान–मजूदर यों ही नहीं साहित्य के इस कर्मयोद्धा को राहुल बाबा के नाम से पुकारते थे। उनकी सहानुभूति व स्नेह पाकर हाशिये पर खड़े इस समाज को सबलता का एहसास होता था कि कोई तो है जो हमारी दुर्गति व दर्द को अपना समझता है। सच्चे अर्थों में वे जनता के हितैषी थे, उनके अपने आदमी थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक पिछड़े गांव में जन्मे राहुल के मन में बचपन से ही रुढि़यों–आडंबरों में जकड़े समाज के प्रति बगावत की आग दहक रही थी। यही कारण था कि दबे–कुचले लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए वे घर–बार छोड़कर भाग गये। किशोरवय में ही वे एक मंदिर के महंत बने। कुछ दिनों बाद वे आर्यसमाजी बनकर समाज में व्याप्त पाखंडों, रूढि़यों एवं सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अलख जगाने में लग गये। इस दौरान राहुल को मानसिक गुलामी में छटपटा रहे समाज को करीब से देखने–समझने का मौका मिला। यह सब देखकर उनका विद्रोही व लेखक मन बार–बार बेचैन हो उठता। वे विचलित होते और दिन–रात इन गंभीर सवालों से टकराते रहते। उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज में इन सवालों का हल संभव नहीं है। अंतत: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। राहुल सवालों के बियावान में भटकते हुए जवाब खोजते रहे, लेकिन उनको बौद्ध धर्म में भी इसका समाधान नहीं मिल सका। शोषण व भेदभाव मुक्त समाज बनाने की राह पर चलते हुए वे मार्क्सवादी विचारधारा के करीब पहुंच गये। उन्होंने गेरुआ चोला उतार फेंका और चल पड़े मजदूरों–किसानों के जीवन–संघर्ष का खेवइया बनने।
राहुलजी जानते थे कि गरीब किसानों, मजदूरों को जगाना है, तो उनकी ही भाषा–बोली में बात करनी होगी। इसलिए राहुलजी ने आम बोलचाल की भाषा में ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’, ‘तुम्हारी क्षय’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘मेहरारुन के दुरदसा’, ‘नइकी दुनिया’, ‘साम्यवाद ही क्यों’ जैसी पुस्तकें लिख कर लोगों को जागृत करने का काम शुरू किया। सोये हुए समाज को जगाना और कंपनी सरकार व जमींदारों–सामंतों के खिलाफ आमलोगों को एकजुट करना शुरू कर दिया। जनता के हक–हुकूक के लिए संघर्ष करते हुए वे कई बार जेल गये। कारागार में भी वे चुप कहां रहनेवाले थे। उनकी कलम बोलती रही। विद्रोह करती रही और वे जेल में भी निरंतर लिखते रहे। राहुलजी ने साहित्य संसार का विस्तार करते हुए, किसान आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए यह साबित कर दिया कि राजनीति साहित्य के लिए बाधक नहीं होती, बल्कि लेखक की कलम को और धार देती है।
उनका मानना था कि साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी है, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी। इसी सोच ने उन्हें किसान–मजदूरों का हितैषी बना दिया और वे पददलित–उत्पीडि़त जनता के पक्ष में हमेशा खड़े रहे। 1936 में किसान संघर्ष में भाग लेकर भूख हड़ताल पर बैठे। 1938 में किसान आंदोलन के दौरान फिर जेल जाना पड़ा। वहां मिले समय का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ‘जीने के लिए’ नामक अपना पहला उपन्यास लिखा, जिसमें वर्तमान सदी की राजनीतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि को आधार बनाते हुए एक संघर्षमय जीवन को अपनी रचना का वर्ण्य विषय बनाया। ‘‘किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेजों से आजादी और जमीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अंत नहीं होनेवाला है। उन्होंने साफ कहा कि मेहनतकशों की असली आजादी साम्यवाद में ही आयेगी। उन्होंने लिखा कि खेतिहर मजदूरों को ख्याल रखना चाहिए कि उनकी आर्थिक मुक्ति साम्यवाद से ही हो सकती है और जो क्रान्ति आज शुरू हुई है, वह साम्यवाद पर ही जाकर रहेगी।’’1
‘विश्राम’ क्या होता है, इसे राहुल सांकृत्यायन नहीं जानते थे। चलते जाना, चलते जाना एक पथिक की तरह। मेहनत करते रहना, करते रहना, एक श्रमिक की तरह। यही मंत्र थे, उनके जीवन के। ‘‘उनके सहकर्मी जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के एक–एक क्षण का अधिक–से–अधिक उपयोग किया। ‘राम काज कीन्हें बिना मोहिं कहां विश्राम’– उनके मुख से अनेकों लोगों ने सुना होगा और अनेक बार। जाने वह कौन–सा ‘राजकाज’ है जिसने उन्हें कभी विश्राम लेने नहीं दिया। क्या श्रम के इस मूल्यबोध ने ही उन्हें अंत में करोड़ों श्रमजीवियों के साथ ला खड़ा किया या इस श्रम की प्रेरणा उन्हें अपने साथी श्रमजीवियों से ही मिली थी। एक किसान की तरह उन्होंने कभी वर्षा–घाम की परवाह नहीं की, एक मजदूर की तरह उन्होंने कभी हाथ ढीला नहीं किया। एक प्रहरी की तरह उन्होंने कभी पलक न झपने दी। अकेले ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे अनेक जीवन जी गये। उन्हें पुनर्जन्म में विश्वास करने की क्या जरूरत थी?’’2 राहुल सांकृत्यायन अपने-आप में एक चलता-फिरता इन इन्साइक्लोपीडिया थे. उन्हें यात्रा साहित्य के जनक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. 26 भाषाओं के जानकार और प्रकांड विद्वान राहुल सांकृत्यायन को ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के अलावा, धर्म, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान समेत कई विधाओं में महारत हासिल था. एक तरफ अध्ययन-लेखन के सागर से मोती चुनने में लगे थे, तो दूसरी ओर यायावरी जीवन जीते हुए आम जन के दुख-दर्द का साक्षात्कार कर उसके समाधान में लगे रहते. दोनों काम के बीच इतना बेहतरीन समन्वय का उनका गुण पाठकों को बेहद प्रभावित करता है.
राहुल सांकृत्यायन के मन में जो विद्रोह का भाव था, वह उन पाखंडी व स्वार्थी समाज एवं शासन से था, जो जनता का दुख–दर्द दूर करने के बजाय, उसका इस्तेमाल करने में लगा रहता था। हालांकि, वे मानते थे कि मनुष्य में जो स्वार्थान्धता आती है, उसे भी मैं उसकी स्वाभाविक प्रकृति नहीं मानता हूं। राहुलजी समाज के जलते प्रश्नों से जूझते हुए खुद को समाज के अंतिम आदमी के प्रति समर्पित कर देते हैं। और आमजन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं तो जब अपनी जीवन–यात्र को याद करता हूं, तो हजारों स्नेहपूर्ण चेहरे आंखों के आमने–सामने लगते हैं। मैं मन ही मन उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं। उनके उपकार से उऋण होना असंभव है।’’3
संदर्भ सूची :
1.http://www.mazdoorbigul.net/archives/4953
2. नया ज्ञानोदय, विशेषांक अगस्त 2015, पृ.–120
3. नया ज्ञानोदय, सितंबर 2017, पृ.–99
भारतीय समाज व्यवस्था में गरीबों, किसान–मजदूरों, मजलूमों का जीवन संघर्ष उसकी नियति रही है। इनकी मुफलिसी राजनीतिक व्यवस्था व सामंती समाज के समक्ष उपहास बनती रही है। अफसोस कि आजाद भारत में भी बुर्जुआ वर्ग त्रासद–भरी जिंदगी से खुद को बाहर निकालने के लिए आंदोलनरत है। अपने पारिवारिक सुख को त्याग कर जिस राष्ट्र के नवनिर्माण में मेहनतकश मजदूरों ने अपने रक्त व पसीने बहाए हैं, उन्हें सत्ताधीशों ने सिर्फ सपने ही तो दिखाएं हैं। संभ्रांत वर्ग का पेट भरनेवाले निर्धन किसान आज भी अधनंगे व भूखे रहने को विवश हैं। झूठी दिलासा देकर व वायदों का पिटारा दिखाकर लोकतांत्रिक राज व्यवस्था ने इन्हें खूब ठगा। पूंजीवाद के राक्षसों ने तो इनकी मुक्ति के द्वार को और ही संकीर्ण कर दिया है। यह तो साहित्य ही है, जो निर्धन वर्ग की दबी आवाज को मुखर बनाने की महती भूमिका निभाता रहा है। सत्ता–प्रतिष्ठानों पर चोट करता रहा है।
हिंदी साहित्य जगत के जिन मनीषियों ने किसान–मजदूरों की पीड़ा को अपनी रचना का विषय बनाया है, उनमें राहुल सांकृत्यायन का नाम अग्रगण्य है। गरीब किसान–मजूदर यों ही नहीं साहित्य के इस कर्मयोद्धा को राहुल बाबा के नाम से पुकारते थे। उनकी सहानुभूति व स्नेह पाकर हाशिये पर खड़े इस समाज को सबलता का एहसास होता था कि कोई तो है जो हमारी दुर्गति व दर्द को अपना समझता है। सच्चे अर्थों में वे जनता के हितैषी थे, उनके अपने आदमी थे। पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में एक पिछड़े गांव में जन्मे राहुल के मन में बचपन से ही रुढि़यों–आडंबरों में जकड़े समाज के प्रति बगावत की आग दहक रही थी। यही कारण था कि दबे–कुचले लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए वे घर–बार छोड़कर भाग गये। किशोरवय में ही वे एक मंदिर के महंत बने। कुछ दिनों बाद वे आर्यसमाजी बनकर समाज में व्याप्त पाखंडों, रूढि़यों एवं सामाजिक बुराइयों के खिलाफ अलख जगाने में लग गये। इस दौरान राहुल को मानसिक गुलामी में छटपटा रहे समाज को करीब से देखने–समझने का मौका मिला। यह सब देखकर उनका विद्रोही व लेखक मन बार–बार बेचैन हो उठता। वे विचलित होते और दिन–रात इन गंभीर सवालों से टकराते रहते। उन्हें लगने लगा कि आर्यसमाज में इन सवालों का हल संभव नहीं है। अंतत: उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया। राहुल सवालों के बियावान में भटकते हुए जवाब खोजते रहे, लेकिन उनको बौद्ध धर्म में भी इसका समाधान नहीं मिल सका। शोषण व भेदभाव मुक्त समाज बनाने की राह पर चलते हुए वे मार्क्सवादी विचारधारा के करीब पहुंच गये। उन्होंने गेरुआ चोला उतार फेंका और चल पड़े मजदूरों–किसानों के जीवन–संघर्ष का खेवइया बनने।
राहुलजी जानते थे कि गरीब किसानों, मजदूरों को जगाना है, तो उनकी ही भाषा–बोली में बात करनी होगी। इसलिए राहुलजी ने आम बोलचाल की भाषा में ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’, ‘तुम्हारी क्षय’, ‘दिमागी गुलामी’, ‘मेहरारुन के दुरदसा’, ‘नइकी दुनिया’, ‘साम्यवाद ही क्यों’ जैसी पुस्तकें लिख कर लोगों को जागृत करने का काम शुरू किया। सोये हुए समाज को जगाना और कंपनी सरकार व जमींदारों–सामंतों के खिलाफ आमलोगों को एकजुट करना शुरू कर दिया। जनता के हक–हुकूक के लिए संघर्ष करते हुए वे कई बार जेल गये। कारागार में भी वे चुप कहां रहनेवाले थे। उनकी कलम बोलती रही। विद्रोह करती रही और वे जेल में भी निरंतर लिखते रहे। राहुलजी ने साहित्य संसार का विस्तार करते हुए, किसान आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए यह साबित कर दिया कि राजनीति साहित्य के लिए बाधक नहीं होती, बल्कि लेखक की कलम को और धार देती है।
उनका मानना था कि साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी है, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी। इसी सोच ने उन्हें किसान–मजदूरों का हितैषी बना दिया और वे पददलित–उत्पीडि़त जनता के पक्ष में हमेशा खड़े रहे। 1936 में किसान संघर्ष में भाग लेकर भूख हड़ताल पर बैठे। 1938 में किसान आंदोलन के दौरान फिर जेल जाना पड़ा। वहां मिले समय का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने ‘जीने के लिए’ नामक अपना पहला उपन्यास लिखा, जिसमें वर्तमान सदी की राजनीतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि को आधार बनाते हुए एक संघर्षमय जीवन को अपनी रचना का वर्ण्य विषय बनाया। ‘‘किसानों की लड़ाई लड़ते हुए भी राहुल ने इस बात को नहीं भुलाया कि केवल अंग्रेजों से आजादी और जमीन मिल जाने से ही उनकी समस्याओं का अंत नहीं होनेवाला है। उन्होंने साफ कहा कि मेहनतकशों की असली आजादी साम्यवाद में ही आयेगी। उन्होंने लिखा कि खेतिहर मजदूरों को ख्याल रखना चाहिए कि उनकी आर्थिक मुक्ति साम्यवाद से ही हो सकती है और जो क्रान्ति आज शुरू हुई है, वह साम्यवाद पर ही जाकर रहेगी।’’1
‘विश्राम’ क्या होता है, इसे राहुल सांकृत्यायन नहीं जानते थे। चलते जाना, चलते जाना एक पथिक की तरह। मेहनत करते रहना, करते रहना, एक श्रमिक की तरह। यही मंत्र थे, उनके जीवन के। ‘‘उनके सहकर्मी जानते हैं कि उन्होंने अपने जीवन के एक–एक क्षण का अधिक–से–अधिक उपयोग किया। ‘राम काज कीन्हें बिना मोहिं कहां विश्राम’– उनके मुख से अनेकों लोगों ने सुना होगा और अनेक बार। जाने वह कौन–सा ‘राजकाज’ है जिसने उन्हें कभी विश्राम लेने नहीं दिया। क्या श्रम के इस मूल्यबोध ने ही उन्हें अंत में करोड़ों श्रमजीवियों के साथ ला खड़ा किया या इस श्रम की प्रेरणा उन्हें अपने साथी श्रमजीवियों से ही मिली थी। एक किसान की तरह उन्होंने कभी वर्षा–घाम की परवाह नहीं की, एक मजदूर की तरह उन्होंने कभी हाथ ढीला नहीं किया। एक प्रहरी की तरह उन्होंने कभी पलक न झपने दी। अकेले ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे उन्होंने हम सबके लिए काम किया और एक जीवन में ही जैसे अनेक जीवन जी गये। उन्हें पुनर्जन्म में विश्वास करने की क्या जरूरत थी?’’2 राहुल सांकृत्यायन अपने-आप में एक चलता-फिरता इन इन्साइक्लोपीडिया थे. उन्हें यात्रा साहित्य के जनक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. 26 भाषाओं के जानकार और प्रकांड विद्वान राहुल सांकृत्यायन को ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखाओं के अलावा, धर्म, दर्शन, इतिहास, भाषा विज्ञान समेत कई विधाओं में महारत हासिल था. एक तरफ अध्ययन-लेखन के सागर से मोती चुनने में लगे थे, तो दूसरी ओर यायावरी जीवन जीते हुए आम जन के दुख-दर्द का साक्षात्कार कर उसके समाधान में लगे रहते. दोनों काम के बीच इतना बेहतरीन समन्वय का उनका गुण पाठकों को बेहद प्रभावित करता है.
राहुल सांकृत्यायन के मन में जो विद्रोह का भाव था, वह उन पाखंडी व स्वार्थी समाज एवं शासन से था, जो जनता का दुख–दर्द दूर करने के बजाय, उसका इस्तेमाल करने में लगा रहता था। हालांकि, वे मानते थे कि मनुष्य में जो स्वार्थान्धता आती है, उसे भी मैं उसकी स्वाभाविक प्रकृति नहीं मानता हूं। राहुलजी समाज के जलते प्रश्नों से जूझते हुए खुद को समाज के अंतिम आदमी के प्रति समर्पित कर देते हैं। और आमजन के प्रति सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहते हैं, ‘‘मैं तो जब अपनी जीवन–यात्र को याद करता हूं, तो हजारों स्नेहपूर्ण चेहरे आंखों के आमने–सामने लगते हैं। मैं मन ही मन उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूं। उनके उपकार से उऋण होना असंभव है।’’3
संदर्भ सूची :
1.http://www.mazdoorbigul.net/archives/4953
2. नया ज्ञानोदय, विशेषांक अगस्त 2015, पृ.–120
3. नया ज्ञानोदय, सितंबर 2017, पृ.–99
सोमवार, 4 सितंबर 2017
ओडीएफ पर मीडिया ब्रीफिंग एवं परिचर्चा
31 अगस्त 2017 को सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरमेंट (सीएसइ) के बैनर तले पटना के चाणक्या होटल में मीडिया ब्रीफिंग एवं परिचर्चा का आयोजन किया गया, जिसमें कई प्रदेशों के पत्रकारों एवं जनसंगठनों ने हिस्सा लिया. यह कार्यक्रम ओडीएफ पर आधारित था. इस कार्यक्रम को सीएसई की महानिदेशक सुनीता नारायण, डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक समेत बिहार सरकार के वरीय अधिकारी भी शामिल हुए.
बुधवार, 24 मई 2017
हिंदी उपन्यासों में ग्रामीण जनजीवन का चित्रण
- संतोष सारंग
उत्तर आधुनिकता का लबादा ओढ़े आज का आम आदमी नगरीय तौर-तरीके अपनाने को आकुल है। ग्राम्य जीवन में भी शहरीपन समा चुका है। ठेठ देहाती जीवन मूल्यों पर चोट करती अपसंस्कृति का दर्शन खेत-खलिहानों व पगडंडियों तक में हो जाता है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, उदारीकरण के कारण ग्रामीण जनजीवन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। टूटते-बिगड़ते रिश्तों की डोर, सामाजिक सरोकारों से विमुख होकर स्व तक सीमित हो जाना, सहजीवन की वृत्तियों को भुला देना, यह क्या है? प्रगतिशील समाज का द्योतक या समाज का विघटन। समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन प्रगतिवादियों के लिए शुभ हो सकता है, लेकिन एक मजबूत सामाजिक परंपरा के लिए कमजोर करनेवाली प्रक्रिया है। आज का गांव नये रूप में आकार ले रहा है। आधुनिकता की खुली हवा में जवान होती आज की पीढ़ी के खुले विचारों के कारण गांव की आबो-हवा भी बदल रही है। नये विचारों के कारण नयी जीवन पद्धतियां अपनायी जा रही हैं। इसे आप विघटन कह लें अथवा सहज सामाजिक बदलाव। कथा साहित्य इस परिवर्तन को महसूस कर रहा है और इसे अपनी तरह से व्याख्यायित भी करने में पीछे नहीं है। ग्रामीण यथार्थ को साहित्य की अन्य विधाओं ने भी वर्ण्य विषय बनाया है, लेकिन उपन्यास ने ग्रामीण संवेदनाओं को, गांव की माटी में रहकर दुख-दर्द व संत्रास भोगनेवाले दलितों की दयनीय स्थिति को, किसानों की त्रासदी को पूरी ईमानदारी से हूबहू परोसकर महाकाव्यात्मक रूप धारण कर लिया है। प्रेमचन्दोत्तर युगीन कथा साहित्य ने खुद को ऐयारी-तिलिस्म, जासूसी व मनोरंजक छवि से खुद को बाहर निकालकर बदलते गांव की छटपटाहट को महसूस कर उसकी कथा-व्यथा को जीवंत तरीके से चित्रित किया है।
हिन्दी उपन्यासों में ग्राम्य जीवन का वृहत् चित्रण सर्वप्रथम प्रेमचंद के उपन्यासों में दिखाई देता है। प्रेमचंद ने उपन्यासों में वैसे तो समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण किया है, लेकिन सबसे अधिक श्रमशील रहनेवाले किसानों पर लिखा है; जिसकी आबादी करीब 85 फीसदी है। प्रेमचंद के साहित्य संसार में प्रविष्ट करने का मतलब है भारतवर्ष के गांवों को सच्चे रूप में देखना। उपन्यास सम्राट का साहित्य ग्राम्य चेतना से ओतप्रोत है। प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ महाकाव्य का स्वर गूंजित करते हुए इसलिए कालजयी कृति बन सका, क्योंकि उन्होंने भारत की आत्मा में प्रेवश कर अपनी कलम चलायी।
गोदान (1936) के प्रकाशन से दस साल पहले शिवपूजन सहाय ‘देहाती दुनिया’ लिख चुके थे। यह उपन्यास भोजपुर अंचल के ग्राम्य जनजीवन के अनेक प्रसंगों का संकलन है, जो तत्कालीन गांव को यथार्थ रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करता है। गांव की बोली-बानी, भोजपुरी संस्कृति, आंचलिक मुहावरों-कहावतों व लोकगीतों के कारण इस उपन्यास को आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी गयी। 1934 में जयशंकर प्रसाद ने ‘तितली‘ में ग्राम्य जीवन के चित्र व जटिल समस्याओं का अंकन किया। इस उपन्यास के केंद्र में धामपुर गांव है, जिसकी कथा को आगे बढ़ाता है मुख्य पात्र तितली (बंजो), मधुबन (मधुआ), बाबा रामनाथ, राजकुमारी, इंद्रदेव, शैला आदि। ‘‘किसानों-मजदूरों पर होनेवाले अत्याचारों, तहसीलदारों-महंतों के हथकंडों, कलकत्ता महानगरी के जुआडी-जेबकतरों के कारनामों तथा निम्न वर्ग की दयनीय स्थिति, वेश्याओं की धनलोलुपता, विधवा राजो की अतृप्त कामभावना आदि का तितली में यथार्थ अंकन किया गया है।’’1
प्रेमचंद के बाद फणीश्वरनाथ रेणु दूसरे बड़े उपन्यासकार हैं, जिन्होंने गांव को केंद्र में रखकर साहित्य साधना की। ग्राम्य चेतना से पूरित आंचलिक उपन्यास का उद्भव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास जगत की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि रही है। आजादी के सात साल बाद 1954 में ‘मैला आंचल’ के प्रकाशन के साथ ही ‘आंचलिकता’ ने अपना स्वतंत्र अर्थ ग्रहण करते हुए हिन्दी साहित्य संसार में अपनी पैठ बना ली। ग्रामीण जीवन पर स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले भी बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन ग्राम्य चेतना को आंचलिक शब्द में पिरोने का काम रेणु ही कर सके। ‘‘इतना तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि अंचल को और उसकी कथा-व्यथा को संपूर्णता में उकेरने वाला यह हिन्दी का पहला उपन्यास है और ‘गोदान’ की परंपरा में हिन्दी का अगला। रेणु के उपन्यासों की शुरुआत वहां से होती है, जहां से प्रेमचंद के उपन्यासों का अंत होता है अर्थात् जब टूटती सामंती व्यवस्था का स्थान नया पूंजीवाद लेने लगता है। गोदान का मुख्य पात्र है तत्कालीन भारतीय जीवन और वह उसी प्रकार समष्टिमूलक उपन्यास है जिस प्रकार टॉल्सटाय का ‘वार एंड पीस’, शोलोकोव का ‘क्वाइट फ्लोज द डोन’ तथा अमरीकी उपन्यासकारों सिन्क्लेयर लीविस और जॉन स्टाइनवेक की रचनाएं। फणीश्वरनाथ रेणु ने भी अपनी इस कृति में व्यष्टि को नहीं समष्टि को प्रधानता दी है; यहां व्यक्ति गौण, प्रासंगिक ही है। इसकी कहानी व्यक्ति की नहीं, पूरे गांव की कहानी है। वह अंचल की जिन्दगी सामने रखता है।’’2
उपन्यास सम्राट प्रेमचंद व आंचलिक कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु के बाद ग्राम्य संवेदनाओं को गहराई से पकड़नेवाले कथाकारों में अररिया जिले के नरपतगंज गांव में किसान परिवार में 1 जनवरी 1945 को जन्मे रामधारी सिंह दिवाकर का नाम सबसे ऊपर आता है। वे ग्राम्य चेतना के कुशल चितेरे कहे जा सकते हैं। रेणु के बाद गांव-अंचल पर उपन्यास लेखन कर्म के दूसरे बड़े सिद्धहस्त शिल्पी माने जाते हैं। उनके लेखन व चिंतन में गांव की माटी की खुशबू पोर-पोर में समाहित है। दिवाकरजी पर रेणु का प्रभाव साफ-साफ दृष्टिगोचर होता दिखता है, तो इसका पुख्ता कारण भी है। कोसी अंचल के जिस इलाके में रेणुजी का लेखन व जीवन पल्लवित-पुष्पित हुआ, उसी इलाके में दिवाकरजी का भी बचपन बीता, जवानी के दिन बीते और लिखना शुरू किया। रेणु का सानिध्य मिला, तो उनके लेखक मन पर गांव की माटी में साहित्य साधना के बीज अंकुरने लगे, जो आगे चलकर उनके लेखन का आधार बीज बनकर साहित्य जगत में छा गया।
सुपरिचित कथा-शिल्पी रामधारी सिंह दिवाकर ग्रामीण जनजीवन के सशक्त कथाकार हैं। उनके सभी उपन्यास ‘क्या घर क्या परदेश’, ‘काली सूबह का सूरज’, ‘पंचमी तत्पुरुष’, ‘आग पानी आकाश’, ‘टूटते दायरे’, ‘अकाल संध्या’ एवं ‘दाखिल खारिज’ ग्रामीण जनजीवन के दस्तावेज हैं। दिवाकर अपनी पहली ही औपन्यासिक कृति ‘क्या घर क्या परदेश’ में गांव की आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों को उभारने में सफल दिखते हैं। ‘‘आज की बदली हुई परिस्थिति में गांव की स्थिति यह है कि अपने ही खेत में अपने ही हाथ से खेती करनेवाला व्यक्ति हेयदृष्टि से देखा जाता है। दूसरी ओर ऐन-केन-प्रकारेण पैसा बटोरने वाले भ्रष्ट चरित्र समाज के लिए आदर्श बन गये हैं।’’3 ‘अकाल संध्या’ उपन्यास की कथा पूर्णिया जिले के दो गांवों मरकसवा व बड़का गांव को केंद्र में रखकर बुनी गयी है। यह उपन्यास जमींदारों, सवर्णों व बबुआन टोलों के पराभव एवं दलित चेतना के निरंतर हो रहे उभार की कहानी कहता है। ‘‘शूद्रों के उदय की यह कैसी काली आंधी चली है? इस काली आंधी ने परंपरा से चली आ रही सवर्ण सत्ता के चमकते सूरज को शाम होने से पहले ही ढंक लिया। बाबू रणविजय सिंह की जमीन खरीद रहा है गांव का खवास झोली मंडर। नौकर-चाकर अब मिलते नहीं हैं। सब भाग रहे हैं-दिल्ली, पंजाब। बाबू-बबुआनों की जमीन खरीद रहे हैं गांव के राड़-सोलकन।’’4
प्रेमचंदोत्तर युगीन उपन्यासकारों ने गांव को आधार बनाकर दर्जनों बेहतरीन रचनाएं लिखी हैं, उनमें बाबा नागार्जुन का खास स्थान है। इनके सभी उपन्यासों की कथाभूमि मिथिला के गांव हैं। रतिनाथ की चाची, बलचनमा, नई पौध, बाबा बटेसरनाथ, दुखमोचन, वरुण के बेटे में नागार्जुन ने ग्रामीण जीवन की सामाजिक विषमता, किसानों की यातनापूर्ण स्थिति, गरीबी, वर्ग व्यवस्था को उजागर किया है। बलचनमा निम्नवर्गीय किसान का पुत्र है, जो बड़ा होकर किसान जीवन की पीड़ा, त्रासदियों व अभावों को झेलता हुआ जमींदारों के अमानवीय अत्याचार को झेलता रहता है। इसी तरह नई पौध में सौरठ मेले से जुड़ी सड़ी-गली प्रथा, स्वार्थवृत्ति और पुरानी पीढ़ी की शोषक वासना का नंगा चित्र उद्घाटित करता है। इसमें दिखाया गया है कि कैसे नई पौध के लोग पुरातनपंथी सोच को नकारने को आंदोलित हो उठते हैं।
जीवनभर रोजी-रोटी के लिए खेतों में पसीने बहाते किसानों, अभावग्रस्त ग्रामीणों की तबाही और बढ़ जाती है जब बाढ़ कहर बनकर टूटती है। बाढ़ की विभीषिका झेलनेवालों की त्रासद कथा को भी उपन्यास में स्वर मिली है। जगदीशचंद्र माथुर का ‘धरती धन न अपना’, रामदरश मिश्र का ‘टूटता हुआ जल’ विवेकी राय का ‘सोना माटी’, रामदरश मिश्र का ‘पानी के प्राचीर’ आदि उपन्यासों में हर साल बाढ़ का कहर झेलते गांवों के लोगों की अंतहीन पीड़ा की दास्तां है। इन उपन्यासों में लेखक ने श्वेत पक्ष को भी उद्घाटित किया है। बाढ़ आती है तो सिर्फ धन-जन ही बहाकर नहीं ले जाती है। वह आपसी वैमनस्य को भी बहा ले जाती है। ‘‘सोना माटी उपन्यास में हर तरफ फैले हुए बाढ़ के पानी के बावजूद रामपुर, मेहपुर, चटाई टोला, बीरपुर जैसे सबके सब गांव एक-दूसरे के निकट आते हैं और सामाजिकता का पूरा निर्वहन करते हैं। बाढ़ का पानी मानों इन गांवों को, गांवों के मैले मन को जोड़ने का सूत्र हो।‘‘5
शिव प्रसाद सिंह ने ‘अलग-अलग वैतरणी’ में गर्मी-सर्दी की परवाह किये बिना सालों भर मेहनत करनेवाले भारतीय कृषकों में व्याप्त निराशाजनक स्थितियों को रूपायित किया गया है। ‘बबूल’ उपन्यास में बाढ़नपुर गांव में व्याप्त बेकारी की समस्या को चित्रित किया गया है। काम की तलाश में अधिकतर मजदूर दूसरे प्रांतों में पलायन कर जाते हैं। ‘अपनी अपनी कंदील’ में हिमांशु श्रीवास्तव ने माली परिवार की सामाजिक व आर्थिक दशा का अनुशीलन किया है। गांव के गरीबों को सूदखोर उसकी जमीन-जायदाद तक हड़प लेते हैं और उसे जीवनभर दर-दर की ठोकरें खाने को विवश कर देते हैं, यही पीड़ा इस उपन्यास में उभरकर आता है।
रामदरश मिश्र का ‘सूखता हुआ तालाब’ की चेनइया अपने विजिड़ित जीवन को लेकर देव प्रकाश से कहती हैं। ‘‘बाबा, गांव सचमुच रहने लायक नहीं है, मैं गांव से भाग रही हूं। गांव ने मुझे बेस्सा बनाकर छोड़ दिया, अब जान लेने पर उतारू है।’’6 यहां सूखते हुए तालाब के जरिये कथाकार ग्रामीण जीवन से मानवीय संवेदनाओं के लोप होने की बात उकेरता है। तालाब के सूखने का मतलब है गांव में जीनेवाले लोगों की संवेदनाओं का सूखना। ग्रामीण जीवन में तालाब का एक अपना महत्व है। यह जीवन व परंपरा से जुड़ी है। तालाब को पवित्र मानकर गांव के लोग इसके तट पर धार्मिक अनुष्ठान करते हैं। आधुनिकता ने तालाब की समृद्ध परंपरा के स्रोत को ही सूखा दिया है।
वृंदावनलाल वर्मा का ‘लगन’, अमृतलाल नागर का ‘महाकाल’, उग्रजी का ‘जीजीजी’, गोविंदबल्लभ पंत का ‘जूनिया’, भैरव प्रसाद गुप्त का ‘गंगा मैया’, राही मासूम रजा का ‘आधा गांव’, श्रीलाल शुक्ल का ‘राग दरबारी’, शिवकरण सिंह का ‘अस गांव पस गांव’, मधुकांत का ‘गांव की ओर’, एकांत श्रीवास्तव का ‘पानी भीतर फूल’, मार्कण्डेय का ‘अग्निबीज’ आदि उपन्यासों में भी ग्रामीण संवेदनाएं खुलकर उभरी हैं। सियारामशरण गुप्त, उदयशंकर भट्ट समेत कई अन्य कथाकारों ने भी उपन्यासों के माध्यम से गांव का कच्चा चिट्ठा खोलकर रख दिया है।
वैसे तो, प्रेमचंद से लेकर विवेकी राय तक ने टूटते-बिखड़ते भारतीय गांव के सत्य से पाठकों को साक्षात्कार कराया है, लेकिन बदलते हुए गांव को बारीकी से पकड़ने में रामधारी सिंह दिवाकर ही सफल हो पाये हैं। समय की मार ने जमींदारों को अपनी जमीन बेचने पर मजबूर किया, तो उधर सदियों से सताये गये दलित वर्ग के लोग उनकी प्लॉट खरीद रहा है। पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद सड़ी-गली राजनीति का अड्डा बने गांवों में दम तोड़ते मूल्यों की भयानक चीख व्याप्त हो गयी है। मानवीय संबंधों के बीच से रागात्मकता खत्म हो रही है। पिछले कुछ दशकों में दलितों-पिछड़ों के बीच एक सम्पन्न वर्ग पैदा हुआ है। इस वर्ग की अपनी विशेषताएं-विद्रुपताएं हैं। गांवों की इन जटिलताओं व विडंबनाओं को दिवाकर जैसे उपन्यास लेखक ही पकड़ पाये हैं।
संदर्भ :
1. गोपाल राय, हिन्दी उपन्यास का इतिहास, पृष्ठ 151
2. डॉ शान्तिस्वरूप गुप्त, हिन्दी उपन्यास : महाकाव्य के स्वर, पृष्ठ 83
3. ग्रामीण जीवन का समाजशास्त्र, संपादक : जीतेंद्र वर्मा, पृ. 126
4. रामधारी सिंह दिवाकर, अकाल संध्या, पृ 71, 72
5. देवगुड़ि हुसेनवली, प्रेमचन्दोत्तर हिन्दी उपन्यासों में ग्राम जीवन, पृ. 68
6. डॉ रामदरश मिश्र, सूखता हुआ तालाब, पृ. 102
आवारा पूंजी के इशारे पर नाचता मीडिया
- संतोष सारंग
देश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विकास में मीडिया की महती भूमिका होती है। समाज को जागरूक करना, नैतिक मूल्यों को स्थापित करना, भ्रष्टाचार पर प्रहार करना, आम पाठकों की चेतना को झकझोर कर जनमत का निर्माण करना, निष्पक्ष व निर्भीक रहकर सच को उद्घाटित करना पत्रकारिता के दायित्व हैं। मीडिया जनसंचार का सबसे सशक्त माध्यम होता है। इसका असर देश की राजनीति, समाज के विकास पर व्यापक रूप से पड़ता है। मीडिया की जिम्मेवारी है कि वह लोकजीवन की व्यथा एवं उसकी त्रासदी की सही तसवीर पेश कर आम आदमी की आवाज सरकार तक पहुंचाएं। लेकिन क्या वर्तमान दौर में ऐसा हो पा रहा है। इसका जवाब हां और ना दोनों में दिया जा सकता है। कई मोर्चों पर मीडिया का स्याह पक्ष और घनघोर दिखने लगता है, तो कई बार मजबूती व ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका निभाता प्रतीत होता है। मीडिया अपने ऊपर लगे धब्बे को धोने में अन्ना आंदोलन के समय कामयाब हुआ था। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ी गयी इस लड़ाई के दौरानं मीडिया की भूमिका जनपक्षधरता वाली रही। लेकिन आवारा पूंजी उसे आम-अवाम के साथ खड़े होने ही नहीं देती है। ं
मीडिया मतलब - लोकतंत्र का चैकीदार, बेजुबानों की आवाज, चौथा स्तम्भ, अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम, निडर व निष्पक्ष आदि-आदि। वर्तमान संदर्भ में ये सारे शब्द अब अपनी चमक खो रहे हैं। जिस दौर से आज की पत्रकारिता गुजर रही है, वह मिशनवाली पत्रकारिता को नकारता ही नहीं, धिक्कारता भी है। गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, प्रभाष जोशी की पत्रकारिता निरंकुश सत्ता से टकराती थी, न कि उसकी चिरौरी करती थी और तलबे चाटती थी। जब से मीडिया ने इंडस्ट्री का रूप धारण किया है, मीडिया के मायने ही बदल गये। सारे मानक, मूल्य ध्वस्त हो गये। बाजार पर टिकी अर्थव्यवस्था व प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हो रहे नित्य नये-नये प्रयोग के चलते मीडिया जनोन्मुखी नहीं, बाजार उन्मुखी होकर रह गया है। बाजार ने उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया है। आज के मीडिया से व्यापारिक लाभ-हानि की उम्मीद तो की जा सकती है, लेकिन जनसरोकार वाली पत्रकारिता की नहीं। ‘‘आज मीडिया का उद्देश्य लाभ कमाना है। इसमें खबरों से ज्यादा विज्ञापन उत्पाद हैं। मीडिया उच्च वर्ग के पक्ष में सहमति निर्मित करने का सबसे कारगर औजार बन गया है। नाॅम चाॅमस्की के अनुसार, ‘सहमति निर्माण करने और जनमन का नियंत्रण करनेवाला औजार है। ’ 19वीं सदी में ही एक फ्रेंच उपन्यासकार ने व्यवसाय बन चुकी पत्रकारिता के बारे में कहा था कि दरअसल वह ‘मानसिक वेश्यालय’ होती है, जिसमें पत्र मालिक ठेकेदार होते हैं और पत्रकार दलाल। आज मीडिया का लगभग यही हाल हो रहा है। इसे निकट से जाननेवाले मानते हैं कि यह नरक बन गया है-फैशन व ग्लैमर से चमचमाता एक नरक।’’1 तेजी से बदल रही दुनिया के साथ कदमताल करते जनसंचार माध्यमों के सामने आज कई गंभीर चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में आज के समय में मीडिया की भूमिका को तलाशने की जरूरत है।
वैश्विक गांव बन चुकी दुनिया में एक-एक आदमी उपभोक्ता बन चुका है। 90 के दशक के बाद भूमंडलीकरण की ऐसी हवा बही कि आम आदमी की निहायत निजी जिंदगी व दैहिक-मानसिक वृत्ति भी बाजार के हवाले चली गयी। बड़ी चालाकी से बाजार के धुरंधरों ने पहले अपने व्यापार के विस्तार के लिए जमीन तैयार की, उसके बाद हमारी भावनाओं व संवेदनाओं को भी उत्पाद बनाकर बाजार में उतार दिया। बाजार जितना बड़ा होगा, विज्ञापन की संभवानाएं भी उतनी ही बड़ी होंगी। ‘‘पत्रकारिता वास्तव में विज्ञापन के व्यवसाय का दूसरा नाम है। टाइम्स आॅफ इंडिया के विनीत जैन ने अपने एक इंटरव्यू मेें ये कहा था कि वे न्यूज के व्यवसाय में नहीं है, बल्कि वे विज्ञापन का व्यवसाय करते हैं।’’2 विज्ञापन और उससे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की प्रवृति ने लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता करनेवाले संस्थानों को पत्रकारिता के लिए कारोबार करनेवाले संस्थानों में परिवर्तित कर दिया है। कल तक पेट्रोल व मोबाइल बेचनेवाली कंपनियां आज अखबार निकाल रही हैं, समाचार चैनल चला रही हैं। कुल मिलाकर प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पर काॅरपोरेट घरानों का कब्जा हो गया है। बाजार अपना होगा, वस्तु (प्रोडक्ट्स) भी अपनी और विज्ञापन भी अपने ही समूह के अखबार व चैनल पर होगा। पूंजी का यह मायाजाल मीडिया को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि आज उसकी भूमिका क्या रह गयी है। असत्य के धरातल पर सत्य का उद्घाटन करना आज बड़ा कठिन कार्य हो गया है। बाजार की इस चालाकी पर गौर करें तो सारा माजरा समझ में आ जाता है कि कैसे न्यूज व व्यूज को उत्पाद बनाकर आकर्षक ढंग से पेश करने का सारा खेल चल रहा है। इस पूरे खेल के पीछे सत्ता का भी हाथ है और पूरी मशीनरी का भी। बाजार व सरकार के इस नये गठजोड़ ने सच्ची पत्रकारिता करनेवालों व इसके इथिक्स को बचाये रखने में लगे लोगों को भी चिंतित कर रखा है।
प्रबंधन व विज्ञापन के दबाव में अपने पत्रकारीय धर्म का ईमानदारीपूर्वक निर्वहन न कर पाने की छटपटाहट के बीच पत्रकारिता अपना तेवर खोती जा रही है। अखबारनवीस की कलम की धार कुंद होती जा रही है। अब खासकर हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में योग्य, कुशल, प्रतिभाशाली व ईमानदार पत्रकारों की कमी खलने लगी है। न्यूज रूम व रिपोर्टिंग में ऐसे लोग आ रहे हैं, जो संपादक के कृपापात्र होते हैं या पैरवीपुत्र। न्यूज रूम का माहौल ऐसा बन गया है, जहां बौद्धिक विमर्श के लिए कोई जगह नहीं है। घासलेटी बातें, घटिया राजनीति न्यूज रूम की भाषा व पहचान बन गयी है। वो जमाना गया, जब एक पढ़ा-लिखा व जागरूक पाठक ‘संपादक के नाम पत्र’ लिख-लिख कर लेखक-पत्रकार बन जाता था। न्यूज रूम में भी इस स्तम्भ में प्रकाशित गंभीर पत्र पर चर्चा होती थी और उसका असर सरकारी विभागों पर भी पड़ता था। जब से अखबार उत्पाद वस्तु बना, तब से ‘खबरों का असर’ भी घट गया है। खबरों का असर दिखाने के लिए सरकारी विभाग तक को मैनेज किया जाने लगा है। खबरों का खौफ हाकिम-हुक्मरानों में नहीं रहा। मीडिया का मुंह बंद करना है तो विज्ञापन दे दो, नहीं तो पैसे से मीडिया मैनेज कर लो।
मीडिया मालिकों को भी अब संपादक नहीं, मैनेजर चाहिए, जो मैनेजमेंट की भाषा बोले, पत्रकारिता न झाड़े। वर्तमान समय में संपादक पद की गरिमा की बात करना बेमानी है। जब से हिन्दी अखबारों के छोटे-छोटे शहरों में लोकल एडिशन निकलना शुरू हुआ है, तब से मीडिया के क्षेत्र में काफी गिरावट आयी है। जितने संस्करण, उतने संपादक चाहिए। बुजुर्ग संपादकों का जमाना गया। अनुभवहीन, अधकचरे ज्ञान वाले युवा संपादकों की मांग बढ़ी है। ‘‘बाजारवाद की जकड़न में फंसे प्रिंट मीडिया के संसार में आज ऐसे संपादकों का अकाल पैदा हो गया है जो बाबूराव विष्णु पराड़कर की तरह नये समय के उपयुक्त कुछ नये शब्द गढ़ सकें। उच्च पौद्यौगिकी के नये स्वरों के अनुकूल शब्दों को समायोजित कर सकें। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की तरह उपभोक्तावादी संस्कृति के विकृत प्रभाव से हिंदी भाषा के संस्कार को बचा सकें, विकृत और भ्रष्ट हो चुकी भाषा के परिमार्जन का बीड़ा उठा सकें।’’3 भाषा संस्कार व शुद्धता की दृष्टि से हिंदी पत्रकारिता को कंगाल कहा जा सकता है। हिंदी पट्टी से निकलनेवाले अखबारों के डाक एडिशन को भाषायी प्रदूषण फैलाने के कारण ‘कचरा संस्करण’ कहा जा सकता है। 300 शब्दों के एक खबर में 50-100 त्रुटियां मिल जायेंगी। लुगदी अखबारों को पाठक झेल रहे हैं।
आज संकट सिर्फ मीडिया की विश्वसनीयता व साख का ही नहीं, बल्कि स्मार्टफोन के जमाने में गंभीर पाठकों का भी हो चला है। आज के सुधि पाठकों की मुट्ठी में दुनियाभर के अखबार व चैनल सिमटकर आ गये हैं। शहरी ही क्यों, गांव के नवधनाढ्य भी स्टेटस सिंबल के लिए दो-तीन अखबार अपने दरवाजे तक मंगवाता है, लेकिन 4जी-5जी की स्पीड से भाग रही खबरों के पीछे उनका दिमाग भागता रहता है। उसे फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सअप, ब्लाॅगिंग, यू-ट्यूब से फुर्सत कहां है कि 16-18 पेज के न्यूजपेपर कोे पलटे। पाठक ही क्यों, पत्रकार भी तो सिर्फ लिखने के आदी हो गये हैैं, पढ़ने के नहीं। महीनों तक एक ही तरह की गलतियां छपती रही हैं और पाठक उसे झेलता रहता है। इतना ही नहीं, कई और तरह के संकट झेल रहे प्रिंट व इलेक्ट्राॅनिक मीडिया पूंजी के प्रवाह में ऐसा बहा कि उसकी भूमिका ही बदल गयी। निष्पक्ष पत्रकारिता व साख के बल पर सरकार तक को हिला देनेवाला मीडिया पेड न्यूज छापने लगा। जनमत निर्माण की महती भूमिका छोड़कर सरकार के पक्ष में अथवा खिलाफ में हवा बनाने में रम गया। इसका असर सबसे पहले उसकी साख पर पड़ी।
हालांकि, 2009 में देश के छह बड़े संपादकों प्रभाष जोशी, कुलदीप नैयर, अजीत भट्टाचार्य, जार्ज वर्गीज, हरिवंश व अच्युतानंद मिश्र ने पेड न्यूज के खिलाफ देशभर में अभियान चला कर वर्णसंकर पत्रकारिता पर आघात किया। 6 फरवरी 1992 को सुप्रसिद्ध पत्रकार सुरेंद्र प्रताप सिंह ने रांची में प्रभात खबर द्वारा आयोजित ‘भारत किधर व्याख्यानमाला’ में चिंता जाहिर की थी, ‘‘हिंदी पत्रकारिता में आज सबसे बड़ी चुनौती पत्र-पत्रिकाओं और अखबार के साख का है। पिछले दो सालों से साख का सवाल ज्यादा विकराल रूप में हमारे सामने आ खड़ा हुआ है। मंडल आयोग और मंदिर-मसजिद के मुद्दों पर तो साख को और धक्का लगा है। आज हिंदी पत्रकारिता जहां पहुंची है, वहां से वह ऐसे सवाल छोड़ गयी है, जिसका सही समाधान नहीं किया गया, तो वह पतन के गर्त में चली जायेगी। अभी तो लोग पत्रकारों से पुलिसवालों की तरह डरने लगे हैं। पता नहीं क्यों यह स्थिति बनी है कि लोग पत्रकारों, पत्रकारिता और छपे हुए शब्दों से डरने लगे हैं। इन्हें अप्रभावी माना जाने लगा है, जबकि कुछ वर्ष पहले तक लोग अखबार में छपे शब्दों को ब्रह्म वाक्य मानते थे और पत्रकारों को सम्मान की नजर से देखते थे। आज यह आत्ममंथन करने की जरूरत है कि कहीं इसके लिए पत्रकार स्वयं तो जिम्मेवार नहीं हैं?’’4
इसमें दो राय नहीं कि जब मीडिया कमजोर होगा, तो लोकतंत्र को संक्रमण से नहीं बचाया जा सकता है। अब समय आ गया है कि पत्रकारिता की कमजोर होती जड़ों को मजबूत किया जाये। मीडिया को खुद अपनी भूमिका तय करनी होगी, नहीं तो बाजार उसे ग्रास बनाकर चबा जायेगा। इन दिनों पत्रकारिता के शब्दकोष में कई ऐसे शब्द गढ़े गये हैं, जो उसकी भूमिका को प्रभावी बना सकते हैं। जनमीडिया, सोशल मीडिया, कम्युनिटी मीडिया, मोबाइल मीडिया के दौर में इस क्षेत्र में नयी संभावनाओं का दौर खुला है। देश-दुनिया में कई सफल प्रयोग हुए हैं, जो भटके काॅरपोरेट मीडिया को चुनौती दे सकते हैं। कम संसाधन व पूंजी में यूपी के बुंदेलखंड समेत कई जिलों से महिलाओं द्वारा निकाले जानेवाला अखबार ‘खबर लहरिया’ इसका बड़ा उदाहरण है। देश ही नहीं विदेशों में भी वैकल्पिक मीडिया के कई सफल नाम हैं। ‘ओह माई न्यूज’ दक्षिण कोरिया का एक आॅनलाइन न्यूजपेपर है, जिसका पंचलाइन ही है-हर नागरिक पत्रकार है। इसमें 80 फीसदी कंटेंट आमलोग उपलब्ध कराते हैं और केवल 20 फीसदी पेशेवर पत्रकार। न किसी काॅरपोरेट घरानों का दबाव और न सरकार का। ओह माई न्यूज करीब 17 साल से नागरिक पत्रकारिता के जरिये अपने दायित्वबोध से भटके मीडिया के समक्ष एक नजीर पेश करता आ रहा है।
बहरहाल, वर्तमान परिपे्रक्ष्य में मीडिया को तमाम दबावों, प्रलोभनों के बीच से ही कोई न कोई रास्ता खोज निकालना होगा, जो उसे पुरानी भूमिका में ला खड़ा करे, क्योंकि बाजार से मुक्ति अभी मिलनी नहीं है। जिस दिन मीडिया अपनी पत्रकारीय धर्म को छोड़कर पूरी तरह बाजारू बन गया, उसी दिन उसका क्षय अवश्यंभावी हो जायेगा। आज डर इसी बात का है और इस मुश्किल भरे दौड़ से उबार ले जाने की चुनौतियां भी बरकरार हैं।
संदर्भ:1. गवेषणा, पृ. 104-105, अंक-105/2015
2. जन मीडिया, पृ. 24, अंक-फरवरी 2017
3. गगनांचल, पृ. 95, अंक-4-5, जुलाई-अक्टूबर, 2015
4. प्रभात खबर: प्रयोग की कहानी, पृ. 185
रविवार, 14 अगस्त 2016
मंगलवार, 28 जून 2016
फुलदेव गैरों से निभाते हैं खून के रिश्ते
- संतोष सारंग
- खून देकर बचाते हैं जिंदगी, 34 बार कर चुके हैं रक्तदान
फूलदेव पटेल |
डॉ वीरेंद्रनाथ मिश्र बिहार विवि में हिंदी के प्रोफेसर हैं. उनकी पत्नी लंबे समय से बीमार है. फूलदेव उन्हें अब तक दो बार खून दे चुके हैं. डॉ मिश्र बताते हैं कि यह उनके व्यक्तित्व का शौर्य, हृदय का सौंदर्य और आचरण का औदार्य है कि दोनों किडनी फेल होने के कारण डायलीसिस पर पड़ी जानलेवा बीमारी कैंसर से संघर्ष करती हुई मेरी पत्नी रंभा मिश्रा को फुलदेवजी ने रक्त रूप में जीवन की सांसें दान स्वरूप दी. उस फुलदेवजी ने मंगल का व्रत रखा था. उपवास पर थे. यह व्यक्तित्व हमारे समाज के लिए प्रेरणादायी है. रक्तदान जैसे महायज्ञ को सफलीभूत करनेवाले नायक के रूप में मेरे लिए वे आदरणीय हैं.
फूलदेव कहते हैं कि जिंदगी बचाना ही मेरा मकसद है. सबसे पहले 12 दिसंबर, 1996 को सूरत में एक मजदूर को खून देकर जान बचायी थी. वह सड़क हादसे में गंभीर रूप से जख्मी हो गया था. डॉक्टर ने तत्काल खून की व्यवस्था करने को कहा, क्योंकि उसकी जिंदगी खतरे में थी. पहली बार मुझे ब्लड डोनेट करने में डर लग रहा था. लेकिन, मेरे सामने एक जिंदगी को बचाने का सवाल था. मुझे सुकून हुआ, जब वह बच गया. उसी घटना ने मेरी जिंदगी के मकसद को बदल दिया. जब भी कोई पुकार दे, मैं अपना काम छोड़ कर दौड़ा-दौड़ा खून देने चला जाता हूं.
बुधवार, 23 दिसंबर 2015
काला पानी की सजा भुगत रहे कई गांव
- संतोष सारंग
सीतामढ़ी के रून्नीसैदपुर व बेलसंड के आधा दर्जन गांवों के लिए मानो ‘मनुषमारा’ नदी अभिशाप बन गयी है। उत्तर बिहार के इस सुदूर इलाके के लोग 15 साल से काला पानी की सजा भुगत रहे हैं। खड़का पंचायत के भादा
इस इलाके का करीब 20,000 एकड़ भूभाग दूषित पानी में डूबा है। स्थिति इतनी भयावह हो गयी है कि यहां के लोग अपनी माटी, अपना गांव छोड़कर पलायन करने को मजबूर हैं। पिछले दिनों तिरहुत प्रक्षेत्र के आयुक्त अतुल कुमार ने रून्नीसैदपुर के दो गांवों भादा टोल व हरिदोपट्टी का दौराकर वहां की अभिशप्त जिंदगी को निकट से देखकर द्रवित हुए। लौटकर उन्होंने अपनी वेबसाइट पर पूरी रिपोर्ट लिखी थी। इन गांवों में अधिकारियों की टीम जाकर शिविर लगाया और बुनियादी जरूरतों को पूरी करने की पहल शुरू की, लेकिन उनके तबादले के बाद सबकुछ स्थिर हो गया। रैन विशुनी पंचायत के मुखिया प्रेमशंकर सिंह कहते हैं कि यहां के किसान मर रहे हैं। जलजमाव के कारण फसल नहीं हो रहा है। जो जमीन सूखी है, वहां जंगल उग गये हैं। बनसुगर से लेकर कई जंगली जानवरों से लोग परेशान हैं। जमीन भी नहीं बिक रही है। जमीन से कुछ नहीं मिला, फिर भी मालगुजारी देनी पड़ती है। लोग निराश हो चुके हैं। लेबर तो पलायन कर गये, लेकिन किसान कहां जाये।
यह समस्या 1997 की बाढ़ के बाद तब शुरू हुआ, जब मधकौल गांव के पास बागमती नदी का बायां तटबंध टूटने के कारण मनुषमारा नदी, जो बागमती से मिलती थी, उसका मुहाना ब्लाॅक हो गया और उसका एक किनारा बेलसंड कोठी के पास टूट गया। इसके बाद इसका पानी रून्नीसैदपुर से लेकर बेलसंड से धरहरवा गांव तक फैल गया। उधर, रीगा चीनी मिल से निकलने वाला कचरा इस जलधारा के जरिये करीब दो दर्जन गांवों तक पहुंच गया और समस्या को और भयावह बना दिया।
प्रेमशंकर सिंह बताते हैं कि बागमती पर रिंग बांध बनाने से यह समस्या उत्पन्न हुई। इसका समाधान जलनिकासी ही है। इसके लिए नहर खोदकर इस पानी को निकाला जाये, लेकिन यह संभव होता नहीं दिख रहा है। काला पानी की जलनिकासी के लिए अनवरत संघर्ष चलते रहे हैं। एक दशक पूर्व ही राज्य के जल संसाधन विभाग ने जलनिकासी के लिए एक विस्तृत योजना बनानी शुरू की, जो आज तक अमल में नहीं आयी। अभी हाल में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने पर्यावरण मानकों के उल्लंघन के लिए रीगा चीनी मिल को नोटिस जारी किया।
टोला गांव समेत हरिदोपट्टी, अथरी, रैन विशुनी, बगाही रामनगर पंचायतों की स्थिति बनी भयावह है। हजारों एकड़ जमीन पर काला व जहरीला पानी पसरा हुआ है। इसके चलते लोगों की खेती गयी। आजीविका का साधन छीन गया है और मुफ्त में मिल रहीं गंभीर बीमारियां। पशु-पक्षी, कीट-पतंग मर रहे हैं। जलनिकासी के लिए प्रखंड व जिला मुख्यालयों पर ग्रामीणों ने आंदोलन चलाया, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हुआ। अधिकारी बेफ्रिक हैं, और लोग परेशान। काला पानी का असर खेतों से लेकर घरों तक हो रहा है। सबसे अधिक प्रभावित भादा टोला है, जो रसायन घुले पानी से घिरा है। इस गांव के लगभग दो दर्जन लोग विकलांग हो चुके हैं। लालबाबू राम, रामसकल राम, सुखदेव राम, कुलदीप राम व राजदेव मंडल पुरी तरह निःशक्त हो गये हैं। चलने-फिरने में असमर्थ हैं। सगरी देवी, सुमित्रा देवी, सगरी देवी, कुसमी देवी समेत दो दर्जन लोग विकलांगता के शिकार हो चुके हैं। भादाडीह टोला के ही चार लोग हसनी देवी, बलम राम, सिंकिंद्र राम व विनय राम कुष्ठ रोग से ग्रसित हैं। बलम राम बताते हैं कि हम अभिशाप ढो रहे हैं। हमें सिर्फ आश्वासन मिला है। कोई मदद करने नहीं आया है। ‘जल ही जीवन है, लेकिन इनके लिए पानी मौत बन चुकी है’ जुमला बन गया है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)